तालाबों को जिंदा किया

राजेंद्र सिंह

अनुपमजी ऐसे निर्भय और निश्छल इंसान थे, जिनका साहित्य में भी वैसा ही स्वरूप दिखता था, जैसे वे अपने व्यवहार में थे। उनका जीवन बहुत ही अनुशासित और एक तरह से प्रकृतिमय था। लेकिन आधुनिक विकास की बीमारी ने उन्हें हमसे तीस साल पहले उठा लिया, इसका हमें बहुत दुख है। हम जानते हैं कि अनुपम भाई द्वेष और लालच से बहुत दूर रहते थे। वे एक बार हमारे साथ जलचेतना यात्रा में थे, हम लोग तालाबों में जो मिट्टी जम जाती है, तालाबों की क्षमता घट जाती है तो उसे रोकने के लिए छोटे-छोटे तालाब बना रहे थे और वृक्षारोपण कर रहे थे। यह दौर 1986 का था। वे अपने बेटे और अपनी पत्नी के साथ वहां यात्रा में थे, राजस्थान अलवर के भोपालपुरा गांव में। वहां क्या हुआ, जब हमने डेढ़ सौ बीघे जमीन पर वृक्षारोपण कर दिया तो वहां के कलेक्टर को बड़ा खराब लगा। वह बोला कि पेड़ कैसे लगा सकते हैं, हमसे पूछे बगैर। मेरे ऊपर कलेक्टर ने 5555 रुपए का दंड कर दिया तो अनुपम भाई को पता लगा तो उन्होंने कहा ऐसे कोई दंड कैसे लगा सकता है पेड़ लगाने पर। वे अनिल अग्रवाल, प्रभाषजोशी, चंडीप्रसाद भट्ट को लेकर वहां पहुंचे। सबको लेकर वहां दो दिन रहकर सब देखा कि कैसे क्या हुआ। उसके बाद कलेक्टर को समझाने की कोशिश की, लेकिन वह नहीं माना। तो फिर राजस्थान सरकार ने उसका तबादला कर दिया। सरकार ने कहा कि वे लोग तो पानी का काम करते हैं, डीएम उन्हें कैसे रोक सकता है? फिर अनुपमजी ने कहा कि कलेक्टर से हमारा कोई रागद्वेष नहीं है। उसने गलत किया। हमारा उससे कोई बैर नहीं है। उन्होंने उसी भोपालपुरा गांव में एक कार्यक्रम किया और कलेक्टर को गणेशजी की मूर्ति देकर विदाई दी। ऐसा था उनका व्यक्तित्व। वे किसी से भी सहज होकर मिलते थे।

अभी कुछ दिन पहले जब मैं उनसे अस्पताल में मिला तो उनके चेहरे पर मृत्यु का जरा-सा भी भय नहीं था। अभी भी वे उसी हिम्मत और उत्साह से बात कर रहे थे। इन दोनों घटनाओं के आधार पर मैं कह सकता हूं कि अनुपम भाई निर्भय और अनुशासन में जीने वाले थे। वे पर्यावरण साहित्य में गुरु थे सबके। पर्यावरण शब्द को एक तरह से व्यवहार में लाने का काम उन्होंने ही किया। उन्होंने तालाबों को जिंदा किया। पहले तालाबों के बारे में कोई बात नहीं करता था। तालाबों के बारे में जब एक किताब आई ‘डाइंग विजडम’ तो फिर लोग इस बारे में बोलने लगे। लोगों की जुबान पर तालाब शब्द को चढ़ाने का काम अनुपम भाई ने किया। ‘आज भी खरे हैं तालाब’, जब उन्होंने लिखी तो उसके बाद लोग तालाबों को सम्मान से देखने लगे। वे पानी और पर्यावरण के साहित्य में, व्यवहार में बहुत खरे इंसान थे। उनके व्यवहार और लेखनी में अंतर नहीं दिखता था। वे जो लिखते थे, टिप्पणी करते थे, वैसे ही थे भी। अनुपम भाई प्रकृति के प्यार के अनुपम नमूने थे। दूसरा व्यक्ति फिलहाल, प्रकृति का वैसा सम्मान करनेवाला और व्यवहार करने वाला हमें दिखाई नहीं दे रहा। भारतीय ज्ञानततंत्र को, देशी कलाओं को उन्होंने आमफहम और व्यावहारिक बनाया। वे मेरे लिए एक ऐसी शख्सियत थे, जिनसे बिना सूचना के मिल सकते थे। जब चाहें आप उनसे मिल लें। कोई बनावट नहीं, छलकपट नहीं। कभी नहीं सोचते थे कि किससे मिलना, किससे नहीं मिलना। इसका कोई भेदभाव उनके जीवन में नहीं था। उनके दरवाजे सभी के लिए खुल रहते थे। बड़ी सरलता से सभी से बात कर लेते थे। अनुपम का जीवन अनुपम था।
पानी के पुरोधा

