कहते हैं, दुनिया में अगर कुछ छोड़ने जैसा है, तो लोगों से उम्मीद करना छोड़ देना चाहिए। लेकिन तस्वीर का दूसरा पहलू है कि दूसरों के काम आना ही जीवन है। ऐसा बनने की कोशिश की जाए, जैसे कि कुदरत है। राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू अपने अभिभाषणों में अक्सर बचपन का एक वाकया सुनाती हैं कि मैं गांव के एक गरीब परिवार से हूं। शुरू से ही मैं हरियाली से वाकिफ रही हूं। हमारे घर की रसोई में सूखी लकड़ी को जला कर खाना बनता था, क्योंकि हमारे पास खाना पकाने का कोई अन्य साधन नहीं था।

चोट देने और जलाने से पहले इससे क्षमा मांगता हूं

मेरे माता-पिता जंगल से लकड़ी की टूटी टहनियां बीन-चुन कर लाते थे। फिर घर ला कर, उन्हें कुछ दिन सुखाते और छोटे-छोटे टुकड़े करते। मैं गौर से सब देखती रहती थी। पिताजी लकड़ी जलाने से पहले सिर झुका कर नमन जरूर करते थे। मैंने जिज्ञासावश एक दिन पूछ ही लिया कि पिताजी, आप लकड़ी जलाने से पहले नमन क्यों करते हैं। तब पिताजी सहज भाव से समझाने लगे कि ‘बेटी, यह अब सूख गई है, बहुत पुरानी हो गई है, लेकिन इन्होंने सारी जिंदगी हमें फल, फूल, छाया, हवा और पानी दिया है। अब बूढ़ी होकर भी हमारे बड़े काम ही आ रही हैं। इसीलिए मैं चोट देने और जलाने से पहले इससे क्षमा मांगता हूं।

नदियां अपना पानी स्वयं नहीं पीतीं, पेड़ अपने फल नहीं खाते और सूरज खुद को रोशन नहीं करता। यानी दूसरों के लिए जीना कुदरत का कायदा है। इंसान समेत कुदरत की हर चीज एक दूसरे की मदद करने के लिए ही पैदा हुई है। चाहे कितने भी मुश्किल हालात क्यों न हों, जिंदगी अच्छी और खुशहाल होती है, जब आपकी वजह से दूसरे खुश होते हैं।

किसी अन्य देश में एक पिता अपने बेटे के स्कूल में गया। खेल के मैदान के एक तरफ टहलते-टहलते उसकी नजर चटकीले लाल रंग के एक बेंच पर पड़ी। बेंच जरा अलग आकार-प्रकार का था। उसे देख कर पिता के मन में जिज्ञासा उठी। उन्होंने अपने बेटे से पूछा, ‘क्या यह बेंच बैठने के लिए है या नुमाइश के लिए?’ बेटे ने जवाब दिया, ‘नहीं, नहीं। यह यों ही बैठने या सजावट के लिए नहीं है, बल्कि यह दोस्त ढूंढ़ने का बेंच है।

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जब कोई विद्यार्थी खुद को अकेला महसूस करता है, या उसके संग खेलने वाला कोई नहीं होता, तो वह इस पर आकर चुपचाप बैठ जाता है। इस पर यों अकेला बैठे देख बाकी सहपाठी उसे फौरन अपने संग खेलने का न्योता देने लगते हैं।’ बच्चों का अकेलापन दूर करने के लिए उस स्कूल के प्रशासन ने वाकई काबिले- तारीफ तरीका अपनाया है।

इससे सीखा जा सकता है कि हर बंदा खुद में इतना भी मदमस्त न रहे कि मदद के लिए दूसरे की खामोश पुकार भी न सुन सके। जीवन के हर मोड़ पर, हर किसी को किसी न किसी की मदद और सहयोग की जरूरत होती ही है। यथासंभव आगे बढ़ कर हर किसी की मदद के लिए सदा तत्पर रहें। किसी जरूरतमंद की मदद करना न केवल निजी स्तर पर सुख का कारण बनता है, बल्कि विपरीत हालात में जब कोई हमारी मदद करता है, तब हमें इसकी अहमियत ज्यादा शिद्दत समझ में आती है।

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खुद को इतना व्यस्त, इतना अनुशासित, इतना निज निश्चयी नहीं बना लेना चाहिए कि हमें आसपास को जानने का समय ही न मिले कि दूसरों के जीवन में क्या हो रहा है, वे कैसे मुश्किलात से गुजर रहे हैं, या कहीं उन्हें मदद की जरूरत तो नहीं है। अपने आप में केंद्रित और समर्पित रहने के बजाय दूसरों के लिए भी यथासंभव हाथ बढ़ाना चाहिए। भारतीय सेना और कई शिक्षा संस्थानों का आदर्श वाक्य ‘स्वयं से पहले सेवा’ दूसरों की सेवा के ही भाव का बखूबी संचार करता है। खुद से पहले दूसरों की सेवा को अपने जीवन का संस्कार और सिद्धांत बनाने में जो आनंद है, वह केवल और अकेले अपने लिए जीने में कतई नहीं है।

यों भी, जो इंसान मानव सेवा में लीन रहता है, वह सदा बुराइयों से दूर रहता है। दिल से सेवा करने से हमारे परिवार-कारोबार में भी बरकत और समृद्धि आती है। इसलिए अपना ज्यादा से ज्यादा तन, मन, धन और समय दूसरों की सेवा में लगाना चाहिए। इंसान मृत्यु के बाद अपने साथ धन-दौलत नहीं ले कर जाता, बल्कि अपने संग महज अपनी अच्छाइयों का अंबार ले कर जाता है। दूसरों की भलाई ही सही मायने में ध्यान और ईश्वर की भक्ति है। खुशी पाने के लिए ही खुशी बांटी जाती हैं।

सिख धर्म की लंगर और छबील प्रथा का मूलमंत्र दिल से सेवा ही है। गुरु नानक देव का एक प्रसंग है। एक दफा एक व्यक्ति ने गुरु नानक देव से पूछा, ‘मैं इतना गरीब हूं कि किसी की क्या सहायता कर सकता हूं?’ गुरु नानक देव सहज भाव से बोले, ‘तुम गरीब हो, क्योंकि तुमने देना नहीं सीखा।’ उस व्यक्ति ने जानना चाहा, ‘लेकिन मेरे पास देने के लिए कुछ है कहां?’ गुरु नानक देव ने समझाया, ‘तुम्हारा चेहरा मुस्कान दे सकता है। तुम्हारी जुबान किसी की प्रशंसा कर सकती है। दूसरों में सुकून जगाने के लिए मीठे वचन बोल सकती है। तुम्हारे हाथ किसी जरूरतमंद की सहायता कर सकते हैं। इतना कुछ होने के बावजूद तुम कहते हो कि तुम्हारे पास देने के लिए कुछ नहीं है।’