Kanwar Yatra Story:गंगा जल चढ़ाने को, शिव शंकर को मनाने को… कुछ खास इलाकों में सड़कों पर गूंज रहे इन गीतों के साथ भक्ति के श्रावण सत्र की शुरुआत हो गई। भारत की धार्मिक परंपराओं में नदियों का अपना महत्त्व है। शिव और गंगा नदी भारत के लोक मानस के प्रतीक हैं। उत्तर भारत में शिव लोक की ऊर्जा हैं। श्रावण की बरसात के बीचलोक अपने आराध्य को खुश करने के लिए ज्यादा भौतिक चीजों का सहारा नहीं लेता है। शिव ऊर्जा के देवता हैं तो भक्त भी उन्हें अपनी ऊर्जा का अर्घ्य देता है। आराध्य शिव के धाम से गंगा मां की दूरी जितनी भी हो, उसे अपने शरीर के श्रम से पूरा करता है। सड़क पर भक्ति के श्रम का यह रूप धीरे-धीरे अन्य क्षेत्रों में भी विस्तार पा रहा है, तो कुछ दिक्कतें भी आ रही हैं।श्रावण और शिव के साथ लोक के गठजोड़ पर जनसत्ता सरोकार की निगाह।
श्रावण मास शुरू हो चुका है। शिवभक्त कांवड़ लेकर गंगाजल लेने निकल पड़े हैं। इसी जल से वे भोलेनाथ का अभिषेक करेंगे। शास्त्रों में हरिद्वार के ब्रह्मकुंड से जल ले जाकर भगवान शिव को अर्पित करने का विशेष महत्व माना गया है। एक अनुमान है कि इस साल कांवड़
यात्रा के दौरान कम से कम सात करोड़ शिवभक्त गंगा जल लेने के लिए उत्तराखंड के हरिद्वार तथा आसपास के क्षेत्रों में पहुंचने का अनुमान है। सरकारी सूत्रों का कहना है कि अब तक चार-साढ़े चार करोड़ लोग पहुंच चुके हैं।
कांवड़ यात्रा होती क्या है और इसका क्या महत्व है? सावन के महीने में लाखों शिवभक्त नदियों विशेषकर गंगा से पवित्र जल लेकर, उसे कांवड़ में टांग कर कई किलोमीटर पैदल चलकर शिव मंदिरों तक पहुंचते हैं। वहां जाकर भगवान शिव पर जल चढ़ाते हैं। इसे ही कांवड़ यात्रा कहा जाता है। श्रद्धा, सेवा और संकल्प का यह सफर सिर्फ यात्रा नहीं, आस्था का उत्सव है।
कांवड़ यात्रा की शुरुआत किसने की?
कांवड़ यात्रा से जुड़ा एक प्रश्न हमेशा चर्चा में रहता है, वह यह कि सबसे पहले यात्रा किसने शुरू की? दिलचस्प बात यह है कि इस प्रश्न का कोई एक ठोस उत्तर नहीं है, क्योंकि भारत के अलग-अलग हिस्सों में इस परंपरा को लेकर अलग-अलग मान्यताएं प्रचलित हैं। हर मान्यता अपने-आप में आस्था और इतिहास की मिसाल है। आइए जानते हैं।
परशुराम जी और पुरा महादेव की कथा
उत्तर प्रदेश के बागपत जिले में पुरा महादेव नाम का एक प्राचीन शिवधाम है। मान्यता है कि भगवान परशुराम ने गढ़मुक्तेश्वर से गंगाजल लाकर यहां भगवान शिव का जलाभिषेक किया था। परशुराम को शिवभक्त माना जाता है और उनके इस कर्म को कई लोग कांवड़ यात्रा की पहली झलक मानते हैं। आज भी लाखों श्रद्धालु उसी मार्ग से जल लेकर पुरा महादेव पहुंचते हैं।
श्रीराम की वैद्यनाथ धाम की यात्रा
कुछ मान्यताओं के अनुसार भगवान राम को पहला कांवड़िया कहा जाता है। ऐसा माना जाता है कि उन्होंने बिहार के सुल्तानगंज से गंगाजल लेकर देवघर (वैद्यनाथ धाम) तक लंबा सफर तय किया था और वहां शिवलिंग पर जलाभिषेक किया था। राम के इस कार्य को भक्ति, सेवा और पुत्रधर्म से जोड़कर देखा जाता है।
श्रवण कुमार की सेवा और त्याग की मिसाल