कृष्ण कुमार

कंप्यूटर पर लिखते समय खिड़की के पास खड़े वृक्ष पर बैठी गिलहरी या चिड़िया की आवाज सुनाई देती है। यह ऊंचा, स्वस्थ सयाना करंज वृक्ष लगभग छब्बीस वर्ष पूर्व एक पन्नी में मेरे पास आया था। तब मैं तीसरी मंजिल पर रहता था। एक शाम कुछ देर से लौटा तो देखा, दरवाजे के पास एक छोटी-सी पन्नी में आधा गिलास मिट्टी में एक नन्हा-सा पौधा रखा है। साथ में रखी पर्ची से मालूम हुआ कि इस पन्नी को अनुपम छोड़ गए थे। पन्नी में लगे पौधे को मैंने एक गमले में लगा लिया, पर कुछ महीनों बाद मुझे मकान छोड़ना पड़ा। गमला मेरे साथ आया और नए घर में उस पौधे को गमले से निकलकर खिड़की के पास जमीन मिली। देखते ही देखते वह छत से ऊंचा हो गया। अनुपम आए तो पेड़ का मजबूत तना देखकर खुश हुए। अब कुछ ही महीनों में मुझे यह घर भी छोड़ना पड़ेगा। इस बार यह पेड़ मेरे साथ नहीं जा सकेगा। वह यों हीं रहेगा, कई और सयाने पेड़ों का पड़ोसी, एक गांव की तरह बसा रहेगा। अनुपम मिश्र का चिह्न अब मेरे मन में रहेगा।

अपने परिचिति धुन में डूबे रहनेवाले अनुपम का सान्निध्य कभी-कभार ही मिलता था। पर जब वह दिन और क्षण आता तो ऐसा लगता था कि कोई खास समय नहीं बीता है। उत्साह से दीप्त, उनकी आंखें और लगभग स्थायी रहनेवाली पोशाक नई भेंट को पिछली स्मृतियों में पिरो देती। उनके जाने के बाद हर बार मेरी पत्नी अनुपम की नेक सुंदरता को अवश्य याद करतीं। उनके चेहरे, चाल, चर्चा की शैली और भाषा में एक सरीखा सौष्ठव था। हिंदी के इतिहास में अनुपम का गद्य एक नया अध्याय जोड़ चुका है। मगर बात के तरीके में भी अनुपम वहीं प्रांजलता बरतते थे जो अस्सी के दशक में ही उनका हस्ताक्षर बन चुकी थी। मैंने अनुपम मिश्र को पहली बार ‘दिनमान’ में पढ़ा था। विषय था-उत्तर भारत की नदियों में बाढ़। लेख में भूगोल, इतिहास, संस्कृति, शासन और मुसीबत का विशद वृत्तांत था, कहीं एकदम अलग-अलग, कहीं घोंटकर घुला हुआ। अनुपम की शैली में पानी जैसी पारदर्शिता लगातार बनी रही और पानी उनका प्रिय विषय रहा। मगर उनके लेखन में पेड़, फसलें, पक्षी, मिट्टी और अलग आकार व आकृति के सुंदर पत्थर भी प्रचुर मात्रा में उपस्थित हैं। पढ़ते समय लगता है, प्रकृति ने अपनी वास्तुकला अनुपम को अलग से बिठाकर समझाई थी।

