बीते समय की याद आना और भावुक हो जाना बेहद प्राकृतिक संदर्भ है। यदा-कदा हमारे भीतर अतीत की सुथरी छाप को फिर से जीने की तलब उठती रहती है। वर्तमान से क्षणिक दुराव के लिए हमारा मन यादों के किले में वह खुशी का कोना चुन लेता है, जहां घंटों बैठ वह उकताता नहीं। जब हम उन स्मृतियों की नाजुक बांहों में होते हैं तो कहीं न कहीं अपने वर्तमान और भविष्य में उनकी आवृत्ति की उम्मीद पाल लेते हैं। इसलिए यह जांचना अनिवार्य है कि कहीं हमारे सुखद अनुभव किसी भी तरह से दूषित तो नहीं… कहीं हमारा मन चीजों को टुकड़ों में याद करने के लिए बाध्य तो नहीं!
अतीतजीवी होते हुए तटस्थ हो पाना जटिल है
गहराई से देखने पर मालूम होता है कि हम अपने जीवन के किसी विशेष कालखंड की एक तस्वीर गढ़ लेते हैं और उसी से उस दौर को याद करने की चेष्टा करते हैं। तस्वीर की सीमा उसके फ्रेम का आकार तय करता है। उसकी परिधि में सब कुछ नहीं अंट पाता और जो अंट पाता है, हम उसे तटस्थ होकर देख भी नहीं पाते। ‘नास्टेल्जिक’ या अतीतजीवी होते हुए तटस्थ हो पाना जटिल है। जब सामाजिक धारणाएं और परंपराएं समेकित रूप से कई लोगों के लिए अतीतजीविता का कारण बनती हैं। तब उनके पक्षपाती होने के बावजूद उन्हें ढहाना या उन पर प्रश्न तक करना मुश्किल हो जाता है।
महिलाओं का उत्पीड़न सदियों से होता आया है
महिलाओं का उत्पीड़न सदियों से इस आधार पर भी होता आया कि पूर्वजों ने ऐसा ही जीवन व्यतीत किया और कहीं न कहीं उनका बचपन जीवन का वही स्वरूप देखते हुए बीता। एक पति द्वारा अपनी पत्नी में मां की छवि तलाशना और उस पर वैसा ही पहनने-ओढ़ने का दबाव बनाना कितना आमफहम है। लोग यह कहते पाए गए हैं कि मेरी मां हमेशा घर के बड़े पुरुषों के आगे माथे पर आंचल रखती थी और अपने जेठ से दूर रहती थी। वे अपनी जीवनसाथी के समक्ष अतीतजीविता में लपेट कर उत्पीड़न पेश करते हैं।
सुविधा के खात्मे से तिलमिलाती पितृसत्ता तानें गढ़ती है कि जींस पहनने वाली मांएं अपने बच्चों को आंचल का सुख कहां से दे पाएंगी’! यादों की तासीर इतनी पुख्ता होती है कि पीड़ित का दुख उसके समक्ष गौण हो जाता है। तभी व्यवस्था औरतों को मोटरसाइकिल पर भी बगैर साड़ी पहने सहजता से बैठने की अनुमति नहीं देती। कई स्थितियों में अतीतजीविता की दहलीज को लांघ पाना क्रांतिकारी कदम से कम नहीं होता। रूढ़ियों को तोड़ने में लोगों के मन में अनजान भय होता है कि वे अपनी यादों के साथ अन्याय कर रहे हैं, लेकिन किसी मनुष्य के साथ होता अन्याय उन्हें नागवार नहीं गुजरता।
