राजधानी दिल्ली समेत मुंबई, कोलकाता और बंगलुरु जैसे शहरों की करीब चालीस फीसद आबादी कूड़े के टीलों के आसपास झुग्गी-झोपड़ी या मलिन बस्तियों में जिंदगी बसर करती है। मुंबई में तो यह आंकड़ा साठ फीसद तक है। गांव से शहर की ओर मुखातिब होने वाली यह जनसंख्या अशुद्ध जल का उपयोग करने और प्रदूषित वातावरण में सांस लेने को मजबूर है। एक ओर उपजाऊ जमीन और हरियाली को खत्म कर बस्तियां बसाई जा रही हैं, तो दूसरी ओर यहां के रहवासियों को रोजी-रोटी के एवज में बीमारियों की सौगात मिल रही है। जगह की कमी की वजह से या तो रिहायशी इलाकों में ही कचरे का निस्तारण किया जा रहा है या जिन सीमांत जगहों पर कभी कचरा संग्रहण केंद्र बनाए गए थे, वे अब आबादी के बीचोबीच आ गए हैं।
जनसंख्या का भारी बोझ ढोने वाली देश की आर्थिक राजधानी मुंबई के घरों से रोजाना दस हजार टन कचरा निकलता है। 110 हेक्टेअर भूमि पर फैले शहर के सबसे बड़े देवनार कचरा संग्रह स्थल पर 92 लाख टन कचरे का ढेर लगा है। इस डंपिंग यार्ड के आसपास के इलाकों में विषाक्त माहौल की वजह से प्रति 1000 बच्चे में से 60 बच्चे जन्म लेते ही मर जाते हैं, जबकि बाकी मुंबई में यह औसत प्रति 1000 बच्चे में 30 बच्चों का है। यहां के लोग चर्म रोग, दमा, मलेरिया और टीबी जैसी बीमारियों से ग्रसित हैं।
कोलकाता की स्थिति भी कुछ जुदा नहीं है। जैविक कचरे का वैज्ञानिक निपटारा न होने की वजह से ग्लोबल वार्मिंग बढ़ रहा है। कोलकाता नगर निगम और ब्रिटिश संस्था यूके एड की ओर से जारी रिपोर्ट में झकझोरने वाले तथ्य सामने आए हैं, जिसके मुताबिक अगर कचरे का वैज्ञानिक निपटारा नहीं किया गया तो छह साल के भीतर सैकड़ों हेक्टेअर में फैले धापा डंपिंग ग्राउंड के कचरे से ढाई लाख टन कार्बन उत्सर्जित होगा। इसका असर बारिश, सर्दी, गरमी के साथ पूरे पर्यावरण पर होगा।
हाल ही में एक सर्वे में भारत के सबसे स्वच्छ शहरों में सातवां स्थान हासिल करने वाले बंगलुरु की हालत अन्य महानगरों से कुछ बेहतर तो दिखती है, लेकिन अपने ही मानकों पर यह शहर खरा नहीं उतर पाया है। साल 2013 में शुरू हुआ ‘कसा मुक्था बंगलुरु’ यानी कचरा मुक्त बंगलुरु का अभियान असफल साबित हुआ। रोजाना करीब पांच हजार टन कचरा पैदा करने वाले इस शहर में बीस फीसद कचरे का निस्तारण नहीं हो पाता है। सौ एकड़ में फैले मावल्लीपुरा डंपिंग यार्ड की रोजाना क्षमता पांच सौ टन की है, जबकि यहां रोज एक हजार टन कचरा डाला जाता है। दस साल पुराने इस डंपिंग यार्ड को लेकर स्थानीय लोगों की शिकायत है कि कचरा निस्तारण करने वाली कंपनी छंटाई किए बिना ही यहां कचरा डालती है, जिससे आसपास के गांवों में स्थित झील और भूजल बुरी तरह प्रदूषित हो चुके हैं। नई जीवन शैली में पहले की अपेक्षा ज्यादा कूड़ा पैदा हो रहा है। साल 2024 तक दिल्ली में रोजाना पैदा होने वाले कूड़े में दोगुना से ज्यादा बढ़ोतरी होने का अनुमान है।
चारों ओर उड़ते सैकड़ों चील-कौए और बगुले। इधर-उधर दौड़ते आवारा कुत्ते, जगह-जगह जानवरों के झुंड। और दमघोंटू दुर्गंध। डिजिटल इंडिया और मेक इन इंडिया के गुलाबी नारों के बीच यह हौलनाक नजारा है दिल्ली और गाजियाबाद की सीमा पर राष्ट्रीय राजमार्ग से सटे गाजीपुर स्थित डंपिंग यार्ड यानी कूड़ा निस्तारण स्थल का, जिसे स्थानीय लोग खत्ता कहते हैं।