आधुनिक सोच और लेखन के संदर्भ में अनुपम मिश्र, इसलिए विशिष्ट बने रहेंगे, क्योंकि अपने इरादों या फैसलों को लेकर किसी तरह की संचेतना या घोषणा उनके लेखन से नदारद है। वे एक सजीव आंदोलन थे, पर उन्हें ‘एक्टीविस्ट’ कहना भूल या मूर्खता होगी। पर्यावरण, जल संरक्षण, वनसंपदा जैसे शब्दों से अनुपम को खासी चिढ़ थी। इस खीझ का कारण शायद शाय उस गांवत्व में उनकी सहज आस्था थी, जिसे आधुनिकता ने अतीत में धकेलने का अभियान चला रखा है। गांधी की तरह अनुपम गांव को भारत के समाज का जीवित, प्रतिरोधी सत्य मानते थे। यही विश्वास उन्हें देश के हर कोने में ले गया, जहां से प्रतिरोध और प्रेम की चकित कर देने वाली सत्यकथाएं इकट्ठा करके वे अपनी रचनाओं में रख सके नएलोगों को अपने काम से जोड़ने की क्षमता के साथ-साथ वे पुराने परिचयों को हरियाते रहते थे और इस तरह स्वयं एक गांव बनते जा रहे थे। उनकी अकाल और कष्टकारी मृत्यु प्रकृति के समकालीन इतिहास की दुर्घटना जैसी है। इस क्षतिपूर्ति के लिए अनेक वृक्ष लड़ेंगे, नदियां उन्हें रोकनेवाले बांधों को तोड़ेंगी और उन घाटियों में लौटेंगी, जहां से उन्हें जबरन हटाया जा रहा है।

काम में भरोसा

अरविंद मोहन

अ नुपमजी को 1980 से जानना भी उनको, उनके स्वभाव और काम को जानने के हिसाब से पर्याप्त नहीं लग रहा है। तब तक वे समाजवादी युवजन सभा, चौहत्तर के आंदोलन, चंबल के डाकुओं के समर्पण और चिपको की अपने खास तरह की रिपोर्टिंग वाला दौर पूरा कर चुके थे। बल्कि यों कहें कि उनकी इसी पृष्ठभूमि और काम की वजह से उनसे रिश्ता बना, क्योंकि हम भी यही करना चाह रहे थे। शुरुआती कुछ मुलाकातों में उनकी विनम्रता ओढ़ी हुई और नकली लगी, पर बाद का अनुभव यही पुष्ट करता गया कि वे अविश्वसनीयता की हद तक विनम्र लेकिन अपनी बुनियादी बातों के प्रति एकदम दृढ़ थे। और यह धारणा सालों साल बढ़ती गई, पुष्ट होती गई। जैसे उन्होंने सब कुछ छोड़कर पर्यावरण के प्रति अलख जगाने का काम किया। कभी पैसे, गाड़ी, मोबाइल, मकान जैसी सामान्य दुनियावी चीजों के चक्कर में नहीं पडेÞ। कभी अंग्रेजी में छपने-अनुदित होने ही नहीं दस्तखत करने का भी लोभ नहीं पाला, कभी पुरुष होने या ब्राह्मण परिवार में पैदा होने के ‘जन्मजात लाभ’ भी नहीं लिए। और कभी इन बातों का शोर नहीं मचाया, कभी नारेबाजी जैसी बात नहीं की।
पर वे सिर्फ इन्हीं वजहों से बड़े नहीं बने। सचमुच हमारे देखते-जानते उन्होंने और उन जैसे चंद लोगों ने देश में पर्यावरण के सवाल को उठाया और उसे जीवन-मरण का मुद्दा बना दिया। इस जमात में भी अनुपमजी का खास महत्त्व इसलिए है कि उन्हें पर्यावरण सुरक्षा का पश्चिमी मॉडल और मानक कभी स्वीकार नहीं हुआ। उनको देशी ज्ञान, कौशल और समाज की ताकत पर पूरा भरोसा था और वे अपने जैसे लोगों का काम सिर्फ समाज को उसके कामों की, उसकी शक्ति की, उसकी जरूरतों की याद दिलाना भर मानते थे। और यह कहना शायद गलती होगी कि उन्होंने एक किताब ‘आज भी खरे हैं तालाब’ के माध्यम से कोई क्रांति कर दी। उन्होंने गांधी शांति प्रतिष्ठान के लिए पर्यावरण पर बुलेटिन निकालने और नदियों पर पुस्तिकाएं निकालने, देश का पर्यावरण और हमारा पर्यावरण नामक रिपोर्ट तैयार करने, राजस्थान की रजत बूंदें और अनगिनत लेख-भाषण तैयार करने और ‘गांधी मार्ग’ का संपादन करने ही नहीं उसके लिफाफे बनाने, पते चिपकाने, टिकट लगाने जैसे सारे काम उसी गंभीरता, आनंद और लगन से करते थे।

