लोगों में एक आम धारणा है कि प्यासा, कुएं के पास जाता है। कुआं कभी प्यासे तक नहीं जाता। यानी अगर कोई जरूरतमंद है तो मदद उसे ही मांगनी पड़ेगी। मदद देने वाला व्यक्ति उसे मदद देने नहीं आएगा। कई बार ऐसा होता है कि मदद करने वाला व्यक्ति भी खुद प्रस्ताव देता है कि मैं सहायता कर देता हूं, लेकिन ऐसा अमूमन कम ही देखने को मिलता है। ऐसे में जिस व्यक्ति को मदद की जरूरत होती है, उसे ही सामने वाले से सहायता मांगनी चाहिए।

कई बार समाज में यह भी देखने को मिलता है कि जिस व्यक्ति को सहायता की जरूरत होती है, वह मदद नहीं मांगता है, बल्कि वह उम्मीद करता है कि कोई व्यक्ति खुद आकर उसकी सहायता करे। कुछ अंतर्मुखी और संकोची लोगों को छोड़ दिया जाए तो आमतौर पर देखा गया है कि इस तरह की सोच की वजह खुद को श्रेष्ठ समझना या घमंड होती है। उसे लगता है कि सहायता मांगने से उसकी तौहीन हो जाएगी। उसके बड़प्पन पर दाग लग जाएगी। ऐसे में वह मदद कैसे मांग सकता है? वह समझता है कि यह सामने वाले का कर्तव्य है कि वह खुद आकर यह प्रस्ताव पेश करे कि आपको जरूरत है और मैं सहायता करता हूं। जब ऐसा नहीं हो पाता है, तो अपने को श्रेष्ठ समझने वाले इंसान को नुकसान उठाना पड़ता है।

उसे भले ही नुकसान उठाना पड़ जाए, परेशानी झेलनी पड़ जाए, लेकिन वह फिर भी सहायता मांगने नहीं जाता। मांगने को वह अपना स्वभाव नहीं मानता। इसमें उसको अपनी प्रतिष्ठा दांव लगी दिखती है। क्या इस तरह अभिमान से ग्रस्त लोग ऐसा करके अपना भला करते हैं? कुछ लोग कहते हैं कि घमंड और अकड़ सिर्फ ‘मृत शरीर’ में हो सकती है। जिंदा इंसान में कभी घमंड नहीं हो सकता। अगर उसमें घमंड है तो समझना चाहिए कि वह इंसान नहीं है। हालांकि यह तथ्य है कि मृत शरीर में जान नहीं होती, इसलिए जीवित व्यक्ति के भीतर घमंड की तुलना मृत शरीर की प्रकृति से नहीं की जा सकती।

ऐसा लगता है कि श्रेष्ठता के भाव के कारण लोगों में दंभ का अंकुर अब धीरे-धीरे विशाल पेड़ बन रहा है। यह समाज की एक जटिल समस्या बनती गई है और ज्यादातर लोग इसके असर में आ रहे हैं। इसका कई स्तर पर नुकसान होता है, मगर लोग इस भाव से अलग नहीं होना चाहते और इससे चिपके रहना पसंद करते हैं। ऐसा लगता है जैसे वर्तमान समय में समाज में कई लोग अहंकार के रथ पर सवार हैं। कोई इस रथ से उतरना ही नहीं चाहता। लोगों को लगता है कि वह सामने वाले से ज्यादा अमीर और प्रतिभाशाली है।

साथ ही, उसकी उपलब्धि सामने वाले से कहीं अधिक है। यह संभव हो सकता है कि मगर अभिमान के कारण स्वाभाविक रूप से समाज में ईर्ष्या का प्रादुर्भाव शुरू होता है और लोग एक-दूसरे की तरक्की देख कर जलने लगते हैं, दूसरे को नीचे गिराने के लिए किसी भी हद तक जाने को तैयार दिखते हैं। शायद यही वजह है कि समाज में आए दिन कई तरह की समस्याएं पनप रही हैं और यह एक-दूसरे से जुड़ी हुई लगती हैं।

हालांकि इस तरह के दंभ से किसी को कुछ हासिल नहीं होता। ऐसे में विचार करने वाली बात यह है कि फिर भी यह इतना पल्लवित-पुष्पित क्यों हो रहा है? आखिर समाज में यह अभिमान इतना पांव क्यों पसार रहा है? वसुधैव कुटुंबकम् वाले भारत वर्ष में लोगों के मन में इतनी संकीर्णता कहां से आ रही है? तरक्की अपने साथ कई तरह की समस्याएं भी साथ लाती हैं। तो क्या यह उसका परिणाम है? यह समझना मुश्किल है कि सामाजिक समरसता कहां समाप्त होती जा रही है?

यह एक मनोविज्ञान है कि लोगों में अक्सर घमंड श्रेष्ठता के भाव से शुरू होता है। यही श्रेष्ठता की ग्रंथि लोगों को एक-दूसरे से दूर करने लगती है। फिर धीरे-धीरे लोगों के मन में ईर्ष्या पनपने लगती है, लोग दूसरे लोगों को दुख-तकलीफ, समस्या में देख कर खुश होने लगते हैं। पता नहीं, समाज में ऐसा कौन-सा जहर अपनी जगह बना रहा रहा है, जिसके कारण लोगों को दूसरे को दुख-तकलीफ और समस्या में देख कर आनंद की अनुभूति होती है। यह कुंठा नहीं तो और क्या है?

अक्सर लोग सफाई पेश करने के तौर पर अभिमान को स्वाभिमान की भावना से जोड़ देते हैं जो कहीं से भी सही प्रतीत नहीं होती। यह एक तरह का घालमेल है, जिसमें स्वाभिमान के नाम पर दंभ से लैस अभिमान को छिपाने की एक विफल कोशिश की जाती है। गर्व और घमंड शब्द आमतौर पर एक जैसा ही दिखाई जरूर देता है. हालांकि यो शब्द करीब एक जैसे होकर भी भाव में काफी अंतर रखते हैं। गर्व को जहां हम लोग सकारात्मक तरीके से लेते हैं, वही घमंड को नकारात्मक तरीके से। ऐसे में हमें घमंड को किसी भी परिस्थिति में अपने भीतर जगह नहीं देना चाहिए।

यह याद रखने की जरूरत है कि घमंड से इंसान का कभी भी भला नहीं हुआ है। अगर कोई व्यक्ति सक्षम होने की वजह से कभी अभिमान के भाव से भर जाता है तो एक अच्छे नागरिक होने के कारण सहज व्यक्ति को यह प्रयास करना चाहिए कि उसे इस संजाल से बचाए। दरअसल, घमंड एक तरीके का रोग है। इससे जितना दूर रहा जाए मनुष्य के लिए उतना ही अच्छा। इससे मनुष्य और मानवीय संवेदनाएं जीवित रहेंगी।