परिवार तभी मुकम्मल माना जाता रहा है, जब उस परिवार का कोई एक अदद मुखिया उसे संचालित करता है। क्या आज परिवार के मुखिया के साथ ऐसा हो पा रहा है? यह सवाल आज एक तरह से सबसे उपेक्षित सवालों में से एक है। दरअसल, समाज का आम रवैया जैसा होता है, उसमें वृद्धों की दुनिया ही अलग होती है। बल्कि कई बार ऐसा लगता है कि क्या वृद्धों को दूसरी दुनिया बना लेनी चाहिए! सच यह है कि वृद्धों की अपनी अलग दुनिया होती नहीं है, बल्कि उन्हें शेष जीवन का वक्त किसी तरह से काटना पड़ता है। उनकी दुनिया अपनों से अलग हो जाती है।
युवा बढ़ता खून और वृद्ध सूखता, घटता और निचुड़ता खून है
युवा बढ़ता खून और वृद्ध सूखता, घटता और निचुड़ता खून है। युवा अपनी युवावस्था में बहुत-सी बातों पर गौर नहीं करते, इसलिए अपने बुजुर्गों की मान-मर्यादा नजरअंदाज कर दी जाती है। एक दिन जब शक्ति उनके हाथों से निकल चुकी होती है, तब उन्हें अपने ही घर में कहीं एक कोना भी मिल पाना मुश्किल हो जाता है। कई बार उन्हें वृद्धाश्रम में यों छोड़ दिया जाता है, जैसे वे कोई घर का फालतू सामान हों, जिसे बाहर कर दिया जाता है। कई बुजुर्गों को घर से बाहर का रास्ता दिखा दिया जाता है। इनमें से कुछ ऐसे होते है जो वृद्धाश्रम में शरण ले पाते हैं। कई बुजुर्ग ऐसे भी हैं जो सड़क पर लावारिस दम तोड़ने पर मजबूर होते हैं।
भारत में वृद्धाश्रम भारतीय संस्कृति के खिलाफ माने जाते हैं
भारत में आज भी वृद्धाश्रम को भारतीय संस्कृति के खिलाफ माना जाता है। उदारीकरण के बाद कई बातों को जोर देकर भारतीय संस्कृति का विरोधी कहा जाता है, लेकिन ज्यादातर लोग व्यवहार में वैसा ही करते हैं। इसी तर्ज पर वृद्ध समाज के हाशिये पर चले जाने पर उनकी पीड़ा को कोई समझने को तैयार नहीं होता। जिन अपने कहे जाने वाले पुत्र-पुत्रियों को उनका वारिसाना हक मिलता है, वे सब कुछ हासिल करना अपना हक समझते हैं, पर अपनी जिम्मेदारी से मुंह मोड़ लेते हैं। ऐसा क्यों हो रहा है? क्या हम पूरी तरह पश्चिमी रंग में रंग चुके हैं? हम औद्योगिक युग की भाग-दौड़ में जी रहे हैं।
वृद्धों का दूसरा संसार यों तो हमेशा से रहा है, पर वर्तमान में यह संसार अधिक दुखदायी, त्रासद और कष्टमय होता जा रहा है। इस कष्ट के पीछे बेशक अपनी परंपराओं से मुंह मोड़ना, भूलना और अपने सुख के पीछे अंधे होकर दौड़ लगाना रहा है। हम सभी जिंदगी भर घर का भार ढोने वाला मुखिया बनकर जीते हैं और बुढ़ापे में घर की चौखट से बाहर कर दिए जाते हैं। आज वैसे बुजुर्ग दिख जाएंगे, जो ‘अंतिम अरण्य’ में दिन काट रहे हैं या फिर कहीं किसी पुलिया पर समय काटने पर मजबूर हैं। कई घरों की बैठक में सबका हिस्सा होता है, पर वृद्ध घर के एक कोने में सिकुड़कर रहने पर मजबूर हैं या फिर उन्हें वृद्धाश्रम का रास्ता बता दिया जा रहा है। जो बुजुर्ग घर में बराबर का साथ पा रहे हैं, वे बड़े सौभाग्यशाली हैं और थोड़ा अच्छा वक्त बिताते हुए अच्छे से जी लेते हैं। यानी ऐसे बच्चे भी हैं जो अपने घर की बुनियाद रखने वालों की कद्र करते हैं, उनका खयाल रखते हैं।
मगर नई पीढ़ी के ज्यादातर युवा क्यों रंग बदले रहे हैं? क्या इनका बदलना जरूरी है? चिंता इस बात की है कि अगर ये यों ही बदलते रहे तो भारतीयता का क्या होगा? वृद्धों का क्या होगा? उपभोक्तावाद,, बाजारवाद और उदारवाद में यह सब होना स्वाभाविक माना जाता है। भारत की पुरानी पीढ़ी यह सब देखकर भौंचक है तो नई पीढ़ी जश्न के मूड में हैं। इसलिए फिलहाल वह इस विषय पर किसी तरह की चिंता करने की स्थिति में नहीं है। चिंता कर रहे हैं समाजशास्त्री, विद्वान लेखक और चिंतक कि क्या किया जाए, जिससे अंतिम समय में बुजुर्ग अपने परिवार में थोड़ा सुकून से रह कर गुजार सकें।
वृद्धावस्था के अपने कड़वे सच है। इसे जीने के लिए वृद्ध व्यक्ति को स्वयं ही भोगना होता हैं। अवस्था के अनुसार व्यवहार करना होता है। समय के बदलने के साथ बहुत कुछ बदल जाता है। दूसरों से अपेक्षा जितनी कम रखी जाए, उतनी ही सही है। जीवन सुख-दुख का गुलदस्ता है। सुख-दुख आते-जाते रहते हैं। ये जीवन के ऐसे पहलू हैं, जिन्हें कहना आसान है, जीवन में उतारना बड़ा मुश्किल होता है। जीवन दर्शन को समझ लेने वाले बुढ़ापे में निराश, हताश नहीं होते। बेटे-बेटियों से अत्यधिक अपेक्षा करने वाले भावुक बुजुर्ग अक्सर दुखी रहते हैं।
भारतीय दर्शन का एक शब्द है- ‘वीतराग’। इस शब्द को जीवन में उतारे बिना वृद्ध व्यक्ति आधा-अधूरा ही रहेगा। पहली से दूसरी दुनिया में प्रवेश करते ही हर उस बात के लिए हमेशा तैयार रहना चाहिए, जिसे दर्शन की भाषा में वीतरागी कहा गया है। बुद्ध उसे विपश्यना कहते हैं। संयम-संतोष रखना और इच्छाओं से परे रहना। कभी भी आ सकने वाली मृत्यु के लिए पूरी तरह तैयार रहना, मगर हर पल को जीते हुए। माना जाता है कि बुढ़ापे में मंदिर घूमने जाना, तीर्थ करना, संतों और आश्रम की शरण में जाना ही उचित या अंतिम माध्यम नहीं है। इन दिनों इस तरह की दुनिया पर भी विश्वास करना मुश्किल हो गया है। अपनों से अधिक मोह न करना, अपेक्षा न रखते हुए वृद्धावस्था को सुकून से गुजारा जा सकता है।