‘आज भी खरे हैं तालाब’ की कई लाख प्रतियां में बिकीं। वे किताब के लोगों तक पहुंचने मात्र से प्रसन्न थे। यह किताब सिर्फ लोकप्रिय होने और बिक्री का रिकॉर्ड बनाने भर से महान नहीं है। इस किताब ने तालाबों को बचाने, पुनर्जीवित करने, नए तालाब बनाने, पारंपरिक जल संचय प्रणालियों पर एक बार फिर भरोसा बढ़ाने और हम सबको अपने-अपने हिस्से का काम करने की प्रेरणा दी और काम कराया। इस किताब को पढ़कर देवघर के नामी तालाब का कीचड़ निकालने जैसे ही वहां के कलेक्टर निकले वैसे ही शहर उमड पड़ा था और आज यह दसियों साल से एकदम साफ-सुथरा है। सूरत, गुजरात के हीरा व्यापारियों को जब इस किताब ने अहसास कराया कि हीरा-जवाहरात नहीं खाया-पीया जा सकता तो उन्होने सामूहिक ढंग से उत्सव जैसे आयोजन के सहारे सैकड़ों तालाबों को पुनर्जीवित कराया और अनुपम जी को बुलाकर दिखाया था। काफी हद तक यही किताब भाई राजेंद्र सिंह जैसे अनेक लोगों और उत्तराखंड के कुछ नौजवानों के लिए प्रेरणास्रोत बनी। अनुपमजी मानते थे कि वे कहीं से खास कुछ लेकर नहीं आए। इसी समाज का ज्ञान और कौशल पता करके उसे वापस याद दिला रहे हैं। यह नदी के जल को उसे लौटाने की तरह समाज को उसका उधार लौटाने जैसा काम था। शायद प्रकृति ने प्रदूषण के एक रोग के माध्यम से हमारे बीच से अपना एक रत्न वापस ले लिया है। पर यह रत्न भी ऐसा था कि इसने बार-बार अनुपम पैदा होने लायक रास्ता दिखा दिया है। यही अनुपम मिश्र थे और रहेंगे।