एक और लोकप्रिय मान्यता श्रवण कुमार से जुड़ी है, जिन्हें भक्ति और सेवा का प्रतीक माना जाता है। कथा के अनुसार श्रवण कुमार ने अपने दृष्टिहीन माता-पिता को कांवड़ में बैठाकर हरिद्वार ले जाकर गंगा स्नान कराया और वापसी में गंगाजल साथ लाकर उन्हें तर्पण किया। यही वजह है कि कांवड़ को कंधे पर उठाना सेवा और समर्पण का प्रतीक भी माना जाता है।
रावण और समुद्र मंथन की घटना
एक अन्य मान्यता रावण से जुड़ी है, जो भगवान शिव का परम भक्त था। समुद्र मंथन के दौरान जब विष निकला, तब उसे पीने के कारण भोलेनाथ का कंठ नीला हो गया। कहते हैं कि रावण ने गंगाजल लाकर शिवलिंग पर जलाभिषेक किया, ताकि विष का प्रभाव कम हो सके। इसी कारण उन्हें भक्ति भाव से कांवड़ चढ़ाने वाला पहला भक्त भी माना जाता है।
देवताओं द्वारा गंगाजल अर्पण की कथा
कुछ मान्यताएं बताती हैं कि जब भगवान शिव ने विष का पान किया, तब केवल रावण ही नहीं, बल्कि देवतागण भी गंगाजल और पवित्र नदियों का जल लाकर शिव पर चढ़ाने लगे। उनका उद्देश्य विष के प्रभाव को शांत करना था। कई विद्वान मानते हैं कि यहीं से कांवड़ यात्रा जैसी परंपरा की नींव पड़ी।
इन सभी कथाओं में समर्पण, श्रद्धा और सेवा भाव एक समान है। कांवड़ यात्रा सिर्फ एक धार्मिक कर्मकांड नहीं, बल्कि पौराणिक इतिहास, परंपरा और लोक मान्यताओं का जीवंत उत्सव है।
कांवड़ को कांधे पर उठाने की परंपरा क्यों?
कांवड़ को जमीन पर नहीं रखा जाता। भक्त इसे पूरी यात्रा में कांधे पर ही उठाए रखते हैं। माना जाता है कि श्रीराम और श्रवण कुमार ने कांवड़ अपने कांधे पर उठाई थी, जो सेवा और समर्पण का प्रतीक माना जाता है। यह बताता है कि भक्त अपने अहंकार को त्याग कर पूरी तरह भोलेनाथ के प्रति समर्पित हो जाता है। कंधे पर भार उठाना, पापों से मुक्ति और मोक्ष की भावना से भी जुड़ा हुआ है। कहा जाता है कि जो श्रद्धा से कांवड़ यात्रा करता है, उसकी हर मनोकामना भोलेनाथ पूरी करते हैं। इसके पीछे सिर्फ पूजा नहीं, बल्कि स्वयं को एक तपस्वी की तरह प्रस्तुत करना होता है। बिना पादुकाएं, चप्पल-जूते, न्यूनतम आराम किए चलना इस समर्पण की सबसे बड़ी मिसाल है।
क्या हैं नियम
कांवड़ यात्रा ले जाने के कई नियम होते हैं, जिन्हें पूरा करने का हर कांवड़िया संकल्प लेता है। यात्रा के दौरान किसी भी प्रकार का नशा, मदिरा, मांस और तामसिक भोजन वर्जित माना गया है। कांवड़ को बिना स्नान किए हाथ नहीं लगा सकते। चमड़े का स्पर्श नहीं करना, वाहन का इस्तेमान नहीं करना, चारपाई का उपयोग नहीं करना, वृक्ष के नीचे भी कांवड़ नहीं रखना, कांवड़ को अपने सिर के ऊपर से लेकर जाना भी वर्जित माना गया है।
क्या है मान्यता
विद्वान बताते हैं कि अगर प्राचीन ग्रंथों, इतिहास की मानें तो कहा जाता है कि पहला कांवड़िया रावण था। वेद कहते हैं कि कांवड़ की परंपरा समुद्र मंथन के समय ही पड़ गई। तब जब मंथन में विष निकला तो संसार इससे त्राहि-त्राहि करने लगा। तब भगवान शिव ने इसे अपने गले में रख लिया। लेकिन इससे शिव के अंदर जो नकारात्मक ऊर्जा ने जगह बनाई, उसको दूर करने का काम रावण ने किया। रावण ने तप करने के बाद गंगा के जल से पुरा महादेव मंदिर में भगवान शिव का अभिषेक किया, जिससे शिव इस ऊर्जा से मुक्त हो गए।
