पांडुरंग शास्त्री आठवले का जन्म 19 अक्तूबर, 1920 को महाराष्ट्र के रोहा में ब्राह्मण परिवार में हुआ था। दार्शनिक, आध्यात्मिक नेता, समाज सुधारक और हिंदू धर्म में सुधारों के पैरोकार के रूप में पहचान रखने वाले आठवले को दादा-जी के नाम से भी जाना जाता था, जिसे मराठी में बड़े भाई कहा जाता है।
उन्होंने 1954 में स्वाध्याय आंदोलन और स्वाध्याय परिवार संगठन (स्वाध्याय परिवार) की स्थापना की थी, जो श्रीमद्भगवद्गीता पर आधारित एक आत्म-ज्ञान आंदोलन है। यह आंदोलन भारत के लगभग एक लाख गांवों में फैल गया। वह संस्कृत शिक्षक वैजनाथ आठवले और पार्वती आठवले की पांच संतानों में से एक थे। उन्हें श्रीमद्भगवद्गीता और उपनिषदों पर प्रभावी प्रवचनों के लिए भी जाना जाता है।
आठवले ने युक्तिपूर्वक वेदों, उपनिषदों तथा हिंदू संस्कृति की आध्यात्मिक शक्ति को पुनर्जागृत किया और आधुनिक भारत के सामाजिक रूपांतरण में उस ज्ञान तथा विवेक का प्रयोग संभव बनाया। धार्मिक प्रवृत्तियों से परिपूर्ण पांडुरंग के परिवार में विद्वत्ता की परंपरा थी और उसी को आगे बढ़ाते हुए उन्होंने भी संस्कृत भाषा का ज्ञान प्राप्त किया। इसके बाद वह हिंदू ग्रंथों के अध्ययन में लीन हो गए।
उन्होंने 1942 में श्रीमद्भगवद्गीता पाठशाला में प्रवचन देना शुरू किया, जो 1926 में उनके पिता द्वारा स्थापित की गई थी। आठवले ने 14 सालों तक रायल एशियाटिक लाइब्रेरी में पढ़ाई की। उन्होंने हर गैर-काल्पनिक साहित्य को पढ़ा और समझा। वर्ष 1954 में उन्होंने जापान में आयोजित द्वितीय विश्व दार्शनिक सम्मेलन में भाग लिया। वहां आठवले ने वैदिक आदर्शों और श्रीमद्भगवद्गीता की शिक्षाओं की अवधारणा प्रस्तुत की। पांडुरंग ने श्रीमद्भगवद्गीता पर आधारित स्वाध्याय आंदोलन चलाया। उन्होंने स्वाध्याय से अनुभव और परिपक्वता का संबंध जोड़ते हुए समाज की कई समस्याओं का हल प्रस्तुत किया।
वर्ष 1954 में पांडुरंग को जापान में विश्व धर्म सम्मेलन में भाग लेने का अवसर मिला। इस सम्मेलन में ही उन्होंने वैदिक ज्ञान तथा जीवन दर्शन के महत्त्व पर व्याख्यान दिया और उसे अपनाने पर जोर दिया। पांडुरंग ने 1956 में एक विद्यालय भी शुरू किया, जिसका नाम तत्त्व ज्ञान विद्यापीठ रखा। इस स्कूल में उन्होंने भारत के आदिकालीन तथा आधुनिक पाश्चात्य ज्ञान, दोनों का समन्वय रखा।
उन्होंने लगातार समाज के विभिन्न वर्गों से मुलाकात जारी रखी और यह आदर्श स्थापित करने की कोशिश की कि लोग अपने व्यस्त जीवन से कुछ समय निकाल कर ईश्वर का ध्यान करें और भक्ति भाव अपनाएं। आठवले का स्वाध्याय आंदोलन लगातार फैलता गया और उनके अनुयायियों की संख्या बढ़ती चली गई। वर्ष 1964 में पोप पाल चतुर्थ भारत आए तो दादा-जी से उनके दर्शन पर चर्चा की।
स्वाध्याय आंदोलन का असर ऐसा हुआ कि कितने ही लोगों ने शराब पीनी छोड़ दी। जुआ खेलना बंद कर दिया। गांवों की संस्कृति बदलने लगी। साफ-सफाई के प्रति लोग जागरूक हुए। अस्पृश्यता जैसी भावना कम हुई। उन्होंने विभिन्न सहकारी खेती, मछली पकड़ने और पौधरोपण जैसी परियोजनाएं शुरू कीं।
स्वाध्याय आंदोलन पूरे विश्व में पाया जाने वाला एक दर्शन है। इसके सदस्यों को स्वाध्यायी कहा जाता है। स्वाध्याय परिवार में समाज के सभी वर्गों से लोग आते हैं, कई स्वाध्यायी जो पूरे भारत और दुनिया भर में आठवले के विचारों को फैला रहे हैं, उन्हें कृतिशील के रूप में जाना जाता है। इस परिवार ने लगभग एक लाख भारतीय गांवों में जाति, सामाजिक और आर्थिक आधार पर समानता और भगवान के प्रेम के संदेश को पहुंचाया। स्वाध्याय आंदोलन का असर अमेरिका, एशिया और अफ्रीका के कई देशों में देखा जा सकता है।
आठवले ने युक्तिपूर्वक वेदों, उपनिषदों तथा हिंदू संस्कृति की आध्यात्मिक शक्ति को पुनर्जाग्रत किया तथा आधुनिक भारत के सामाजिक रूपांतरण में उस ज्ञान तथा विवेक का प्रयोग संभव बनाया। आठवले को वर्ष 1988 में महात्मा गांधी पुरस्कार, धर्म के क्षेत्र में उन्नति के लिए सन 1997 में टेम्पल्टन पुरस्कार और सामुदायिक नेतृत्व के लिए 1999 का मैग्सेसे पुरस्कार प्रदान किया गया। वर्ष 1999 में ही भारत सरकार ने दादा पाण्डुरंग को पद्म विभूषण से सम्मानित किया। उनके जीवन और कार्यों पर फिल्म और वृत्तचित्र भी बने हैं।
दार्शनिक के रूप में सम्मानित दादाजी का 25 अक्तूबर 2003 को दोपहर 12:30 बजे दक्षिण मुंबई में निधन हो गया। उनके अंतिम संस्कार में लगभग दस हजार लोग मौजूद थे। उनकी अस्थियां उज्जैन, पुष्कर, हरिद्वार, कुरूक्षेत्र, गया, जगन्नाथ पुरी और रामेश्वरम में विसर्जित की गईं।