अहंकार से दूर

चतर सिंह

अ नुपमजी का न रहना सिर्फ पर्यावरणवादियों के लिए ही नहीं, बल्कि समूचे देश के सुधी नागरिकों के लिए एक आघात की तरह है। यो तो वे पर्यावरण के सभी पहलुओं-यानी पानी, मिट्टी और हवा को लेकर बहुत चिंचित रहते थे, लेकिन पानी और वृक्षों को लेकर उनकी चिंता बहुत गहरी थी। उनका मानना था कि पर्यावरण को सिर्फ पेड़ ही ठीक कर सकते हैं। वे आधुनिक विकास के तौर-तरीके से सहमत नहीं थे। बढ़ता शहरीकरण और मशीनीकरण उन्हें आक्रांत किए रहता था। कम ही लोगों को पता होगा कि विज्ञान एवं पर्यावरण केंद्र (सीएसई) की स्थापना में उनका बहुत योगदान था। नर्मदा बचाओ आंदोलन, जिसकी पर्याय बन चुकी हैं, मेधा पाटकर, इस मुद्दे को सबसे पहले अनुपमजी ने ही उठाया था। वे इतने सरल थे कि संसारी चीजों से दूर भागते थे। अलंकरण और अहंकार जैसे उन्हें काटने को दौड़ते थे। उन्होंने कभी भी अलंकरण के पीछ भागना मंजूर नहीं किया। अहंकार उन्हें छू तक नहीं गया था। उनकी सरलता किसी को भी मुग्ध कर लेती थी। गोष्ठियों, बैठकों में भी वे अपनी तारीफ सुनना पसंद नहीं करते थे। कई बार जब लोग प्रशंसा में कुछ ज्यादा ही बोल जाते थे उनके बारे में तो वे नरमी से उन्हें टोकते थे। कहते थे-तारीफ आदमी को नुकसान पहुंचाने लगती है। असल में उनका जीवन और काम लोक को समर्पित था। उन्हें किसी परिचय की सीमा में बांधा नहीं जा सकता। वे चाहते थे कि लोग उनके बारे में ज्यादा बढ़चढ़कर प्रचार न करें, बल्कि उनकी पुस्तक ‘आज भी खरे हैं तालाब’ को पढ़ें और उसके बारे में बोलें। उनका मानना था कि पानी के बारे में अगर समाज अपनी धारणा ठीक कर ले तो बहुत कुछ बदल सकता है। पानी कोई मामूली चीज नहीं थी। वे इस मायने में सचमुच रहीम के भक्त जैसे थे कि रहिमन पानी राखिए।

यों तो उनके पिता हिंदी के प्रख्यात कवि थे, लेकिन वे कभी यह नहीं पता चलने देते थे कि लोग उन्हें इस परिचय से जानें। इसका मतलब यह नहीं था कि उन्हें अपने पिता पर गर्व नहीं था, बल्कि वे अपने पिता के प्रति गहरा अनुराग रखते थे। वे बस यह चाहते थे कि कोई उनके पिता की वजह से उन्हें अतिरिक्त मान न देने लगे। बल्कि, उनकी इच्छा थी कि लोग उनके अपने काम को देखें और समझें। उन्हें अपनी सराहना की भूख नहीं थी। भवानी प्रसाद मिश्र का बेटा होना उनके लिए निजी मामला था। अनुपमजी ने आधुनिक शिक्षा के हिसाब से दिल्ली विश्वविद्यालय से डिग्री तो ले ली थी, लेकिन इस शिक्षा प्रणाली को लेकर भी चिंतित रहते थे। यह डिग्रीवाली शिक्षा उन्हें रास नहीं आती थी। उन्होंने एक जगह लिखा है ‘लिखत-पढ़तवाली सब चीजें औपचारिक होती हैं। सब स्कूल में बैठकर नहीं होता है। इतने बड़े समाज का संचालन करने, उसे सिखाने के लिए कुछ और ही करना होता है। कुछ तो रात को मां की गोदी में सोते-सोते समझ में आता है तो कुछ काका, दादा, के कंधों पर बैठ चलते-चलते समझ में आता है। यह उसी ढंग का काम है: जीवन शिक्षा का।वे मानते थे कि केवल संस्थाएं खोल देने से पर्यावरण नहीं सुधरता। जैसे सिर्फ थाने खोल देने से अपराध कम नहीं हो जाते। मजबूत समाज में पर्यावरण का पाठ स्कूलों में पढ़ाने के भ्रम से मुक्त होना होगा।
सजग और दृढ़

