पूरे साल की पढ़ाई के बाद बच्चों के स्कूलों की छुट्टियां होनी शुरू हो गई हैं और इसके साथ ही शुरू हो गए हैं बच्चों के लिए मौज-मस्ती के दिन। हालांकि इन छुट्टियों के बावजूद आजकल बच्चों पर स्कूल के ‘काम का बोझ’ इस कदर लाद दिया जाता है कि उनकी छुट्टियों में आनंद के सुख आधा-अधूरा रह जाता है या फिर वे उसी काम के लिए निर्वाह में व्यस्त रह जाते हैं।

हमारी पीढ़ी के लोगों को याद आते हैं वे दिन जब गर्मी की छुट्टियों में हम तमाम खेल खेला करते थे। हमारे गांव-शहर और घर की गली में खेल-खिलौने वाले अक्सर आते रहते थे। जब वे आते थे तो आते ही बच्चे इनकी बांसुरी की धुन पर मस्त हो जाते और कुछ बच्चे यह गाने भी लगते थे कि ‘आया रे खेल-खिलौने वाला आया रे।’ पर अब वे बांसुरीवाले नहीं आते।

पहले गलियों में बंदर या भालू का खेल दिखाने वाले आया करते थे

अब वे तरह-तरह के खिलौने वाले भी नहीं आते, जो अपने साथ झुनझुने या लकड़ी के वाहनों या गुड्डे-गुड़िया बेचने आते थे। अब हमारे खेल बदल गए हैं। अब हमारे हाथ में डिजिटल यंत्रों के छोटे पर्दे पर वीडियो गेम या अन्य खेल हैं, जिसमें हम और हमारे बच्चे गुम होते चले जा रहे हैं। पुराने समय में गलियों में बंदर या भालू का खेल दिखाने वाले आते थे।

तब बच्चे क्या, घर के बड़े भी इनको देखने के लिए बाहर आ खड़े होते। तब जो खेल दिखाए जाते थे, उसमें बंदर इतना प्रशिक्षित होता था कि बच्चे तो पूरी दिलचस्पी से देखते ही रहते थे, बड़े भी हंसते-खेलते वहां मौजूद रहते थे। उसमें मदारी बंदर की सुसराल यात्रा, नौकरी पर जाना, खाना पकाना, बंदर-बंदरिया का एक-दूसरे से रूठना जैसे खेल दिखाता। इसी तरह, भालू के खेल के बीच कभी-कभी बच्चों को उनके माता-पिता भालू की पीठ पर बैठा देते थे।

मगर अब तेजी से बदलते वक्त और उसमें खेल-खिलौने के बदलते स्वरूप के बीच इस तरह के खेल दिखाने और मनोरंजन करने वाले गांव-गली से गायब हो गए हैं। इनके न आने से जहां हम प्राकृतिक रूप से हमारे साथ समाज में पलने वाले पशुओं के साथ अभ्यस्त होने या उनके साथ से वंचित हुए हैं, वहीं हम कुछ खेलों के माध्यम से हासिल होने वाली सीखों को भी भूल गए हैं। जब मदारी भालू या बंदर के रूठने पर उसे मनाता था, तो हमें हंसी-हंसी में समझ आता था कि कोई अगर नाराज हो जाए तो उसे मजाक करके कैसे मनाया जा सकता है।

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पशुओं के भीतर भी संवेदना होती है और वे मानव व्यवहार की बारीकियों को सीखने की कोशिश करते हैं। अब पशु-पक्षियों को लेकर नए दौर में नई दृष्टि बन रही है। उनके जीवन के प्रति भी संवेदनशीलता बढ़ रही है। पशु अधिकारों का सवाल उभरने के साथ-साथ बहुत कुछ बदल रहा है। कई बार पशुओं को पीड़ित करने के जैसे मामले सामने आते हैं, उसमें उनके प्रति संवेदनशीलता की मांग स्वाभाविक ही है।

इसके अलावा, कभी-कभी साइकिल पर या पैदल कोई लंबे बांस में बांसुरी, रसोईघर के सामान, डमरू, गुड्डे-गुड़िया आदि लाता था तो हम उनके माध्यम से खेल-खेल में ही सही, पर काफी कुछ ऐसा सीख जाते थे जो आज हम गर्मी के दिनों की छुट्टियों के दौरान कक्षाओं में जाकर भी नहीं सीख पाते।

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बांसुरी बजाने का तो आनंद ही कुछ अलग होता था। वैज्ञानिक रूप से यह हमारी सांस को साधने का भी साधन था। फिर जब कोई खेल-खिलौने वाला आता था तो उसके पीछे चिलचिलाती धूप में बच्चों का भागकर उसके पास जाना या उसके पीछे दौड़ लगाना हमारे शरीर को वैज्ञानिक रूप से मजबूत ही करता था।

बच्चों के साथ खेलते हुए मन-मस्तिष्क से स्वस्थ रहने का सुयोग मिलता था। आज के बच्चे मोबाइल के स्क्रीन में गुम रहते हुए क्या-क्या खो रहे हैं और इस तरह उनके माता-पिता भी बच्चों को किस भविष्य में जाने दे रहे हैं, इसका अंदाजा कुछ समय बाद लग सकेगा। कभी सांप को खेल दिखाने वाले आते तो बच्चों का मजा कुछ और ही होता था।

सांप-नेवले की लड़ाई, बीन पर सांप को नाचते दिखाना सपेरों का विशेष आकर्षण होता था। अब वे सपेरे भी गायब हो गए हैं। इससे बच्चों में डर में आनंद लेने या फिर डर से निपटने के तौर-तरीके सीखने-जानने की परंपरा भी खत्म हो गई है।

हालांकि मोबाइल पर बच्चे जरूर सांप-सीढ़ी का खेल लेते हैं, पर उसमें वह जीवंतता नहीं आ सकती। कभी-कभी कोई पक्षियों के खेल भी दिखाने वाला भी बच्चों को नजर आ जाता तब तो बड़े बच्चे बन जाते। इनको लड़ाने वाले नट जाति के लोग बाद में दूसरे खेल दिखाते। छोटी-सी लड़की को बांस पकड़ाकर उसे रस्सी के जब सहारे चलाते तो बच्चों की सांस अधर में आ जाती। निश्चित रूप से यह छोटे बच्चों के जीवन को जोखिम में डालने और उनके अधिकारों का सवाल है, लेकिन उस दौर में यही संसाधन थे।

मदारी और जमूरे का खेल बच्चों को इतना आनंद देता था कि वे घर, दलान के आसपास, नोहरे आदि में अन्य बच्चों के साथ यह खेलने लगते। जब माता-पिता या घर के दूसरे उन्हें ऐसा करते देखते तो उन्हें भी हंसी आ जाती। पर अब गली-गली आने वाले खेल-खिलौने वाले समाज से गायब से हो गए हैं और बच्चों का बचपन मोबाइल में गुम होता जा रहा है।