मनुष्य का भौतिक शरीर दरअसल एक परिसीमा की तरह कार्य करता है। परिसीमा का कार्य है- किन्हीं भी दो माध्यमों को परस्पर अलग करना। भौतिक शरीर रूपी परिसीमा भी दो बहुत विशाल माध्यमों को अलग करने की भूमिका अदा करती है। इनमें से एक है, अनंत संभावनाओं एवं विविधताओं से भरा हुआ बाह्य जगत और दूसरा है रहस्यों से परिपूर्ण आंतरिक संसार। इस आंतरिक जगत को हम अंतस या फिर अंतर्मन भी कहते हैं। हमारा अंतस भी एक सूक्ष्म आकार की, लेकिन अनगिनत मर्म से भरी हुई जीवंत दुनिया है। आमतौर पर हम सभी देखते हैं और अनुभव भी करते हैं कि जलवायविक दशाओं में परिवर्तन होने से आसपास के वातावरण में तूफान या झंझावात का जन्म हो जाता है। तूफान से लेकर शांति तक का सफर बाह्य जगत के स्वरूप में न जाने कितने परिवर्तन कर देता है।
ठीक उसी प्रकार हमारे अंतस में भी समय-समय पर अनेक झंझावात उत्पन्न होते रहते हैं। अंतस की तुलना एक महासागर से भी की जा सकती है जो सामान्य परिस्थितियों में तो एक शांत जल की तरह है, लेकिन जब इसमें विचारों, भावनाओं, इच्छाओं और आशंकाओं की लहरें उठती हैं, तब इसमें अनेक झंझावात उत्पन्न होना शुरू हो जाते हैं। ये झंझावात हमारे अंतस के धरातल पर परिणामों की एक नई तस्वीर को उकेरने का प्रयत्न करते हैं। विचारों एवं भावनाओं से जनित ये झंझावात नितांत शक्तिशाली होते हैं। अक्सर उनका प्रभाव इस सीमा तक हो सकता है कि वे हमारे अंतस को पूर्णतया झकझोर कर उसके स्वरूप में एक बड़ा परिवर्तन कर देते हैं।
आखिरकार ये झंझावात क्यों उत्पन्न होते हैं?
अक्सर ऐसा कहा जाता है कि गहरा जल सदैव शांत होता है। हमारा अंतस भी बेहद गहरा होता है। मगर यह भी एक कटु सत्य है कि जब झंझावात का जन्म गहराई से होता है तो उसकी शक्तियां और क्षमताएं भी अपार तथा असीमित होती हैं। अंतस में उत्पन्न होने वाले झंझावात भी अतुलनीय शक्तियों से परिपूर्ण होते हैं। आखिरकार ये झंझावात क्यों उत्पन्न होते हैं? यह प्रश्न भी अपने आप में एक गहन वैचारिक मंथन की मांग करता है। अंतस में झंझावातों की उत्पत्ति के कारण हमेशा बाह्य जगत से ही जुड़े होते हैं। बाह्य परिस्थितियां व्यक्ति के अंदर भावनाओं एवं विचारों का एक ज्वार उत्पन्न करती हैं, जो अंतत: एक भयंकर झंझावात में रूपांतरित हो जाता है। अपूर्ण इच्छाएं, जीवन की धारा का आशानुरूप न चलना, सामाजिक ताने-बाने के साथ उचित रूप से संबद्ध न हो पाना, अपेक्षाओं का अनावश्यक बोझ, अतीत की स्मृतियां, आत्म-अस्वीकृति आदि कुछ ऐसे कारक हैं जो व्यक्ति के अंतस में एक बड़े झंझावात का बीज बोने का कार्य करते हैं।
