भारतीय सामाजिक परिवेश का वास्तविक स्वरूप एवं संरचना गांवों में रचता-बसता रहा है। संयुक्त परिवार को ग्रामीण संस्कृति के पारंपरिक स्वरूप में देखा-समझा जाता था। उसमें परिवार रिश्तों की गर्माहट के साथ मजबूती से एक सूत्र में बंधा रहता था। चूंकि देश की आत्मा आज भी ग्रामीण क्षेत्रों में ही निवास करती है, इसलिए मानव जीवन का पहिया बहुत हद तक आपसी दुख-सुख के चक्र से आत्मिक समन्वय लिए गतिमान है। समाजशास्त्रियों का भी कथन है कि परंपरागत रूप से संयुक्त परिवारों की आपसी समझ के कारण वैमनस्य की गंभीर समस्या का अनुभव नहीं किया जाता था। घर में बच्चे अपने माता-पिता, भाई-बहन, चाचा-चाची और दादा-दादी से बुनियादी शिक्षा ग्रहण कर लिया करते थे। पूरे परिवार को समेट कर, सहेज कर चलाने की जिम्मेदारी घर के मुखिया की हुआ करती थी। यों यह दायित्व आज भी वही निभा रहे हैं।

संयुक्त परिवार का प्रारंभिक स्वरूप

संयुक्त परिवार के दौर में घर के सदस्यों के काम अलग-अलग बंटे होते थे। घर के सभी सदस्यों का एक साथ भोजन पकना और खाना बिल्कुल सामान्य ढंग से संचालित हुआ करता था। सभी एक साथ भोजन करते थे। इससे संतुष्टि मिलती थी और आपस में स्नेह बढ़ता था। इसी दौरान दिन भर के अपने अनुभव और दुख-सुख भी साझा हो जाया करते थे। सार यह कि इससे परिवार में एका के साथ उसकी शक्ति भी बनी रहती थी। तब परिवार चुनौतियों का सामना मिल कर कर लेता था।

परिवारों में बदलाव

औद्योगिक क्रांति के पहले भारतीय परिवारों का स्वरूप संयुक्त था, लेकिन उद्योगीकरण, शहरीकरण, शिक्षा और पश्चिमी जीवन दर्शन के प्रभाव से परिवारों की संरचना में तेजी से बदलाव होने लगे। इन परिवर्तनों ने न सिर्फ परिवार के ढांचे को असंतुलित कर दिया, बल्कि सदस्यों के निजी पारस्परिक संबंधों, मेल-मिलाप की प्रक्रिया, परिवार के अनुशासन और व्यवहार प्रणालियों को भंग करने के लिए भी सर्वाधिक रूप में उत्तरदायी हुए। परिवार एक छोटी इकाई के रूप में नजर आने लगे। चूल्हे अलग होने लगे, खेत बंटने लगे और आंगन के आकार सिमटने लगे। एकल परिवार की धारणा में परिवारों के बीच निजी स्वतंत्रता की चाह ने अपनी जगह बना ली और आभासी आनंद की लहरों में डूबने की नौबत आ गई।

गांवों से पलायन का प्रभाव

काल के प्रवाह में आज एक चूल्हे ने छह चूल्हे को आकार भले दे दिया, लेकिन कभी एक साथ बैठ कर सीमित व्यंजन के भोजन से जो संतुष्टि मिलती थी, आज व्यंजनों की अधिकता ने भी उसके पहले के स्वाद को कम जरूर कर दिया है। घर के सदस्यों के लिए पके भोजन के अंश से ही कभी-कभी पड़ोसी या खुद के घर में अचानक आए अतिथि के लिए भोजन की व्यवस्था हो जाती थी। ग्रामीण क्षेत्र से नगर की ओर पलायन की विवशता ने भी हमारे घर-आंगन के आकार और रौनक को कम कर रखा है। अनेक घरों में तो ताले लग गए, जो साल-दो साल में ही खुलते हैं। बंद ताले की चाबियां अब गुम हो रही हैं, क्योंकि गृह स्वामी यह तय नहीं कर पाते कि बंद घरों में उन्हें कब लौटना है।