अंग्रेज रचानकारों ने 19वीं सदी की शुरुआत से भारत में कांवड़ यात्रा का जिक्र अपनी किताबों और लेखों में किया। कई पुराने चित्रों में भी यह दिखाया गया है। लेकिन कांवड़ यात्रा 1960 के दशक तक बहुत सादगी से होती थी। कुछ साधु और श्रद्धालुओं के साथ धनी मारवाड़ी सेठ नंगे पैर चलकर हरिद्वार या बिहार में सुल्तानगंज तक जाते थे और वहां से गंगाजल लेकर लौटते थे। इससे शिव का अभिषेक किया जाता था।
अस्सी के दशक के बाद यह बड़े धार्मिक आयोजन में बदलने लगा। अब तो यह काफी बड़ा आयोजन हो चुका है। पौराणिक ग्रंथों में एक मान्यता कांवड़ को लेकर और भी आती है। कहा जाता है कि जब राजा सगर के पुत्रों की मुक्ति के लिए भगीरथ ने गंगा को पृथ्वी पर आने के लिए मनाया तो उनका वेग इतना तेज था कि धरती पर सब कुछ नष्ट हो जाता। ऐसे में भगवान शिव ने उनके वेग को शांत करने के लिए उन्हें अपनी जटाओं में धारण कर लिया और तभी से यह माना जाता है कि भगवान शिव को मनाने के लिए गंगा जल से अभिषेक किया जाता है।
कांवड़ यात्रा क्यों कहा जाता है
दरअसल इसमें आने वाले श्रद्धालु बांस की लकड़ी पर दोनों ओर टिकी हुई टोकरियों के साथ पहुंचते हैं और इन्हीं में गंगाजल लेकर लौटते हैं। इस कांवड़ को लगातार यात्रा के दौरान अपने कंधे पर रखकर यात्रा करते हैं, इसलिए इस यात्रा को कांवड़ यात्रा और यात्रियों को कांवड़िए कहा जाता है। पहले तो लोग नंगे पैर या पैदल ही कांवड़ यात्रा करते थे, लेकिन अब नए जमाने के हिसाब से बाइक, ट्रक और दूसरे साधनों का भी इस्तेमाल करने लगे हैं।
आमतौर पर बिहार, झारखंड और बंगाल या उसके करीब के लोग सुल्तानगंज जाकर गंगाजल लेते हैं और कांवड़ यात्रा करके झारखंड में देवघर के वैद्यनाथ मंदिर या फिर बंगाल के तारकनाथ मंदिर के शिवालयों में जाते हैं। एक छोटी कांवड़ यात्रा अब इलाहाबाद और बनारस के बीच भी होने लगी है।
यात्रा के कितने रूप
सामान्य कांवड़
सामान्य कांवड़िए कांवड़ यात्रा के दौरान जहां चाहे रुककर आराम कर सकते हैं। आराम करने के लिए कई जगह पंडाल लगे होते हैं, जहां वे विश्राम करके फिर से यात्रा को शुरू करते हैं।
डाक कांवड़
डाक कांवड़िए कांवड़ यात्रा की शुरुआत से शिव के जलाभिषेक तक बिना रुके लगातार चलते रहते हैं। उनके लिए मंदिरों में विशेष तरह के इंतजाम भी किए जाते हैं। जब वो आते हैं हर कोई उनके लिए रास्ता बनाता है, ताकि वे शिवलिंग तक बिना रुके चलते रहें।
खड़ी कांवड़
कुछ भक्त खड़ी कांवड़ लेकर चलते हैं। इस दौरान उनकी मदद के लिए कोई-न-कोई सहयोगी उनके साथ चलता है। जब वे आराम करते हैं, तो सहयोगी अपने कंधे पर उनकी कांवड़ लेकर कांवड़ को चलने के अंदाज में हिलाते रहते हैं।
दांडी कांवड़
दांडी कांवड़ में भक्त नदी तट से शिवधाम तक की यात्रा दंड देते हुए पूरी करते हैं। कांवड़ पथ की दूरी को अपने शरीर की लंबाई से लेट कर नापते हुए यात्रा पूरी करते हैं। यह बेहद मुश्किल होता है और इसमें एक महीना तक लग जाता है।
गंगा जल और तिरंगा