अक्सर किसी के साथ ऐसा हो सकता है कि वह अपने मूल्यों एवं सिद्धांतों का अपने व्यावहारिक क्रियाकलापों के साथ टकराव महसूस करे। ऐसी दशा में भी अंतर्मन झंझावातों से घिर जाता है। इसके अतिरिक्त जब कभी मनुष्य स्वयं से अपने ही बारे में प्रश्न करने का प्रयास करता है, यानी आत्म विश्लेषण और आत्मचिंतन की चेष्टा करता है, तब ऐसी स्थितियों में भी अंतर्मन अनेक प्रश्नों से भर उठता है। परिणामस्वरूप झंझावात के अनुकूल दशाएं निर्मित हो जाती हैं। फिर जब हमारी अपेक्षाओं एवं आकांक्षाओं का स्तर बहुत ही उच्च होता है, लेकिन यथार्थ के आईने में उनकी छवि हमें बड़ी छोटी दिखाई देने लगती है, तब उन दशाओं में भी अंतस उद्वेलित होता है और यह उद्वेलन एक बड़े झंझावात को जन्म देता है।
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अंतस के झंझावात पूरे शरीर पर एक बड़ा प्रभाव डालते हैं। इनका सबसे बड़ा और सबसे महत्त्वपूर्ण प्रभाव जो एक बड़े दायरे में परिलक्षित होता है, वह है अंतर्मन की असंतुलित दशा। अंतस अगर एक बार असंतुलित हो गया तो फिर इसे संतुलन की स्थिति में ला पाना नितांत दुष्कर और दुस्साध्य होता है। अंतस में असंतुलन जैसी स्थितियां हमें प्रगति के पथ पर चल पाने से रोक देती हैं। अलग-अलग प्रकार के अवरोध हमारी उस सतत यात्रा की सुगमता और सहजता में आने लगते हैं, जो हमने इस बाह्य जगत में जन्म लेने के साथ ही शुरू कर दी थी।
प्रश्न उठता है कि आखिरकार इन आंतरिक झंझावातों को कैसे रोका जाए। यहां पर एक बात विशेष रूप से उल्लेखनीय है कि ऊर्जा को न तो नष्ट किया जा सकता है और न ही उत्पन्न किया जा सकता है, इसे केवल और केवल एक रूप से दूसरे रूप में रूपांतरित किया जा सकता है। यह विज्ञान का एक सर्वमान्य नियम है। अंतस में उत्पन्न झंझावात भी असीमित ऊर्जा का ही एक रूप होते हैं। इन्हें उठने से रोकना तो बेहद कठिन है। यह कार्य तो बड़े-बड़े ऋषियों, मुनियों, योगियों, तपस्वियों एवं साधकों के ही वश का है, जिन्होंने अपनी इंद्रियों पर विजय पा ली है एवं जो बाहरी जगत से पूरी तरह से विमुख हो चुके हैं। स्पष्ट है कि जब बाहरी जगत और बाह्य परिस्थितियों से कोई लेना-देना ही नहीं होगा तो फिर अंतस में तो पूर्णतया शांति ही विद्यमान होगी। झंझावातों के उठने का तो प्रश्न ही नहीं पैदा होता।
सामान्य मनुष्य ऐसा नहीं कर सकता, क्योंकि उसे अपना जीवन बाहरी जगत से जुड़े रहकर ही जीना है। अंतस के झंझावातों को रूपांतरित कर लेना ही इनके कुप्रभावों से मुक्ति पाने का एक बेहतर विकल्प हो सकता है। अगर हम दैनिक चर्या में से थोड़ा-सा समय निकालकर ध्यान की अवस्था में जाने और सब कुछ भूलने का प्रयास करें तो निश्चित रूप से हम अंतस के झंझावातों से मुक्ति पा सकते हैं या उन्हें किसी दूसरे रूप में परिवर्तित करके अपनी विकास यात्रा को गति प्रदान कर सकते हैं। यह पूरी तरह निश्चित है कि अगर हम साधना के बल पर अपने अंतर्मन में उत्पन्न होने वाले झंझावातों की ऊर्जा का रूपांतरण करके उसे आत्मविकास एवं आत्मोन्नति में लगाने का प्रयास कर लें, तो निश्चित रूप से ये झंझावात हमारे व्यक्तित्व निर्माण और लक्ष्य प्राप्ति के लिए एक वरदान की तरह सिद्ध हो सकते हैं।