जिस चुनाव के परिणाम आज आने वाले हैं उसको लेकर इतना हंगामा हुआ है बेमतलब बयानों की वजह से, बेतुकी बातों की वजह से कि बिहार के इस चुनाव की असली अहमियत खो-सी गई है शोर और हंगामे के बीच। अफसोस है कि इसका खमियाजा भुगतना पड़ेगा बिहार के लोगों को, जिन्होंने पूरी कोशिश की अपने राजनेताओं को समझाने की कि उनको नए किस्म की राजनीति चाहिए इस बार। परिवर्तन और विकास की राजनीति चाहिए जाति-धर्म की राजनीति के बदले।
जब भी मौका मिला नौजवान बिहारियों को अपनी बात रखने का, उन्होंने स्पष्ट शब्दों में कहा कि बिहार को जरूरत है रोजगार की, अच्छे स्कूलों, अच्छे अस्पतालों की, अच्छी सड़कों की। लेकिन उनके राजनेताओं ने उनकी बातों को अनसुना कर दिया। बड़े-बड़े टीवी एंकर पहुंच गए पटना चुनाव अभियान के शुरू होते ही और मौर्य होटल के सुहाने माहौल में बिहार के राजनेताओं से लंबे-लंबे इंटरव्यू करने लगे। राजनेताओं ने मुफ्त प्रचार का मौका देखा और अपने घिसे-पिटे विचारों को दोहराने में लग गए। यानी नहीं आने देंगे बाहरियों को, नहीं आने देंगे गुजरात के नरभक्षियों को, आदि। बिहार के लोगों की आवाज दब गई।
इस देश के हर राज्य को जरूरत है परिवर्तन और विकास की और यही वजह है कि नरेंद्र मोदी को तीस वर्ष बाद प्रधानमंत्री बनाया मतदाताओं ने पूरा बहुमत देकर। लेकिन जितनी जरूरत बिहार को है परिवर्तन और विकास की, शायद ही किसी अन्य राज्य को होगी। यह कह रही हूं यकीन से, क्योंकि मेरा रिश्ता बिहार के साथ बहुत पुराना है। पहली बार आई थी यहां पत्रकार बन कर 1982-83 में- भागलपुर जाकर उन नौजवानों का हाल मालूम करने, जिनको पुलिसकर्मियों ने अंधा किया था उनकी आंखों में तेजाब डाल कर।
इस तरह की बर्बरता आम थी बिहार में उन दिनों, बंधुआ मजदूर आम थे, बच्चों का शोषण आम था और गुरबत ऐसी थी, जिसको देख कर शर्म आती थी भारतीय होने पर। तब से लेकर आज तक फर्क आया तो है, लेकिन ऐसा नहीं जितना आना चाहिए था। सो, मुसहरों की बस्तियों में आज भी वैसी गुरबत देखने को मिलती है, जो मैंने अस्सी के दशक में देखी थी। यह भी सच है कि जितने लोग बिहार से पलायन करते हैं महानगरों में रोजगार ढूंढ़ने के लिए, उतने शायद ही किसी दूसरे राज्य से करते होंगे। सो, बेहाल है बिहार आज भी, बहुत बेहाल।
इतना बेहाल कि कई राजनीतिक पंडितों का मानना है कि पिछले पच्चीस वर्षों से जो श्री और श्रीमती लालू यादव और नीतीश कुमार का राज रहा, वह ऐसा समय रहा है जो बेकार गया बिहार के लिए विकास और परिवर्तन की दृष्टि से। महागठबंधन के समर्थक भी मानते हैं कि लालू राज में विकास शब्द ही गायब हो गया था बिहार के शब्दकोश से, लेकिन साथ में यह भी दावा करते हैं कि नीतीश ने बिहार के लिए बहुत काम किया है। इस बार जब चुनाव देखने गई तो पटना से ऐसा ड्राइवर मिला, जो नीतीश कुमार का पक्का समर्थक था। सो, जब भी किसी नए पुल के ऊपर से गुजरे हम या किसी अच्छी सड़क से, मेरा वह साथी बताना नहीं भूलता था कि ‘ये जो पुल है न, ये जो सड़क है, ये नीतीश कुमार ने ही बनवाई थी’।
इसके बावजूद बिहार के इस दौरे में मैंने देहातों में ऐसी गुरबत देखी, जो भारत के अन्य राज्यों में इन दिनों कम ही देखने को मिलती है। ऐसे स्कूल देखे, जिनमें बच्चों के लिए न बैठने का इंतजाम था, न किताबें, न दीवारों पर बच्चों की बनाई हुई तस्वीरें, जो हर स्कूल की पहचान हैं। दलित बस्तियां देखने को मिलीं, जिनकी गंदगी, जिनकी गुरबत ने मुझे शर्मिंदा किया।
कहना यह चाहती हूं कि अगर काम किया है नीतीश कुमार ने तो उतना नहीं, जितना होना चाहिए था और यही कारण है कि जब प्रधानमंत्री ने बिहार में अपनी पहली आमसभा में विकास और परिवर्तन की बातें की, तो लोगों को बहुत अच्छा लगा। विकास को प्राथमिकता नीतीश कुमार ने भी दी अपने शुरुआती भाषणों में, लेकिन फिर जब लालू यादव ने बीफ को घसीटा अपने उस भाषण में जिसमें उन्होंने यह कहा कि हिंदू भी गोमांस खाते हैं, तो विषय ऐसा बदल डाला कि वापस विकास पर आया ही नहीं। साथ में शुरू हो गए राजनेताओं के एक-दूसरे पर व्यक्तिगत हमले, सो जब किसी ने जंगल राज की बात की, तो लालू ने नरभक्षियों की बातें शुरू कर दी तो और माहौल बिगड़ता गया, यहां तक कि प्रधानमंत्री खुद कूद पड़े जातिवाद की उबलती कड़ाही में अपने आप को पिछड़ी जाति का कह कर।
देखते-देखते राजनीतिक बहस वापस उन्हीं मुद्दों पर जा पहुंची, जिन्होंने बिहार को आगे बढ़ने से दशकों से रोक रखा है। और हम राजनीतिक पंडित जो कुदरती सेक्युलर मिजाज के होते हैं, हम भी लग गए महागठबंधन की जीत की भविष्यवाणी करने में। आज पता लगेगा कि हमारा कितना असर रहा और कहां तक हम सफल हुए बिहार के असली मुद्दों को धूल में मिलाने में।
प्रधानमंत्री के दुश्मन काफी दिनों से कहते आए हैं कि बिहार में हारेंगे अगर, तो सबसे ज्यादा नुकसान होगा निजी तौर पर नरेंद्र मोदी की छवि को। साबित हो जाएगा कि मोदी लहर खत्म हो गई है। दुख की बात तो यह है कि अगर नई विकास और परिवर्तन की राजनीति घुटने टेक देती है पुरानी जातिवाद, हिंदू-मुसलिम राजनीति के आगे, तो सबसे ज्यादा नुकसान होगा बिहार का। इसलिए कि बिहार हर तरह से देश के अन्य राज्यों के पीछे चल रहा है। बिहार के इस चुनाव में असली लड़ाई थी बिहार के भविष्य और बिहार के अतीत के बीच। इसलिए यह चुनाव गुजरे चुनावों से बिल्कुल अलग था।