अभी सुबह की चाय चल ही रही थी। ये चौथी बार था, जब मां ने आग्रह किया, ‘घर कब चलना है?’ मैंने अपनी झुंझलाहट को चाय के साथ ही उदरस्थ कर लिया और संयत स्वर में उन्हें समझाया, ‘बताया तो, अभी कोरोना के कारण बस और ट्रेनें बंद हैं। आने-जाने के साधन नहीं मिल रहे हैं।’ ‘अरे हां! मैं भूल जाती हूं।’ मां ने गहरी सांस ली। उन्हें भूलने की बीमारी लग चुकी थी। गठिया तो था ही, जो उम्र के साथ अधिक पीड़ादायक होता गया।

जोड़ों के बीच की चिकनाहट खत्म हो गई। कार्टिलेज घिस गई और अस्थियां बढ़ने के कारण अंगुली घुटने आदि के गिर्द बेर की गुठली सरीखी गांठें उभर आईं। चार-पांच साल से मां चलने में असमर्थ हैं। खड़ी भी नहीं हो सकतीं। इसके विकल्प स्वरूप वे जरूरी काम के लिए खिसक कर जाया करतीं। लकड़ी या वाकर उन्हें पसंद नहीं। सहारे जो हैं! मां ने कभी सहारा लेना पसंद नहीं किया।

आजकल एक नई बीमारी लग चुकी है, वे एक ही बात को बार-बार दोहराती हैं, एक ही प्रश्न को अनेक बार पूछती हैं। मैं कोई छोटा सा उत्तर बना लेती हूं और उसे ही बिना झुंझलाए हर बार दोहराती रहती हूं, लेकिन ऐसा केवल तब होता है जब मैं व्यस्त होती हूं। फुर्सत के समय में, मैं अपनी सारी योग्यता दांव पर लगा देती उन्हें समझाने में।

‘बस चलेगी तो बहुत लोग इकट्ठे होंगे। छू जाएंगे और कोई एक भी बीमार हुआ तो बीमारी सब में फैलेगी।’ वह एकटक मुझे देख रही होतीं, जैसे उनकी आंखें अपने इर्द-गिर्द की त्वचा को परे धकेलते हुए मेरे चेहरे तक पहुंचने की कोशिश कर रही हैं। मैं और अधिक बताने को लालायित हो उठती हूं। यह बीमारी ऐसी है, जिसका अभी तक इलाज नहीं खोजा जा सका, इसीलिए इतना भय फैला है। सतर्कता के उद्देश्य से आवागमन बंद किया गया है।’

मां शांत, स्थिर भाव से मुझे देख रही हैं। सुन-समझ रहीं हैं, इस पर अनिश्चितता बनी हुई है। कभी-कभी वह उत्तर में से प्रश्न निकाल लेतीं, ‘कब तक रहेगा कोरोना?’ यह प्रश्न वे उसी तरह पूछतीं- एकादशी कब है या पंचक कब से लग रहा है आदि। इस बार मैं खिसिया जाती हूं, ‘डेट नहीं दी उसने।’मां मेरी वक्रोक्ति को समझ नहीं पाती हैं। वह मुझे कक्षा के मंदबुद्धि बच्चे जैसी लगती हैं।

मेरा हृदय ग्लानि से भर उठता है। मैं मन का कूड़ा बुहारने की कोशिश करती हूं। ‘कोरोना, शायद कभी खत्म नहीं होगा मां, राक्षस प्राय: अमरता का वरदान पा जाते हैं, लेकिन चतुर ब्रह्म कोई न कोई उपाय निकाल ही लेते हैं। जब इस बीमारी की दवाई या टीका बन जाएगा तब इसका डर जाता रहेगा। तब कोरोना भी आम वायरल या सर्दी-जुकाम की तरह हो जाएगा। तब हम कह सकते हैं कि कोरोना खत्म हो गया।’

इस बार मां की प्रतिक्रिया अप्रत्याशित थी, ‘हैजा जैसा। एक बार फैला था। तब तुम बहुत छोटी थी । सब को हो जाता था।’ ‘हां हां, वैसा ही।’ मुझे खुशी हुई वह समझीं, वो भी इस हद तक कि अब इससे जुड़ा प्रश्न संभवत: मोक्ष पा गया हो। जिस छोटी बेटी का मां ने जिक्र किया वह मेरे भीतर मचल उठी। मां स्वेटर बुना करती थीं। खास कर तूसी लाल पर सफेद धारियों वाले मुझे बहुत सुहाते।

