रोहित कुमार

बुद्ध ने कहा- सर्वम दुखम। दुख सर्वत्र है। जीवन में दुख ही दुख हैं। बाबा तुलसी दास ने तो सारे दर्शनों का निचोड़ दिया कि ‘जनमत मरत दुसह दुख होई’। पैदा होते ही दुख का सामना करना पड़ता है। मरते समय तक करना पड़ता है।

इसी दुख से तो मुक्ति चाहता है हर मनुष्य। दुख से मुक्ति हो सकती है, होती है। बुद्ध ने यह भी कहा कि दुख का कारण है, इसलिए दुख का निवारण है। हर दुख के पीछे कोई न कोई कारण अवश्य होता है। बिना कारण के तो इस ब्रह्मांड में कुछ भी नहीं होता। उसी तरह हर दुख का कारण है। उनमें से ज्यादातर कारणों को हम पहचानते हैं। हम जानते हैं कि हमारे किस दुख का क्या कारण है। और जब कारण पता है, तो उसका समाधान मुश्किल तो नहीं। उस कारण को समाप्त कर सकते हैं। इसीलिए बुद्ध ने कहा कि दुख का निवारण है।

दुख का निवारण तो हर कोई चाहता है। सुख हर किसी को चाहिए। दुख में कोई नहीं जीना चाहता। मगर दुख-निवारण के रास्ते का चुनाव करने में ही सारी गड़बड़ शुरू हो जाती है। हर कोई अपने-अपने ढंग से निवारण करने का प्रयास करता है। तमाम साधना पद्धतियां, ज्योतिष, तंत्र आदि उसी के लिए बनाए रास्ते हैं। प्राय: लोग सबसे आसान रास्ते की तरफ मुड़ जाते हैं।

वह आसान रास्ता चार्वाकों का दिखाया हुआ है। चार्वाकों का सिद्धांत ही है, जब तक जियो सुख से जियो, चाहे कर्ज लेकर ही क्यों न पीना पड़े, घी पीओ। उनका यह सिद्धांत आज भी हमारे समाज में हर किसी की जुबान पर बसा हुआ है। चार्वाकों की परंपरा अब घोषित रूप से तो रही नहीं, उनका कोई पंथ नहीं, कोई मठ, कोई धारा नहीं, उनका सारा साहित्य कथित रूप से नष्ट कर दिया गया, पर सुखवाद को लेकर उनके दिए सिद्धांत अब भी जीवित हैं। कई बार तो शक होता है कि चार्वाकों का जैसा जीवन था, क्या कभी उन्होंने व्यवस्थित रूप से कोई साहित्य लिखा भी होगा, कोई धारा विकसित करने का प्रयास किया भी होगा।

जिस तरह का जीवन उन्होंने अपनाया, उसमें साहित्य रचना बस जुबानी जुमले के रूप में ही संभव था। वही किया होगा उन्होंने, इसलिए उनके कुछ जुबानी जुमले ही उपलब्ध हैं। और लगता नहीं कि इससे अधिक कुछ उन्होंने रचा होगा, कुछ रच कर उन्होंने अपने समय के प्रचलित दर्शनों का प्रतिकार किया होगा। इसलिए यह भी कहा जा सकता है कि चार्वाक कोई पंथ या धारा नहीं, बल्कि समाज में व्याप्त एक सनातन प्रवृत्ति है।

खैर, चार्वाकों के दुख-निवारण का तरीका इतना आकर्षक है कि बुद्ध सहित तमाम दार्शनिकों के सुझाए पथ उसके सामने फीके पड़ जाते हैं। यहीं से लोगों का विचलन शुरू होता है। समाज के अधिकतर लोग सुख की तलाश चार्वाक पद्धति से ही करने का प्रयास करते हैं। चार्वाकों ने चार में से केवल दो पुरुषार्थों को माना- अर्थ और काम। कमाओ, खाओ-पीओ, ऐश करो।

