देश में इन दिनों एक ओर युवा भारी भरकम डिग्रियां लेकर बेरोजगार घूम रहे हैं और दूसरी ओर केंद्र और विभिन्न राज्य सरकारों में लाखों सरकारी कर्मचारियों की जरूरत है। सृजित पद तक खाली हैं। और तो और सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट तक में जजों तक के पद खाली पड़े हैं। अक्सर यह दलील दी जाती है कि सरकारी कर्मचारियों की पर्याप्त संख्या में भर्ती न कर पाने का कारण सरकार के पास धन का अभाव होना है। यह दलील न केवल हास्यास्पद है बल्कि हकीकत से बिल्कुल उलट है। सरकारों ( विशेष रूप से राज्य सरकारों) के पास धन की कमी का एक बड़ा कारण यह है कि अधिकांश सरकारी विभागों में भारी संख्या में अधिकारियों और कर्मचारियों के पद खाली पड़े हैं।
हाल ही में, उत्तराखंड में भीषण दावानल में अरबों रुपए की वन संपदा जल कर स्वाहा हो गई। हर साल उत्तराखंड के जंगलों से अरबों रुपए की वन संपदा तस्करों द्वारा चुरा ली जाती है या जलकर नष्ट हो जाती है। इसका एक बड़ा कारण यह है कि उत्तराखंड के वन विभाग में हजारों वन रक्षकों के पद खाली हैं। एक वन रक्षक के एक वर्ष के वेतन भत्तों पर मुश्किल से पांच-छह लाख रुपए का खर्च आता है, जबकि एक वन रक्षक की कमी से जो वन संपदा नष्ट होती है उससे सरकार को उसके वेतन भत्तों की तुलना में कई गुना अधिक राजस्व की हानि होती है।
इसी तरह एक डॉक्टर के वेतन पर सरकार जितना खर्च करती है उसकी तुलना में एक डॉक्टर की कमी से उस क्षेत्र के लोगों के स्वास्थ्य पर होने वाला खर्च कई गुना बढ़ जाता है। डॉक्टरों की कमी से साधारण सी बीमारियां, जटिल बीमारियों में बदल जाती हैं। स्वस्थ व्यक्ति एक मानव संसाधन के रूप में सरकार के खजाने को भरने में अपना योगदान देता है तो बीमार व्यक्ति सरकार के खजाने से उल्टे कुछ लेता है। डॉक्टरों और नर्सों की भारी कमी के कारण ही सरकारी अस्पताल गुणवत्तापूर्ण चिकित्सा सेवाएं देने में सक्षम नहीं हैं। नतीजतन, निजी इलाज इतना महंगा है कि हर साल लाखों लोग गंभीर रूप से बीमार पड़ने पर अपना खेत, मकान बेचने या गिरवी रखने को मजबूर हो जाते हैं और गरीबी रेखा के आसपास पहुंच जाते हैं।
यही बात पुलिसकर्मियों के बारे में भी कही जा सकती है। एक पुलिसकर्मी की कमी से इतने अपराध, दुर्घटनाएं होती हैं, जिससे मुकदमेबाजी बढ़ जाती है और इससे इतनी ज्यादा आर्थिक हानि होती है कि इसकी तुलना में एक पुलिसकर्मी का वेतन कुछ भी नहीं है। यह एक सच्चाई है कि आबादी के अनुपात में पुलिसकर्मियों की तादाद जितनी कम होगी, अपराधों और दुर्घटनाओं की संख्या उतनी ही ज्यादा होगी। 2015 में करीब एक लाख सैंतालीस हजार लोग सड़क दुर्घटनाओं में मारे गए। इतने बड़े पैमाने पर लोग न मरते अगर देश में पुलिसकर्मियों की भारी कमी न होती।
हमारे देश में प्रति एक लाख की आबादी पर करीब 111 पुलिसकर्मी हैं जबकि वैश्विक औसत प्रति लाख पर 222 का है। यानी कि लाखों पुलिसकर्मियों की भर्ती की गुंजाइश है। इसी तरह कानून आयोग की सिफारिश के मुताबिक प्रति दस लाख की आबादी पर पचास जजों की जरूरत है, जबकि अभी देश में यह अनुपात करीब तेरह है। यही हाल अध्यापकों का भी है। अध्यापकों की भारी कमी छात्रों को महंगी कोचिंग लेने को मजबूर करती हैं, जबकि विडंबना यह है कि बीएड प्रशिक्षित बेरोजगारों के धरने प्रदर्शन की खबरें अखबारों में अक्सर आती रहती हैं। आइएएस अधिकारियों की कमी का तो यह हाल है कि कई राज्यों में एक-एक अधिकारी के पास कई-कई विभागों की जिम्मेदारी है। नतीजतन, ये अधिकारी किसी भी विभाग पर सही से नजर नहीं रख सकते। नतीजा यह निकलता है कि विभागों में अव्यवस्था और भ्रष्टाचार का बोलबाला हो जाता है।
हमारे देश में प्रति एक लाख की आबादी पर जितने केंद्रीय कर्मचारी हैं, उसकी तुलना में अमेरिका में प्रति एक लाख की आबादी पर केंद्रीय कर्मियों की संख्या पांच गुना है। यह हाल तब है जब अमेरिका तकनीक और कंप्यूटर का इस्तेमाल सबसे ज्यादा करने वाले देशों में शामिल है। अब सवाल यह उठता है कि जब अधिकारियों और कर्मचारियों की कमी आर्थिक रूप से भी घाटे का सौदा है तो इनकी भर्ती क्यों नहीं की जाती? इसका जवाब यह है कि राजनीति का भ्रष्टाचार के साथ गठजोड़ नहीं चाहता कि विभागों में पर्याप्त संख्या में अधिकारी और कर्मचारी हों।
क्या मिलावट माफिया चाहेगा कि दवा निरीक्षक और खाद्य निरीक्षक पर्याप्त संख्या में हों ? क्या लकड़ी माफिया चाहेगा कि वन रक्षक पर्याप्त संख्या में हों? क्या अवैध खनन माफिया चाहेगा कि पुलिसकर्मी पर्याप्त संख्या में हों? यह एक सच्चाई है कि जिस विभाग में स्टाफ की जितनी ज्यादा कमी होगी, उस विभाग में भ्रष्टाचार उतना ही ज्यादा होगा । क्योंकि अधिकारियों की कमी से विभागों पर सही से नजर नहीं रखी जा सकती तो कर्मचारियों की कमी से नियम, कानूनों और कर्तव्यों का सही से पालन नहीं करवाया जा सकता। दूसरे शब्दों में पर्याप्त संख्या में स्टाफ का होना भ्रष्टाचार के खिलाफ जाता है। इसका दूसरा कारण यह है कि निहित स्वार्थी तत्त्व चाहते हैं कि ज्यादा से ज्यादा पैसा उन भारी भरकम योजनाओं में लगाया जाए, जिनमें पारदर्शिता और जवाबदेही कम है और जो गरीबों के कल्याण के नाम पर चलाई जाती है। हकीकत यह है कि देश में गरीबी का एक बड़ा कारण ही सरकारी कर्मचारियों की कमी है।