शिखर चंद जैन

जब-जब भूस्खलन, हिमस्खलन, भूकंप, बाढ़, अकाल, अतिवृष्टि, शीतलहर या जानलेवा लू चलने जैसी प्राकृतिक आपदाएं या समस्याएं सामने आती हैं, तब-तब इंसान कुछ ऐसी ही प्रतिक्रियाएं देता है कि हे प्रभु यह कैसा कहर ढाया… कैसा अन्याय किया… सर्वनाश कर दिया! लेकिन इंसान भूल जाता है कि जो कुछ हो रहा है, इसका दोषी प्रकृति नहीं, बल्कि वह स्वयं है। इंसान अपने कर्मों का ही दुष्परिणाम भोग रहा है। सच यह है कि इंसान प्रकृति के प्रति आदतन लापरवाह और कृतघ्न रहा है और सदैव प्रकृति का दोहन, शोषण और भोग ही करता रहा है। अगर प्रकृति का सम्मान किया गया होता और उसे उसके स्वाभाविक रूप में रहने दिया गया होता, तो आज धरती की यह स्थिति नहीं होती।

प्रकृति की मार के बाद लाचार दिखता है मनुष्य

आश्चर्य तब होता है, जब रोज तुलसी सींचने वाले, तुलसी विवाह करने, पीपल में पानी देने और अपने घर में फूलों के पौधे या अपने मकान के अहाते में विशाल बगीचा लगाने वाले या प्रकृति संरक्षण पर लंबी-चौड़ी बातें करने वाले लोग कई बार खुद लकड़ी का कारोबार करते पाए जाते हैं। सच यही है कि एक इंसान में कई-कई इंसान होते हैं। प्रकृति की मार जब पड़ती है, तब यही मनुष्य लाचार दिखता है। दुख से दो-चार होता है, मगर प्रकृति को नुकसान पहुंचाने के मामले में यही मनुष्य आगे रहता है।

यह समझना मुश्किल है कि एक ही इंसान में इतनी परतें क्यों हैं

हम सभी समय-समय पर स्वार्थी, क्रूर, अन्यायी, ईर्ष्यालु और बुरा चाहने वाले या दोषारोपण करने वाले बनते रहते हैं। वहीं हम समय-समय पर दयालु, लोगों की तरफ मदद का हाथ बढ़ाने वाले, प्रकृति की रक्षा और उसका सम्मान करने वाले और लोगों से प्यार करने वाले भी बनते रहते हैं। कई बार यह समझना मुश्किल हो जाता है कि एक ही व्यक्ति के भीतर इतनी परतें कैसे मौजूद होती हैं और कैसे वह इसका निर्वाह कर लेता है। शायद यह भी एक पक्ष होगा कि वक्त और जरूरत के मुताबिक उसे अपनी प्राथमिकताओं का निर्धारण करना पड़ता होगा।

संस्थानों को मोटी रकम देने वाले खुद हानिकारक उत्पाद बनाती है

इसके व्यापक संदर्भ निजी कंपनियों या कारपोरेट जगत में ऐसे कई उदाहरण देख जा सकते हैं। जो कंपनियां सामाजिक कल्याण या उत्थान के अभियान चलाती हैं, संस्थाओं को मोटी रकम चंदा में देती हैं, वे ही सेहत के लिए नुकसानदायक उत्पाद बनाती हैं या फिर नकली उत्पाद या समाज के लिए हानिकारक सेवाएं, वीडियो गेम आदि का विक्रय करती पाई जाती हैं। लेकिन क्या कंपनियों के ऐसे रवैये को इंसानों के उस व्यवहार के समांतर देखा जा सकता है, जिसमें वह परिस्थितिवश किसी विकल्प का चुनाव करता है? शायद नहीं!

यों हर किसी के व्यक्तित्व के दो पहलू होते हैं, एक स्याह और दूसरा सफेद। जो व्यक्ति एक चिकित्सक के रूप में मरीजों के प्रति दयालु हो, वह अपने परिवार के सदस्यों के प्रति क्रूर हो सकता है या फिर इसके विपरीत भी हो सकता है कि वह मरीजों के प्रति निर्दयी और परिवार के प्रति बेहद संवेदनशील हो। इसी प्रकार अपने गरीब कर्मचारियों के प्रति कठोर रहने वाला और उनका आर्थिक शोषण करने वाला मालिक कहीं मुफ्त में गरीबों को भोजन खिलाते हुए पाया जा सकता है। ‘ग्रेटर गुड साइंस सेंटर’ के सह-निदेशक डेचर केल्टनर की राय है कि साठ फीसद बार हम अपने निजी स्वार्थ और अपने अस्तित्व को बनाए रखने के वशीभूत रहते हैं, लेकिन चालीस फीसद बार हम त्याग और परोपकार की भावना भी रखते हैं।

हम सबकी भावनाएं और व्यवहार कई बाह्य और आंतरिक कारणों पर निर्भर करती हैं। हम चीजों को अलग-अलग नजरिए से देखते हैं और तदनुसार व्यवहार करते हैं। यह नजरिया धार्मिक, नैतिक, व्यावसायिक, व्यावहारिक, बौद्धिक, दार्शनिक, भावनात्मक कुछ भी हो सकता है। हम अपने निजी स्वार्थ के लिए कई बार भूखे पेट रहने का दंभ भरते हैं, जबकि यह अभाव की वजह से भूखे रहने के मुकाबले बिल्कुल उलट स्थिति है।

कई बार हम बेरोजगार होने या अभावग्रस्त होने पर बेईमानी सहित कोई भी बड़ा कदम उठाने के लिए तैयार हो जाते हैं। लेकिन हमेशा ऐसा नहीं होता। कई बार सर्वसाधन संपन्न होने के बावजूद कुछ इंसान बेईमानी या अपराध करते हैं, ताकि वे और ज्यादा साधन संपन्न या शक्तिशाली हो सकें। या फिर अपनी शक्ति का प्रदर्शन करने के लिए भी लोग ऐसा करते हैं।

इसलिए जब भी हम प्रकृति या किसी दैवीय शक्ति या फिर व्यक्ति की आलोचना करते हैं, उसे कोसते या उलाहना देते हैं तो याद रखना चाहिए कि सब कुछ हमारा ही किया-धरा है। या फिर जो है, उसमें हमें अपनी जिम्मेदारी के बारे में भी विचार करना चाहिए। जब हम दुनिया को बुराई की खान बताते और लोगों की आलोचना करते हैं, तो हमें भूलना नहीं चाहिए कि यह दुनिया हमारी ही बनाई हुई है और हम सब इन्हीं में से एक हैं।