
चिरमिराने लगती हैं कोल्हुओं में पिरती सरसों से, वह सिर्फ संजय की आंखों से देखता है
धूप हो गई तेज-गरम, मौसम में फिर नई कहानी, आई-आई हंसती आई, प्यारी-प्यारी गरमी रानी।
बिंब-प्रतिबिंब: अगर बगैर काम-काज के, संसद चल रही है, तो राज्य की, अन्य संस्थाएं भी
जंगली घास-फूस और पौधों ने, पहन लिए हैं, रंग-बिरंगे फूलों वाले कपड़े, मूली ने हरी, पोस्ते ने लाल
कि मनुष्य को कभी स्त्री की तरह, या पुरुष की तरह, या वर्ग की तरह, या जाति की तरह, कोंच-कोंच…
‘सच्ची कविता’ के सच्चे प्रभाव को रेखांकित करते हुए बालकृष्ण भट््ट ने एक ऐसी ‘चोट’ से अवगत कराया है, जो…