सदियों पहले कांवड़ का रूप कुछ ऐसा था कि एक बांस में दोनों ओर मिट्टी के कलश में गंगाजल लेकर लोग हरिद्वार से पैदल यात्रा कर शिवालय पहुंचते थे। समय के साथ धीरे-धीरे कांवड़ यात्रा का भी स्वरूप बदलता चला गया। मिट्टी के कलश के स्थान पर पहले कांच और अब स्टील व प्लास्टिक के कलश का चलन शुरू हो गया।
साठ के दशक में कांवड़ को बांस की खपच्चियों से सुंदर तरीके से सजाया जाता था। उसमें खिलौने आदि बांधकर और भी सुंदर रूप दिया जाता। उस समय बांस की बनी टोकरियों में कांच की शीशियों में गंगाजल भरकर ले जाने का चलन था। इसके बाद कांच की शीशियों का स्थान प्लास्टिक की बोतलों और केन ने ले लिया। फिर कुछ समय बाद बड़ी कांवड़ व डाक कांवड़ का चलन शुरू हो गया। लोग समूह बनाकर कांवड़ यात्रा पर निकलने लगे।
पिछले कुछ सालों में युवा वर्ग तिरंगा झंडा लेकर चले और इससे देशभक्ति को जोड़ा। अब तो कांवड़ यात्रा में काफी सुविधाएं मिल रही हैं। अब कांवड़ यात्रियों के लिए सेवा शिविर लगाए जाने लगे, जिससे यात्रा और भी सुलभ हो गई। मार्ग में कई थानों पर स्वास्थ्य शिविर की सुविधा रहती है। शासन का भी पूरा सहयोग रहता है।
कुछ अप्रिय प्रसंग
शिव भक्ति प्रेम, त्याग और न्याय का प्रतीक है। इसके मूल में, यह सभी प्राणियों के प्रति हिंसा से रहित, सार्वभौमिक स्नेह का संदेश देता है। अब जब लोक का स्वरूप बदला है तो सड़क पर इस यात्रा का भी स्वरूप बदल रहा है। अब ज्यादा युवा लोग भी इस यात्रा में शामिल होते हैं तो उनमें धैर्य की कमी भी दिखती है। जब सड़कें अध्यात्मिक यात्रा के अनुकूल न हों तो फिर तनाव उठने की आशंका होती है।
इन दिनों हरिद्वार से लेकर दिल्ली, उत्तर प्रदेश, राजस्थान, मध्य प्रदेश तथा अन्य राज्यों को जाने वाले सड़क मार्गों में रंग बिरंगी कांवड़ लिए हुए कांवड़िए भोले बाबा की भक्ति में डूबे नजर आ रहे हैं। तेज संगीत युवाओं की पसंद होती है तो शिव भक्ति में वे इसे भी अनिवार्य मान लेते हैं। डीजे ले जाने वाले बड़े वाहनों के कारण भी सड़क पर परेशानी पैदा हो जाती है।
कभी-कभी कांवड़ियों की किसी से टक्कर हो जाती है तो मामला पुलिस थाने तक पहुंचता है। सावन के पावन महीने में चल रही पवित्र कांवड़ यात्रा के दौरान बवाल और तोड़फोड़ की तस्वीरें सामने आई हैं। उत्तर प्रदेश के मेरठ, गाजियाबाद और कानपुर में जबरदस्त हंगामा हुआ है। आरोप है कि मेरठ में कांवड़ियों ने एक स्कूल बस में तोड़फोड़ की।
गाजियाबाद में टैक्सी और कार को नुकसान पहुंचाया गया। कानपुर में कांवड़ियों की पुलिस से झड़प हो गई और थाने में तोड़फोड़ की गई। इस साल कांवड़ मेले की शुरुआत में ही उत्तराखंड में कुछ कांवड़ियों ने अराजकता दिखाई। अब तक उत्तराखंड में करीब छह घटनाएं घटनाएं कांवड़ियों के हुड़दंग की सामने आई हैं।
हरिद्वार जनपद में कांवड़ियों ने तोड़फोड़ की घटनाओं को बहादराबाद, रुड़की और मंगलौर में अंजाम दिया है। इन तीन जगहों पर कांवड़ियों से वाहन हल्के से टकरा गए और वे अपना आपा खो बैठे। वाहनों पर लाठी-डंडे बरसा कर चकनाचूर कर दिया। पुलिस ने छह से ज्यादा कांवड़ियों को बवाल करने के आरोप में गिरफ्तार किया है और उनके खिलाफ मुकदमा दर्ज किया है।