मैं एक सलाई बुनने के लिए उनसे मिन्नतें करती, मगर मुझे इसकी मनाही थी। मैं सीख रही थी। मेरे लिए झाड़ू की सींकों पर पुरानी ऊन से उल्टा-सीधा बुनने का निर्देश था। यह अभ्यास मैंने काफी दिनों तक किया था और अब सलाई से बुनने का स्वप्न देखने लगी थी। मगर, मां का भरोसा जीतने के लिए इतना काफी नहीं था। छोटे-मोटे कई काम करने के बाद वह मुझे अपना ऊन-सलाई पकड़ा देतीं और हिदायत भी, ‘फंदे मत गिराना। ध्यान से बुनना।’

मगर मैं खुशी के अतिरेक में एक-दो फंदे गिरा ही देती। उनके हाथ में स्वेटर जाता तो वह सबसे पहले फंदे गिनतीं। फिर गुस्सातीं। पछतातीं, उन्होंने मुझे दिया ही क्यों! गिरा हुआ फंदा मिलते ही उनके मुख पर जो भाव दिखता वही आज मेरे भीतर उठ रहा था, ‘हां हां हैजा जैसी ही। वह भी महामारी थी, यह भी महामारी है।’

मां नहा कर चाय पीती हैं। पूजा-पाठ वे भूल चुकी हैं। अकेली बैठी कुछ न कुछ बड़बड़ाती रहती हैं। स्वर इतना धीमा होता कि बड़ी कठिनाई से कुछ समझ में आता। लंबे समय से मैं देख रही थी कि मां के एक पैर का पंजा अनवरत हिलता रहता है। जब मैं उनके इतने निकट होती कि पंजा मुझे छू जाए, तो मुझे महसूस होता।

पैर हिला नहीं रहीं, घुटने तक उनका शरीर स्थिर है, लेकिन निचले हिस्से में लगातार कंपन हो रहा है, जिसके परिणाम स्वरूप पंजा हिलता रहता है।समस्या बस इतनी नहीं थी। उनके घुटने खराब हो चुके थे। इस हद तक कि अब उन्होंने शरीर का भार ढोने से इनकार कर दिया था। मां चल नहीं सकतीं, खड़ीं भी नहीं हो सकती थीं। मैं उन्हें एक बाजू पकड़ कर उठाती, दूसरा वह पलंग पर टिका लेतीं। थोड़ा और उठाती तो सिर भी पलंग पर टिका लेतीं।

अब शरीर का भार बाजू और गर्दन पर डालते हुए वे बिस्तर पर अधलेटी हो जातीं। तब मैं उनके दोनों पैर उठा कर बिस्तर पर पहुंचा देती। फिर वह गोल तकिये सा खुद को लुढ़का लेतीं और देर तक खिलखिला कर हंसतीं रहतीं अपनी इस संघर्ष विजय पर। आवश्यक कार्यों के लिए वे फर्श पर खिसका करतीं। मैं उनके नहाने से पहले घर में पोंछा कर लेती । फिर पंखे चला देती। अभी वे पोर्च में खुलने वाले दरवाजे पर बैठी हैं।

मैंने उनके सिर में तेल मला और बाल सुलझाने लगी। स्वाभाविक है, उनका मुख मेरी ओर नहीं था। मुझे उनका प्रश्न उस पार से इस पार आता सुनाई दिया।‘घर कब चलना है।’ ‘जब तुम कहो।’ यह एक चलताऊ उत्तर था, जिसके सहारे मैं दिन काट लेती थी। यह स्पष्ट हो चुका था कि उत्तर का अधिक महत्त्व नहीं है।‘सुबह चलो’‘मगर कैसे!’

फिर बस और ट्रेन की बात। कोरोना की बात। मैंने ध्यान हटाने के लिए टीवी चालू कर दिया। कुछ देर तक उनकी ओर से कोई प्रश्न नहीं आया। ‘धारावाहिक चल रहा है, श्री कृष्णा। मैं खाना ले कर आ जाती हूं। दो थालियां, मगर उससे पहले एक कटोरे में हाथ धोने के लिए पानी लाना होता है।भोजन करते हुए वह फिर वही सवाल दाग देतीं,‘घर कब चलना है!’

आज रविवार है। पूरे एमपी में पूर्णबंदी का दिन। मेरे लिए छुट्टी का दिन। मुझे शरारत सूझती है, ‘अभी चलो।’मेरे इस अप्रत्याशित उत्तर से वह हैरान रह गईं। उनकी आंखें फिर वैसे ही अपने चारों ओर से ढुलक कर आ रही त्वचा को पूरी ताकत से परे धकेलते हुए मुझ तक पहुंच रही थीं। मैं सोचती हूं- आखिर इसकी जरूरत क्या थी! मेरी ओर देखे बगैर भी वह मेरी बात सुन सकती थीं, भोजन करते वक्त लोग प्राय: यही करते हैं। क्या मां आंखों सेसुनती हैं! ‘स्कूटी से चलोगी?’ मैंने उन्हें फिर छेड़ा।‘तुम मुझे गिरा दोगी।’‘तुम गिरोगी नहीं तो कैसे गिराऊंगी?’

