सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’

इस सांसारिक जीवन में हम सभी अच्छे और बुरे दिनों, संघर्षों, सफलताओं और असफलताओं का सामना करते हैं। हम अक्सर खुद को बदलने की कोशिश करते हैं, लेकिन तब भी हम अपनत्व के साथ रहते हैं। अपनत्व का मतलब है अपने आप से भी प्यार करना, खुद को स्वीकार करना और अपने मन की बात सुनना। अपनापन जीवन को चरितार्थ करता है। जब हम खुद को स्वीकार करते हैं, तब अन्य लोगों की भी समझ बनती है और अच्छे ढंग से व्यवहार करते हैं। मगर कभी-कभी हम खुद को भूल जाते हैं और दूसरों की धारणाओं के आधार पर अपनी जिंदगी जीते हैं। इसलिए अपनापन एक आत्म-संज्ञान का माध्यम है, जिससे हम खुद को समझ सकते हैं और सही दिशा में चल सकते हैं।

अपनत्व एक ऐसी भावना है, जो हमें संतुष्ट बनाती है। जब हम खुद के अस्तित्व से प्यार करते हैं, तब हमें जीवन में खुशहाली और सुख-समृद्धि मिलती है। इसे स्वीकार करना और खुद की संजीवनी शक्ति का प्रदर्शन करना आवश्यक है। खुद को स्वीकार करना, मतलब जीवन को दिशा प्रदान करने के समान होता है। हमें अपने आप पर गर्व होना चाहिए और खुशियों को साझा करना चाहिए। अपनत्व का अपना विशेष महत्त्व है, जिसे न मानने पर जीवन निराश हो जाता है और कमियों को रेखांकित करने लगता है। यह रेखांकन उस समय और भी गहरा जाता है, जब हमारी गलतियां हमें स्वयं से दूर करने लगती हैं। जिस तरह से हम दूसरों से प्यार करते हैं, उसी तरह हमें खुद से भी प्यार करना चाहिए।

हम सभी अलग-अलग हैं और हमें अपनी भिन्नता को समझना चाहिए। उस भिन्नता को विशिष्टता का प्रतीक मानकर उसका आलिंगन करना चाहिए। हमें अपने आप से प्यार करना चाहिए और खुद के साथ हमेशा ईमानदार रहना चाहिए। अपनत्व वह तत्त्व है जो हमें खुद के साथ हमेशा संबंध बनाए रखने के लिए प्रेरित करता है। जब हम खुद से प्यार करते हैं, तब हमारे जीवन में सुख और समृद्धि की बरसात होती है। हमें अपनी विशिष्टता को समझकर उसकी सुगंध से स्वयं को सुवासित करना चाहिए।

यह कितने दुख की बात है कि जिनको हम अपना कहते हैं, जो हमारे सबसे निकटतम होते हैं, हम उनके सामने कभी-कभी स्वयं की स्थिति उजागर भी नहीं कर सकते। उनकी ओर से इतना जोरदार प्रतिकार होता है कि हम सोचते ही रह जाते हैं कि हमने अपना सच कहकर अच्छा किया या बुरा! हमारी स्वीकारोक्ति सही थी या गलत! यह हमारे लिए बड़ी बुरी और दुखद स्थिति होती है। इसकी कल्पना करने मात्र से सिहरन-सी पैदा हो जाती है। सच तो यह है कि अपनत्व के सारे तार तोड़ देने के लिए अपनों का एक अस्वीकार पर्याप्त है। ऐसे में हमें इतना दृढ़ बनना चाहिए कि कम से कम खुद से अपने दुख व्यक्त करने का साहस जुटा सकें। अपना सच बेझिझक कह सकें।

बड़ी अजीब बात है कि हमारे भविष्य के निर्माण के लिए भी हम इतिहास की ओर ही देखते हैं। बीते कल के सफल लोगों के उदाहरण से सीखना चाहते हैं और उनका अनुसरण करना चाहते हैं। बात हम भविष्य की करते हैं, लेकिन दुहराना इतिहास को चाहते हैं। हम चाहते हैं कि आने वाली पीढ़ियां हमें, हमारे काम, योग्यता, गुण, सौंदर्य और तमाम उन बातों को, जिनको अच्छा माना जाता है, याद करें। लोग तो उन्हें ही याद रखते हैं जो न केवल अपना, बल्कि दूसरों का भी भला करें।

वास्तव में, हमारी चाह जो दिखाई पड़ती है आगे की तरफ जाती हुई, लेकिन चाल उसकी उल्टी होती है। बहरहाल, हम कुछ भी चाहें, लेकिन क्या इतिहास पर सच में हमारा कोई जोर है? तब तक नहीं है, जब तक कि हम बहुत प्रभावशाली व्यक्ति न बन जाएं। अन्यथा किसी व्यक्ति का इतिहास ऐसे लोग लिख देते हैं जो उसे नापसंद करते हैं। उसके व्यक्तित्व से घबराए हुए और कुंठित होते हैं। वे अपनी सारी कुंठा सारा नैराश्य उस व्यक्ति की छवि गढ़ने में या कहिए बिगाड़ने में झोंक देते हैं।

यह हमारे चित्त की कमजोरी है कि हम किसी के भी बारे में बुरी, गलत और अभद्र बात को तुरंत स्वीकार कर लेते हैं। उस पर बिना किसी अन्वेषण के विश्वास भी कर लेते हैं। कालांतर में यही विश्वास और स्वीकार उस व्यक्ति का इतिहास बन जाता है। कई बार इससे विपरीत भी होता है। चालाक लोग अपनी झूठी छवियां गढ़कर, आसपास के लोगों को किसी न किसी प्रकार उपकृत कर अपना जबरिया अच्छा इतिहास लिखवा लिया करते हैं।

हम चाहे लाख दोस्त बना लें, नए अनुभव कर लें, मगर जो चीज सबसे ज्यादा सिखाती है, वह है- अपनापन। हालांकि हर जगह अपने लोग नहीं हो सकते, लेकिन अपनापन दूसरों के निकट लाकर सत्संबंध स्थापित करता है। चाहे हम कोई भी हों, अपनत्व का अनुभव हमारे लिए महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है। अपनत्व लोगों को मतभेदों से अलग अवश्य रख सकता है, मगर मनभेदों से कतई नहीं। अपनत्व की पहचान व्यक्ति की पहचान होती है।