मोक्ष को वे मानते नहीं। उनके अनुसार जो कुछ है, इसी जगत में है, परलोक जैसी कोई चीज है नहीं। फिर, धर्म तो मनुष्य को भरमाने और ठगी के तंत्र में फंसाने का माध्यम है, इसलिए उसमें विश्वास ही न करो। आप ध्यान दें कि बाद में जो भौतिकवादी सिद्धांत विकसित हुए, उनके मूल में भी चार्वाकों का यही दर्शन निहित दिखाई देता है। दरअसल, सुख के साधन जुटाने को लेकर जो विचार चार्वाकों ने प्रकट किया, वह कोई एकदम नया नहीं था।

वह दरअसल, मनुष्य के मस्तिष्क में सृष्टि के समय से ही संचित है शायद। इसलिए कि मनुष्य की मूल प्रवृत्तियां एक-सी हैं। इसलिए सुख को साधना के बजाय भौतिक साधनों के माध्यम से अर्जित करना ज्यादा आकर्षक मार्ग जान पड़ता है। साधना में त्याग पर बल है, इसलिए वह मनुष्य की मूल प्रवृत्तियों से मेल नहीं खाता और लोग दुख के निवारण के लिए रास्ता बदल लिया करते हैं।

मगर इस सच्चाई की तरफ कम ही लोगों का ध्यान जाता है कि दुख कोई स्वतंत्र चीज नहीं है, वह सुख के भीतर से ही पैदा होता है। जिसे हम आम धारणा के तहत सुख मानते हैं, दुख का जन्म उसी के भीतर से होता है। जिस सुख की तलाश हम करते हैं, उसे पाने के लिए अथक भागते फिरते हैं, उसे पा जाने के बाद चिंता शुरू हो जाती है कि वह बना रहे, बचा रहे। फिर उसे बचाने और बनाए रखने में जो दुख उपजता है, वह बढ़ता ही जाता है।

भौतिक सुखों, जिसमें शरीर का सुख, जिह्वा का सुख शामिल है, दरअसल उसकी प्रकृति स्थायी है ही नहीं। वे सारे सुख मन की चंचलता के खेल हैं। जैसे ही कोई सुख हम पा लेते हैं, मन तुरंत उससे असंतुष्ट हो जाता है, तुरंत उससे अधिक, उससे बेहतर सुख पाने को लालायित हो उठता है। फिर हम उस सुख को बचाए-बनाए रखने, बढ़ाते रहने की कोशिशों में जुट जाते हैं। फिर तो दुखों का कोई अंत नहीं।

भौतिक सुखों की सारी दौड़ धन की दौड़ में निहित है। धन अर्जित करने के बहुत सारे रास्ते हैं। पर अधिक धन पाने की लालसा हमेशा अनैतिक मार्गों का वरण करती है। तमाम घपले, घोटाले, तमाम अनियमितताएं, दुनिया का सबसे बड़ा अमीर बनने की आकांक्षाएं बिना अनैतिकता के संभव ही नहीं। जो जितना बड़ा अनैतिक है, उसके उतना ही बड़ा धनिक बनने की संभावना हो सकती है।

फिर अमीरी के शीर्ष पर पहुंच कर तो उसकी सुरक्षा करने को लेकर कितने दुख उपजते होंगे, कोई अंदाजा नहीं लगाया जा सकता। हमें लगता है कि दुनिया का सर्वोच्च सुख मिल गया, मगर दुख फिर भी मिटा तो नहीं। उस सुख की रक्षा में न जाने कितने दुख झेलते जा रहे हैं। जितने अधिक सुख के सरंजाम होंगे, दुखों की कंटीली पैदावार भी उतनी ही लहलहाती जाएगी। चुनाव तो हमारा ही है, जिसे सुख मान रहे हैं, उसे कितनी देर तक भोगना है, कितनी देर भोग सकते हैं, सोच कर देखें।