आधुनिकता और पारिवारिक विघटन

जिस आंगन में हमेशा चहल-पहल हुआ करती थी, खासकर किसी समारोह में मौसी, बुआ की उपस्थिति हर नेग और विधान को जीवंत बनाए रखती थीं, वहीं गांवों से विस्थापित परिवारों के विवाह समारोह अब नगर के होटलों, विवाह भवनों, रिजार्ट और सामुदायिक भवनों में आयोजित होने से उनके बंद घर-आंगन में अब गौरैया भी दाना चुगने नहीं आती।

भाइयों के बीच बंटवारे ने घर के कुएं को भी विभक्त कर दिया, साथ ही खेत भी टुकड़ों में बंट गए। इससे खेतों के क्षेत्रफल में भी कमी आ गई। इन हालात ने जब समाज की सबसे लघु इकाई घर-आंगन की परंपरागत शक्ति का क्षरण किया है, तो स्वाभाविक रूप में इसके प्रभाव ने पूरे गांव के विरासतीय संपदा में भी सेंधमारी कर दी है। यह स्थिति भारतीय परिवारों के लिए आज एक विषम समस्या है, जिसकी जड़ में परिवार के लोगों के व्यवहार में असंतुलन के कारण कलह, संघर्ष,अविश्वास और अलगाव का मिश्रण है। आज परिवार में व्यक्ति का जीवन जब व्यस्तता, भौतिक सुख और आत्मकेंद्रित होने की ओर उन्मुख है, तो पीढ़ी की परंपराएं और मर्यादाएं उसके गले नहीं उतर सकतीं।

संवेदनाओं की पूंजी बचाने की आवश्यकता

दैनिक जीवन के आचरण के प्रतिबिंब साक्षी हैं कि अब परिवार एक संस्था की मान्यता से अपने को दूर कर रहा है, क्योंकि व्यक्ति अपनी सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक, शैक्षिक, यहां तक कि जैविक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए ‘आउटसोर्स’ पर निर्भर हो गए हैं। परिवार के सिमटते आंगन का एक मुख्य कारण आर्थिक तनाव भी है, क्योंकि महंगाई की मार के बावजूद आवश्यकता की सूची दिन-प्रतिदिन लंबी हो रही है। यह पश्चिम के व्यक्तिवादी तात्कालिक सुखद चिंतन का ही परिणाम है कि आज बीमारी, बेरोजगारी, कुपोषण, बुढ़ापा या अन्य किसी संकट की स्थिति में व्यक्ति अपने परिवार में अकेला और असहाय महसूस करने लगा है। भविष्य में यह अकेलापन और बढ़ने वाला है।

परिवार पर आए इस अभूतपूर्व संकट पर पूरा नियंत्रण करना तो संभव नहीं दिखता, लेकिन बढ़ते विघटन के घनत्व को मजबूत इच्छाशक्ति से कम जरूर किया जा सकता है। अधिकांश चूल्हे भले बंट गए और आंगन की आत्मीयता घट गई, लेकिन संवेदनाओं की जमा पूंजी में जो कमी हो रही है, उसके एक हिस्से को भी बचा कर रखना जरूरी है। संतोष का विषय है कि देश के अनेक क्षेत्रों में अभी भी एक चूल्हे पर एक से अधिक परिवार के सदस्यों का भोजन पक रहा है। शायद ऐसे प्रेरक अंश ही विभाजित चूल्हे के र्इंधन में भावनात्मक वृद्धि करते हुए सिमटते आंगन में स्नेहिल सुधा बिखेर सकेंगे। एक चूल्हे से ही परिवार में प्रेम की आंच बढ़ेगी।