लोकेंद्रसिंह कोट
शब्दों का अभाव मौन है, लेकिन देह की अपनी भाषा होती है, जो मनोभावों को प्रदर्शित करती है। भावनाएं अपना सर्वश्रेष्ठ अभिव्यक्त तभी कर पाती है जब मुंह से शब्द नहीं निकल रहे हों। यह मौन ही है जो श्रेष्ठ सृजन को जन्म देता है। गहरी उदासी, दुख, ग्लानि, अहंकार, गुस्सा सब हमें बाहर से मिलता है और ज्यादातर शब्दों के प्रयोग से ही मिलता है, लेकिन प्रेम, करुणा, आनंद हमारे मौन में निहित है। जितना गहरा मौन होगा, उतना ही जीवन स्पष्ट, शांत, आनंदित होगा। जैसे बोलना कला है, वैसे ही मौन रहना भी कला है। मानव जीवन बना ही कलात्मक रहने के लिए। जहां कला छूटी, वहां उच्छृंखलता, अनुशासनहीनता का प्रवेश हो जाता है जो समाज, देश के लिए विकृति का कार्य करता है। यही विकृतियां मिलकर जेलों, अस्पतालों, पुलिस थानों, न्यायालयों की संख्या बढ़ाती है और किसी भी सभ्य समाज में इनकी संख्या बढ़ना अवनति की निशानी है।
जीवन का मुख्य उद्देश्य है आनंद, प्रेम, करुणा
समय के अभाव, आपाधापी, तुरत-फुरत के युग में आम जन को जीवन के उद्देश्य सही ढंग से पता नहीं हैं और ऐसे में हमारी संस्कृति इस ओर हमें प्रवृत्त करती है कि जीवन का मुख्य उद्देश्य आनंद, प्रेम, करुणा है। इसलिए हर कुछ दिनों बाद कोई न कोई त्योहार हमारे द्वार पर होता है जो हमें बताता है कि जीवन में अल्पविराम है, जो हमें अपने अंदर के व्यक्तित्व से परिचित कराते हैं। शास्त्रों में सहज समाधि का जिक्र आया है। कुछ मंत्र जो सिर्फ मौन के लिए ही बने थे और वे हमारी चेतना तक पहुंचने में मदद करते हैं, सहज समाधि के लिए उपयुक्त होते हैं। समाधि अवस्था में सब कुछ चैतन्य हो उठता है। जहां गहरा मौन और चेतना भी अपनी सर्वोच्च अवस्था में होती है, तभी प्रकृति, गुरु, हरि से साक्षात्कार होता है।
मन अपने आप मौन, शांति तलाशता है
दुनिया में जितने शब्द हैं, उन सभी का उद्देश्य यही है कि हम स्वयं को बेहतर ढंग से समझ सकें। जब बहुत शोर से गुजरते हैं, तो मन अपने आप मौन, शांति तलाशता है। मौन को इसलिए मोक्ष से जोड़ा गया है। मोक्ष का सीधा मतलब है मुक्ति। किससे मुक्ति? जो कुछ है या हो रहा है वहां से मुक्ति। चाहे जीवन हो, कोई काम हो, दौड़-भाग हो, शोर हो, सबसे मुक्ति। सबका अंत है मौन। इसलिए यह मोक्ष का मार्ग है। ध्यान भी इसलिए कि वहां मौन है और मौन क्यों… तो बहुत बोल कर देख लिया, मिला नहीं जो चाहते थे। थोड़ा-सा ध्यान किया, मौन हुए तो लगा कि रास्ते स्पष्ट हैं, मंजिल भी यहीं है। जब भी हम गुस्से में चिढ़ते हैं, चिल्लाते हैं और इसके बाद शांत होते हैं तो अनायास अंदर से कोई कहता है, क्यों किया इतना गुस्सा।
जीवन को सार्थकता मौन ही प्रदान करता है। आर्किमिडीज भी अपने अनुसंधान से उकता गए थे और जब वे शांत होकर बैठे, तभी आविष्कार हो गया। न्यूटन शांत होकर सेव के पेड़ के नीचे बैठे तभी गुरुत्वाकर्षण का सिद्धांत मिला। कई ऋषि मुनि तमाम ग्रंथों से ज्ञान अर्जन के लिए शांत जगह तपस्या करते थे, मौन में रहते थे, तभी व्यावहारिक ज्ञान स्वत: उनके दिमाग में आता था।
सृष्टि का विकास या प्रारंभ मौन से ही हुआ है। एक मानव भी मौन ही जन्म लेता है और आखिर में मौन में ही समा जाता है। मौन देवत्व की श्री श्रेणी में आता है तो वाचालता या शोर दानवत्व का प्रतिनिधित्व करता है। कई प्रश्नों का जवाब भी मौन होता है, लेकिन जब जवाबों को शब्द देने लगते हैं तो तर्क, वितर्क, कुतर्क का बहुत बड़ा मायाजाल उत्पन्न हो जाता है, जिससे निकलना नामुमकिन होता है।
मौन अक्सर सदियों तक गूंजता है, वहीं शब्द सुनने, पढ़ने का मोहताज होकर अल्पकालीन होता है। शब्द घाव करते हैं, वहीं मौन निर्लिप्त, अहिंसक, सात्विक होता है। शब्द संसार को प्रदर्शित करता है तो मौन वैराग्य को। शब्द साधना की मांग रखता है, वहीं मौन सहज होता है। उसे किसी सहारे की जरूरत नहीं होती है।
कहा जाता है कि जब बुद्ध को ज्ञान की उपलब्धि हुई, तो वे पूरे एक सप्ताह तक मौन रहे। उन्होंने एक शब्द भी नहीं कहा। पौराणिक कथा कहती है कि इससे स्वर्ग के सभी देवदूत भयभीत हो गए। वे जानते थे कि सहस्राब्दी में केवल एक बार ही कोई व्यक्ति बुद्ध जैसा खिलता है और अब वह मौन था! तब स्वर्गदूतों ने उनसे कुछ कहने का अनुरोध किया। बुद्ध ने कहा, ‘जो जानते हैं, वे मेरे कहे बिना भी जानते हैं और जो नहीं जानते, वे मेरे कहने पर भी नहीं जानेंगे। जिन लोगों ने जीवन के अमृत का स्वाद नहीं चखा है, उनसे बात करने का कोई अर्थ नहीं है और इसलिए मैं मौन हूं। कोई इतना अंतरंग और व्यक्तिगत अनुभव व्यक्त भी कैसे कर सकता है? शब्द इसे व्यक्त नहीं कर सकते और जैसा कि अतीत में कई शास्त्रों ने प्रकट किया है, शब्द वहीं समाप्त हो जाते हैं, जहां सत्य आरंभ होता है।’