वहीं, डीजे के आकार और उन्हें ऊंची आवाज में बजाने को लेकर कांवड़ियों को नोटिस दिए गए हैं। बहुत से कांवड़ बड़े होने तथा डीजे का आकार मानक के विपरीत होने पर उन्हें हरिद्वार-उत्तर प्रदेश की सीमा पर रोक दिया गया है। इसी क्रम में पिछले दिनों कांवड़ियों ने हरिद्वार में टोल प्लाजा के पास हंगामा किया। पुलिस ने जब सख्ती दिखाई तब कांवड़िए मौके से चले गए।
हरिद्वार के बहादराबाद में कांवड़ियों ने जमकर हंगामा काटा। कांवड़ से गंगाजल गिर जाने पर सहारनपुर से आए कांवड़िए आपा खो बैठे और कार सवारों से मारपीट कर दी। इतना ही नहीं उपद्रवियों ने लाठी डंडों से कार में तोड़फोड़ भी कर डाली। कार सवारों के साथ मारपीट की। शिकायत पर तीन कांवड़ियों को हिरासत में ले लिया गया है।
इसी तरह रुड़की और मंगलौर में भी कांवड़ियों ने हंगामा किया। कांवड़ियों ने तब भी हंगामा किया जब पुलिस ने हरिद्वार के सिंहद्वार के पास कांवड़ियों को राष्ट्रीय राजमार्ग पर जाने से रोका और उन्हें कांवड़ पटरी मार्ग से जाने को कहा।
हरिद्वार में कांवड़ यात्रा के दौरान तोड़फोड़ और मारपीट के मामलों पर नैनीताल हाईकोर्ट ने संज्ञान लिया है। हाईकोर्ट ने उत्तराखंड के डीजीपी से इन घटनाओं को लेकर उठाए गए कदमों पर सवाल किया। डीजीपी ने अदालत को बताया कि तोड़फोड़ के मामलों में गिरफ्तारियां हुई हैं और डीजे की ऊंची आवाज पर प्रतिबंध लगाया है।
राज्य पुलिस ने कानून व्यवस्था बनाए रखने का आश्वासन दिया। डीजीपी ने जानकारी दी कि जो लोग उपद्रव मचा रहे हैं, उनकी निशानदेही कर उनके खिलाफ कार्रवाई की जा रही है। डीजीपी ने बताया कि कांवड़ की ऊंचाई आठ से दस या बारह फुट तक सीमित की गई है, क्योंकि पहले ऊंची कांवड़ और डीजे के शोर से लोगों को परेशानी होती थी।
कांवड़ यात्रा को लेकर कुछ राजनीतिक विवाद भी शुरू हुए और मामला अदालत तक भी पहुंचा। उत्तर प्रदेश सरकार ने कांवड़ यात्रा मार्ग पर स्थित खानपान की दुकानों को क्यूआर कोड लगाने का आदेश दिया था, जो दुकान मालिकों की पहचान और अन्य विवरण प्रकट करता है। इसे लेकर कई समूहों ने आपत्ति जताई है। इस आदेश को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई है।
याचिकाकर्ताओं दिल्ली विश्वविद्यालय के प्राध्यापक अपूर्वानंद और कार्यकर्ता आकार पटेल ने दलील दी है कि यह आदेश पिछले साल सुप्रीम कोर्ट के आदेश का उल्लंघन करता है, जिसमें मालिकों-कर्मचारियों के नाम बताने की अनिवार्यता को रोका गया था। इसके बजाय, केवल परोसे जाने वाले भोजन के प्रकार को दिखाने का आदेश दिया गया था।
याचिकाकर्ताओं का तर्क है कि क्यूआर कोड धार्मिक पहचान को बढ़ावा दे सकता है, विशेष रूप से मुसलिम समुदाय के लिए और आर्थिक बहिष्कार का खतरा पैदा करता है। सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले पर 15 जुलाई, 2025 को नोटिस जारी किया। सोशल मीडिया पर विशेषकर ‘एक्स’ पर इस मुद्दे पर व्यापक चर्चा हुई है। इसमें कई उपयोगकर्ताओं ने इसे निजता और संवैधानिक अधिकारों का उल्लंघन बताया है।
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