अब मध्यवर्गीय घरों में लोग शौक से अपने भनसाघर यानी रसोईघर में तरह-तरह के टाइल खरीद कर लगाते हैं। चौंकाने वाली बात यह सामने आई कि दुकानों में टाइलों के तमाम विकल्पों में एक टाइल ऐसी भी है, जिसकी तस्वीर असहज करती है। उस टाइल में एक महिला चक्की चला रही है, एक गेहूं फटक रही है, एक सिलबट्टे पर कुछ पीस रही है और एक चूल्हे में फुकनी से हवा कर रही है। इस टाइल की खूब बिक्री बिसराए अतीत के नाम पर होती है। लोग यह नहीं समझ पाते कि उनकी याद का यह स्वरूप चूल्हा, सूप, चक्की, सिलबट्टे से नहीं, बल्कि उन्हें चलाती औरतों की मौजूदगी से पूरा होता है। उस घर में बड़े हो रहे बच्चे जब भी रसोई में जाते हैं, तब उस तस्वीर को देखते हैं। गैरइरादतन उन्हें यह सीख मिलती है कि रसोई में होना औरतों की परिभाषित भूमिका है। तब अतीतजीविता सिर्फ हम तक सीमित नहीं रहता, बल्कि बुरे तरीके से अगली पीढ़ी को हस्तांतरित हो जाता है।
सोशल मीडिया पर कुछेक दिनों के अंतराल पर एक तस्वीर घूमती रहती है। इसमें दशकों पहले का एक भरा-पूरा परिवार एक साथ हाजिर है। समय और पेट की मांग के हिसाब से परिवार से दूर हुए लोगों को वह तस्वीर भावनात्मक रूप से छू जाती है। उस तस्वीर में बच्चे थाली से कुछ खाते हुए लेटकर टीवी देख रहे हैं। घर का पुरुष आरामकुर्सी में टांगों को एक के ऊपर चढ़ा अखबार पढ़ रहा है। वहीं घर की महिला इस दौरान भी जमीन पर बैठ फूलों की माला गूंथ रही है। परिवार के साथ बिताए जाने वाले गुणवत्तापूर्ण समय की उस तस्वीर में भी औरत घर का कोई काम ही निपटा रही है और पुरुष आदतन पढ़ाई कर रहा है।
यह तस्वीर लोगों को इसलिए अपील करती है, क्योंकि उनके बचपन में सच में मां-पिता की यही भूमिका रही। सबके रविवार को रविवार बनाने की जवाबदेही महिलाओं की रही और वे हमेशा रसोई के आसपास विचरती पाई गईं। लोगों के लिए भले ही अपने मानसिक ढांचे को तोड़ पाना भगीरथ कार्य हो, लेकिन पनप रही पीढ़ियों के लिए ऐसी तस्वीर साझा कर गुणवत्तापूर्ण समय के प्रतिगामी आयाम नहीं फैलाए जाने चाहिए। ऐसी तस्वीरों को सराहा जाना चाहिए जहां पुरुष खाना पकाते हुए दिखें और महिलाएं कुर्सी पर बैठ कर समाचार पढ़ते-देखते। ‘रोहित पोंछा लगाता है’ और ‘सीमा होमवर्क करती है’ जैसे वाक्य पाठ्यक्रम में शामिल किए जाने चाहिए।
ऐसे तमाम उदाहरण हैं जहां छोटे लड़कों और लड़कियों की शादी इसलिए रचा दी गई, कि घर के वृद्ध अपने पुरखों की तरह उनकी शादी देख कर मरना चाहते थे। समानता और मानवाधिकारों का हनन किसी भी कारण से न्यायोचित नहीं ठहराया जा सकता। अतीतजीविता बहुतायत में उन्हें पसंद होती है, जिनका व्यवस्था में कम योगदान है। वरना महिलाओं के जितने दुख रहे हैं, ऐसी तस्वीरों और यादों को देख कर खीझ और टीस उठती है। किसी वर्ग के उत्पीड़न पर बनी मीनार की ऊंचाई की शेखी कब तक बघारी जाएगी? यह जानते हुए कि उम्रदराज पीढ़ियों की अपनी सीमाएं हैं, उन्हें अपनी मान्यताओं को न थोपने की धीमी कोशिश करनी चाहिए। इन मामलों में व्यवस्था तर्कों से संचालित हो, कोरी भावनाओं से नहीं, तो कितनी सुंदर बात होगी।