सत्तर एकड़ जमीन में पसरे और किसी दस-मंजिली इमारत की ऊंचाई को मात देते इस गगनचुंबी कूड़े के पहाड़ में कुछ लोगों अपने लिए रसद तलाशते हैं। ऐसे लोगों में एक ही अहमद। उत्तर प्रदेश के आगरा के पास के एक गांव से ताल्लुक रखने वाले पैंतीस वर्षीय अहमद की उम्र महज दस साल की रही होगी जब उन्होंने कूड़े के ढेरों से सामान बीन कर उन्हें कबाड़ के भाव में बेचने का काम शुरू किया था। तब से अब तक का अंतर सिर्फ इतना है कि तब वे इस काम में अपने पिता का हाथ बंटाते थे, जबकि आज वे अकेले ही अपना काम निपटाते हैं। सीमापुरी की झुग्गी बस्ती में रहने वाले अहमद सूरज उगने के साथ ही इस जगह का रुख करते हैं और सूरज डूबने के साथ दिन भर जमा किए गए प्लास्टिक, बोतल, कागज के गत्ते और लोहे-लक्कड़ को बेच अपने परिवार के पांच लोगों के लिए दो जून की रोटी का बंदोबस्त करते हैं।
अहमद के पास ही जोड़-जुगाड़ कर बनाए गए एंप्लीफायर पर गाना सुनते तीन नाबालिग बच्चे कबाड़ बीनते दिखे। पश्चिम बंगाल के हल्दिया से ताल्लुक रखने वाले तेरह साल के आलमगीर और पंद्रह साल के रहमत ने कभी किसी स्कूल में कदम नहीं रखा। मूल रूप से उत्तर प्रदेश के गोरखपुर निवासी तेरह वर्षीय देवेंद्र आठ साल की उम्र से कूड़े-कबाड़ का काम करता है। ये बच्चे इस ‘खत्ते’ के आसपास की झुग्गियों में रहते हैं और इनके माता-पिता या तो कूड़े में से अपनी रोजी-रोटी तलाशने का काम करते हैं या परचून की छोटी-मोटी दुकान चलाते हैं। बिहार के समस्तीपुर की पंंद्रह वर्षीया नसरीन खातून, छह साल और आठ साल की अपनी दो छोटी बहनों और तीन साल के दुधमुंहे भाई के साथ इकट्ठा किए कबाड़ को संभालने में व्यस्त दिखी। दिन भर धूल-धक्कड़ में डूबे रहने के बाद शाम को कबाड़ बेच कर जो सौ-डेढ़ सौ रुपए मिलते हैं, उसे नसरीन अपने पिता को सौंप देती है।
हाल में बाल श्रम कानून में हुए बदलाव के बाद चौदह साल से कम उम्र के बच्चों का घरेलू कामों में हिस्सा लेना अपराध की श्रेणी में नहीं आता, इसलिए पारिवारिक काम के नाम पर धड़ल्ले से उनका इस्तेमाल किया जा रहा है। कुछ महिलाएं कूड़े के ताजा ढेरों में से कुछ खाने की चीजें भी ढूंढती मिलीं। इक्कीसवीं सदी के भारत के काले सच से इस कूड़े के पहाड़ पर सामना होता है, जहां कबाड़ में जिंदगी तलाशने का काम कभी नहीं थमता। यहां बिजली का कोई इंतजाम नहीं, फिर भी लोग रात भर सिर में टॉर्च बांध कर कूड़ा बीनने के काम में मुब्तिला रहते हैं।
दिल्ली में हर रोज पैदा होने वाले करीब दस हजार टन कचरे के एक चौथाई हिस्से को बीन कर रिसाइक्लिंग यानी पुनर्चक्रण की प्रक्रिया में आगे बढ़ाने वाले ऐसे करीब चालीस हजार लोग तो राजधानी दिल्ली में ही हैं। कुछ जानकारों के मुताबिक दिल्ली में कुल कचरे का करीब पचास फीसद हिस्सा अनौपचारिक ढंग से कूड़ा बीनने वाले लोगों की वजह से सही ठिकाने तक पहुंच पाता है। हालांकि, इस संदर्भ में कोई प्रामाणिक आंकड़ा नहीं है। एक अनुमान के अनुसार राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली और मुंबई में करीब साढ़े तीन लाख लोग कूड़े पर आश्रित हैं। पूरे देश में यह संख्या बीस लाख का आंकड़ा छूती है, जिनमें चौदह साल से कम उम्र के सवा लाख बच्चे भी शामिल हैं। हैरत की बात है कि श्रमशक्ति के इतने बड़े हिस्से को अब तक किसी भी प्रकार की सरकारी मान्यता नहीं मिली है। असंगठित और अनौपचारिक क्षेत्र में आने की वजह से न तो इन्हें किसी तरह की सुरक्षा मिली है और न ही ये किसी श्रम कानून के दायरे में आते हैं। इसके उलट, इन डरे-सहमे लोगों को आए दिन पुलिस और नगर निगम की ज्यादतियों का शिकार होना पड़ता है।