मैं किसी न किसी उपाय से सदा ही उन्हें रोकती आई हूं। स्मृति दोष के कारण उन्हें इसका भान नहीं रह गया था कि इस बार जब मैं घर गई तो वह कितनी दयनीय स्थिति में थीं। घर कितना अस्त-व्यस्त था, गंदा था वह स्वयं भी। मेरा दिल उनकी इस हालत को देख कर रो उठा था। वह कई दिन की भूखी भी थीं। उसी दिन, खाना खाकर खूब सोर्इं। उठीं, तो बोलीं,‘घर कब चलना है?’ तब से यह प्रश्न, घर में उनकी उपस्थिति का पर्याय बना हुआ है और अब तो मेरे जीवन में भी।‘दो गज की दूरी बना कर बैठना पड़ेगा मां।’

‘ऐसा करेंगे हम स्कूटी पर एक मीटर लंबा पटिया बांध लेंगे, तुम पटिये के उस छोर पर बैठ जाना।’सुन कर मां फिर खिलखिला कर हंस पड़ीं। ऐसा वह तब हंसती थीं जब अपने छोटे चाचा से बचपन में हुए झगड़ों के किस्से सुनाया करती थीं। हम भी उनके ठहाकों में साथ देते। मैंने चैन की सांस ली। मां का ध्यान, घर की तरफ से हट गया था मगर कब तक!

राखी का त्योहार आया तो बच्चा पार्टी अपने पापा के साथ घर आई। नानी को खुश करने के इरादे से तय हुआ, बच्चे नानी को साथ लेकर उनके घर जाएंगे। एक-दो दिन साथ रुकेंगे। मैंने शर्त रखी, कितनी भी जिद करें, छोड़ कर मत आना। मां खिसककर उस अलमारी तक पहुंच गईं, जिसके सबसे नीचे के खंड में उनका बैग रखा है। बच्चों से अपने ब्रश जीभी मंगा कर रख लिए। अपने घर जाते हुए वह बहुत खुश दिख रही थीं।

इतनीं खुश वह तब होती थीं जब गर्मी की छुट्टियों में मुझे लेकर नाना के घर जाया करती थीं।अभी एक दिन ही बीता था कि उधर से फोन आया।मम्मी आप यहां आ जाओ।’ फोन पर बेटा था।‘क्यों? कल ही तो पहुंचे वहां और आज!’‘लो, पापा से बात करो।’मैं सतर्क हो जाती हूं, ‘हैलो!’ ‘फोन करके स्कूल में बता दो और आ जाओ।’‘मां ठीक तो हैं?’

‘हां, ठीक हैं।’‘मेरी बात कराओ।’‘अभी सो रही हैं।’‘भोजन किया था?’‘हां, किया था।’सभी उत्तर सकारात्मक थे, मगर इतने सपाट थे कि मुझे उनकी सत्यता पर संदेह होने लगा। मैं निकल पड़ती हूं। पहुंचती हूं। घर के बाहर कुछ लोग इकट्ठा हैं, परंतु अधिक नहीं।‘इस मोहल्ले में फालतू लोग बहुत हैं।’ मैं खुद को तसल्ली देती हूं। घर के भीतर पहुंचती हूं। बच्चे मुझसे लिपट कर रोने लगते हैं। मुझे क्षणिक बेहोशी आती है। लाली बता रही है।

हम लोगों ने नानी के साथ खाना खाया था। फिर वह यहीं तख्त पर सो गई थीं। मैंने किसी से कुछ नहीं पूछा।‘कल नानी अपने आप तख्त पर चढ़ गई थीं, बिना किसी का सहारा लिए।’ छोटू ने रोते हुए बताया।‘तख्त की ऊंचाई कम है, इसलिए।’ उसके पापा ने स्पष्ट किया। फिर भी संघर्ष तो किया होगा मां ने, मैं उनके इस संघर्ष की साक्षी रही हूं और इन लोगों ने उन्हें वापस नीचे सुला दिया।

मुझे मेरी हथेलियां बहुत छोटी लगने लगीं। वे मां के गुलगुले पेट को पकड़ने-जकड़ने को आतुर हो उठीं। मां की आंखें अब अपने ऊपर ढुलक कर गिर रही अपने इर्द-गिर्द की त्वचा का विरोध नहीं कर रही हैं, बल्कि उसी को ओढ़ कर सोई पड़ी हैं। मां के बालों से बादाम के तेल की खुशबू आ रही है।