राजकुमार भारद्वाज

अ नुपमजी का ऐसे वक्त में जाना जब पानी का संकट पूरी दुनिया में चुनौती बन गया है, दुखद है। पंजाब-हरियाणा में पानी का झगड़ा हो या चेनाब, कावेरी आदि का पानी विवाद। वे कहते थे कि पानी का विवाद संघर्ष से कभी नहीं सुधरेगा। उनका मानना था कि पानी के झगड़े गाम-राम के झगड़े हैं। ऐसे झगड़े अपने समाज के बुजुर्गों के जरिए ही हल हो सकते हैं। पानी हमारी आबरू है। इसलिए हमें मिल बैठकर ऐसे मामले सुलझाने चाहिए। तालाब हमारी सनातन, मौलिक, पौराणिक देन है। और पानी पर सबका अधिकार है। पानी के विरुद्ध लड़ना, ईश्वर के विरुद्ध लड़ना है। उनका व्यक्तित्व अद्भुत था। उनके लिए कोई छोटा-बड़ा नहीं था। एक बार क्या हुआ कि मैं उनसे मिलने गया था। तभी एक सांसद भी उनसे मिलने आए। अनुपमजी ने कहा कि राजकुमार पहले आए हैं, मैं पहले उनसे मिलूंगा। सांसद के लिए चाय रखवा दी गई। अनुपमजी ने पच्चीस मिनट बाद सांसद को बातचीत के लिए बुलाया तो सांसद का मुंह उतर गया। लेकिन, जाने क्या खीझ थी कि जब सांसदजी उनसे बात कर रहे थे तो उन्होंने अपने पैर ऊपर सामने रखी कुर्सी पर फैला लिया। इस पर अनुपमजी ने उन्हें विनम्रता से टोका कि अगर वे थके हों तो उनके विश्राम की व्यवस्था करा दी जाएगी। लेकिन, बातचीत करते समय शिष्टाचार का ध्यान रखना जरूरी है। यह असल में उनके मिजाज का एक पहलू था। वे बहुत सरल भी थे, लेकिन यह नहीं था कि कोई उनसे शेखी बघारना चाहे या उन्हें ओछा समझने की भूल करे तो वे ध्यान न दें। वे सजग और दृढ़ भी थे। अपनी सही बात पर अड़े भी रहते थे और गलत बात से तत्काल पीछे हट जाते थे।

एक घटना और । मैं उनके साथ हरिद्वार गया था तो एक परंपरा थी कि गंगा नदी के बाहरी क्षेत्र में गाद निकाली जाती थी। हम वहां गए तो देखा कि महिलाएं गाद निकालने का काम केवल महिलाएं कर रही थीं। पुरुष काम नहीं कर रहे। अनुपमजी ने कहा कि यह तो बहुत गलत है। ऐसा नहीं होना चाहिए। उन्होंने वहां मौजूद पुरुषों को जबानी तौर पर समझाने की बजाय करके दिखाया। एक तसला मंगाया और 54-55 साल की उम्र रही होगी, उस वक्त। उन्होंने सात-आठ तसला गाद निकाली और दूर ले जाकर उन्हें डाला।उनकी एक बड़ी खासियत यह थी अपने करीबियों, मित्रों आदि की चुपचाप मदद करने की। पता नहीं उनके पास पैसे तो कभी होते नहीं थे, लेकिन जब भी कहीं से उन्हें पैसे मिलते थे तो वे अक्सर किसी न किसी की चुपचाप मदद कर देते थे। मैं अक्सर गांधी शांति प्रतिष्ठान जाता था तो मुझे पानी और तालाबों के बारे में बताते थे। उनका कहना होता था कि ऐसी समस्याओं को गांवों के मुहावरे और बोली में लिखा जाना चाहिए। उनसे प्रेरित होकर ही मैंने तालाबों के ऊपर एक किताब लिखी और फिर उन्हें और रामबहादुर राय जी को समर्पित भी किया। असल में, उनके जैसे व्यक्ति के बारे में लिखना, बोलना कुछ भी बहुत कठिन है। उनका व्यक्तित्व इतना विशाल और बहुधर्मी था, कि किसी एक ही पहलू पर ही ग्रंथ रचा जा सकता है। ऐसे वक्त में वे गए हैं, जब सबसे ज्यादा उनकी जरूरत समाज को थी। विकास के जिस मार्ग को उन्होंने चुना था, अगर हम और हमारी सरकारें थोड़ा-बहुत भी उनके बताए हुए को अपना सकें, तो सचमुच उनके लिए यह बड़ी श्रद्धांजलि होगी।