पहचान के बुनियादी हक और सुविधाओं से कोसों दूर कचरे पर निर्भर आबादी बेहद खतरनाक वातावरण में काम करती है और जानवरों से भी बदतर जिंदगी बसर करती है। भारत जैसे देश में घर या मोहल्ले के स्तर पर ही कूड़े की छंटाई की परंपरा नहीं है, इसलिए कूड़े के ढेर में गंदी वस्तुओं के साथ हानिकारक इलेक्ट्रॉनिक कचरा और कांच, विभिन्न किस्म की सुई, थर्मामीटर जैसे बायोमेडिकल सामान होते हैं, जिनसे गंभीर संक्रमण की आशंका होती है। पर्यावरण और कूड़ा उठाने वाले लोगों के लिए काम करने वाली स्वयंसेवी संस्था ‘चिंतन’ के शोध चौंकाने वाले हैं। संस्था के मुताबिक कूड़ा मजदूरों में से 94 फीसद लोगों को सांस की बीमारियां हैं, जबकि 52 फीसद लोग फेफड़े की समस्या से जूझ रहे हैं। इतना ही नहीं, 48 फीसद मजदूरों को पेट और आंत की समस्या भी है। 84 फीसद बाल मजदूरों में खून की कमी पाई गई है।
डंपिंग यार्ड के आसपास के इलाके में भूजल खतरनाक स्तर पर गंदा और संक्रमित हो जाता है। गाजीपुर डंपिंग यार्ड के पास गाजीपुर डेयरी फार्म में रहने वाले संजय यहां के निवासियों की दिक्कतों का जिक्र करते हुए कहते हैं कि पानी और बिजली की किल्लत के साथ ही गंदगी के अंबार के बीच में रहना किसी नरक में रहने से कम नहीं है। शोध बताते हैं कि दिल्ली के तीन बड़े डंपिंग यार्ड- गाजीपुर, भलस्वा और ओखला के आसपास के इलाकों के भूजल में सल्फेट, नाइट्रेट, मैग्नीशियम, कैल्शियम जैसे रसायनों का स्तर खतरे की सीमा से कई गुणा ज्यादा बढ़ गया है। यहां का पानी पेय जल न रह कर कठोर जल में बदल चुका है।
इसे पीना तो दूर, इस पानी से नहाने से भी त्वचा संबंधी बीमारियां होती हैं। डंपिंग यार्ड में जब-तब लगाई जाने वाली आग भी स्थिति को और विकट बना देती है। कूड़े के भीमकाय ढेरों में आग लगने से बड़ी मात्रा में कार्बन डाइऑक्साइड और मीथेन गैस बनती है। इनसे फेफड़े और सांस संबंधी बीमारियों का खतरा बढ़ जाता है। चिकित्सकों के मुताबिक हाल के वर्षों में प्रदूषित हवा और पानी की वजह से पेट, हृदय, फेफड़े और कैंसर के मरीजों की संख्या में तेजी से इजाफा हुआ है। गाजीपुर डेयरी फार्म में रहने वाली और सांस की बीमारियों से जूझ रहीं दो महिलाओं ने बताया कि उन्हें डॉक्टर ने कूड़े का काम नहीं करने और प्रदूषण से दूर रहने की सलाह दी है। लेकिन काम न करें तो पेट कैसे भरे और रहना भी तो इसी ‘खत्ते’ में है! डंपिंग यार्ड के इलाकों की मिट्टी, हवा और पानी तो प्रदूषित है ही, यहां से मीथेन और नाइट्रस ऑक्साइड जैसी गैसें उत्सर्जित होती हैं, जिसका असर पूरे पर्यावरण पर भी हो रहा है। बदतर कूड़ा प्रबंधन की वजह से कुल ग्रीन हाउस गैस का तीन फीसद इन कूड़ों से उत्सर्जित होता है। ऊंची अट्टालिकाओं से पटी दिल्ली में शहरी विकास के सूचकांक का आलम यह है कि यहां की
करीब चालीस प्रतिशत आबादी झुग्गी-झोपड़ियों में बुनियादी सुविधाओं के अभाव, प्रदूषण और बीमारियों के प्रकोप के बीच रहने को मजबूर है। कूड़ा बीनने वाले लोगों के परिवारों और बच्चों के साथ अपराध भी होते रहते हैं। कई बार वे नगर निगम की गाड़ियों, बुलडोजर या क्रेन की चपेट में आ जाते हैं।
कूड़ा मजदूरों के प्रति सरकार और समाज की उपेक्षा के बीच कुछ संस्थाएं उन्हें संगठित करने और काम के लिए उन्हें बेहतर माहौल देने की कोशिश कर रही हैं। कूड़ा बीनने वालों और कबाड़ का रोजगार करने वाले लोगों के साथ काम करने वाली कुछ स्वयंसेवी संस्थाएं दिल्ली के होटलों और बीस हजार घरों का कूड़ा इकट्ठा कर उनकी छंटाई और पुनर्चक्रण का काम भोगपुरा के रिसाइक्लिंग प्लांट में करती हैं। इस की विशेषता यह है कि यहां काम करने वाले सभी दो हजार कर्मचारी महिलाएं हैं। एक सामाजिक कार्यकर्ता जय प्रकाश चौधरी ने बताया कि अगर कूड़ा बीनने वाले लोग काम करना बंद कर दें तो महानगरों में लोग सांस तक नहीं ले पाएंगे। इसके बावजूद सरकार और समाज उन्हें इंसान तक मानने को तैयार नहीं हैं।
‘जीरो वेस्ट सिटी’ यानी कूड़ा मुक्त शहर बनाने की बहस के क्रम में सरकार ने वेस्ट टू एनर्जी यानी कूड़े से बिजली पैदा करने वाले संयंत्र लगाने शुरू किए हैं। दक्षिणी दिल्ली के ओखला में यह संयंत्र पिछले चार सालों से काम कर रहा है। गाजीपुर डंपिंग यार्ड के ठीक बगल में एक ऐसा ही ‘इनसिनेरेटर प्लांट’ जल्द ही काम करना शुरू कर देगा, जिसमें कूड़े को जला कर बिजली उत्पादन की योजना है। लेकिन जानकारों की राय में भारत में ऐसे संयंत्रों को चलाने के लिए जो तैयारी चाहिए उसे पूरा नहीं किया गया है। छंटाई के बिना ही कूड़े को आग के हवाले किया जा रहा है।
जानकार मानते हैं कि कूड़े को जलाना कूड़े से मुक्ति पाने का सही तरीका नहीं है। ऐसे संयंत्रों की भट्ठियों से निकलने वाली गैसों में डायोक्सिन और फ्यूरान जैसे जहरीले तत्त्व पाए जाते हैं, जो कूड़े से पैदा होने वाले प्रदूषण से कहीं ज्यादा घातक है। यही वजह है कि पर्यावरणीय नियमों की अनदेखी और घटिया तकनीक के इस्तेमाल का आरोप लगाते हुए ओखला इनसिनेरेटर प्लांट के आसपास के लोगों ने संयंत्र को बंद कराने की मांग के साथ अदालत का दरवाजा भी खटखटाया। हाल ही में राष्ट्रीय हरित न्यायाधिकरण (एनजीटी) ने ठोस कूड़े की छंटाई करने वाले उपकरण नहीं लगाने की सूरत में संयंत्र को बंद तक करने की चेतावनी दे डाली।
दिल्ली स्थित विज्ञान और पर्यावरण से जुड़े मुद्दों पर शोध करने वाली संस्था सेंटर फॉर साइंस एंड एनवारयमेंट (सीएसई) के प्रबंधक निवित कुमार यादव मानते हैं कि इनसिनेरेटर प्लांट जैसे-तैसे काम कर रहे हैं और ठोस कूड़े को अलग नहीं करने के मसले पर एमसीडी और संयंत्र एक-दूसरे पर आरोप लगाते हैं। कुल कूड़े का साठ से सत्तर प्रतिशत हिस्सा गीला कूड़ा होता है और करीब बीस फीसद ठोस कूड़ा पुनर्चक्रण के लायक होता है। ऐसे में गीले कूड़े को खाद में तब्दील कर और ठोस कूड़े का पुनर्चक्रण कर करीब अस्सी फीसद हिस्से का निपटारा किया जा सकता है। दरअसल कूड़े की छंटाई और रिसाइकिलंग को प्राथमिकता देना ही कूड़ा प्रबंधन का बेहतर विकल्प है।
उधर, कूड़े पर निर्भर अहमद जैसे लोगों की चिंताओं को भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। गाजीपुर डंपिंग यार्ड के पहाड़ के नीचे बन रहे संयंत्र की ओर इशारा करते हुए अहमद कहते हैं कि अब तो इस कूड़े का भी सहारा नहीं बचेगा।

