रोहित कुमार
दूसरों के दुख से सुख का रस खींचने वाले सदा से रहे हैं। बल्कि समाज में ऐसे लोगों की तादाद लगातार बढ़ती गई है। ऐसे दुख से सुख सोखने वालों का व्यवहार तकलीफ ही देता है। कई तो ऐसे मिल जाते हैं, जो अनेक आशंकाएं, अनेक पीड़ा पहुंचाने वाले प्रसंग सुना कर आपका दुख दूना कर देते हैं। इसीलिए दूसरों के सामने अपने दुख के प्रकटीकरण से बरजा गया।
दुख खुद ही झेलना पड़ता है। उसका निराकरण भी खुद करना पड़ता है। दुनिया में कोई ऐसा नहीं, जिसे कोई दुख नहीं, जिसने दुख कभी नहीं झेला। बुद्ध ने कहा कि संसार में दुख है। इसे गांव के साधारण, सीधे-सादे लोग कह देते हैं कि संसार दुखों का घर है। यानी, दुख से मुक्ति किसी को नहीं। उसे और उसके साथ जीने का सलीका भी सीख लेना चाहिए। दुख केवल पीड़ा नहीं देता। अगर, उसे सहज ढंग से स्वीकार कर लिया और जीया जाए तो सुख के रास्ते भी वहीं से निकलते हैं।
बुद्ध ने कहा कि दुख है तो उसका समाधान भी है। कवि ने कहा कि ‘दुख सबको मांजता है’। मांजना यानी साफ करना, चमकना। आपको हैरानी हो सकती है कि दुख भला कैसे जीवन में चमक पैदा कर सकता है। दुख तो मन को मलिन ही करता है। मांजेगा भला कैसे। मगर यह सच्चाई है कि दुख भी जीवन को निखारता है। अगर दुख को स्वीकार कर लें, तो उसका कारण समझ आ जाता है, फिर उस कारण का समाधान भी मिल जाता है। इस तरह वह दुख फिर से नहीं उपजता।
दुख है क्या। हमारी अनपेक्षित इच्छाएं ही तो। हम जो नहीं चाहते वह घटित हो जाए तो दुख उपजता है। या फिर, जो हम चाहते हैं, वह न हो पाए तो दुख उपजता है। ये दोनों स्थितियां मनुष्य के जीवन में हर समय मौजूद रहती हैं। इसलिए दुख उपजता ही रहता है। हमने चाहा कि बच्चे आज्ञाकारी हों, खूब पढ़ें-लिखें, बड़ा ओहदा पाएं और वह सब कुछ करें जो हम नहीं कर पाए, हमारे लिए दुनिया के सारे सुख-साज जमा कर लाएं। मगर वे हमारी इच्छा की परवाह किए बिना, अपनी इच्छा से जीना शुरू कर देते हैं। बस दुख उपज गया। हर पल उपजने लगा। जैसे-जैसे हमारे बच्चे अपनी इच्छा से जीते जाते हैं, हमारा दुख बढ़ता जाता है। ऐसी तमाम इच्छाएं स्खलित होती रहती हैं और हमारे दुख बढ़ते जाते हैं।
हममें से ज्यादातर लोग ऐसे दुख को पोसते रहते हैं। उस दुख को पाले रहते हैं। उसी में आनंद लेना शुरू कर देते हैं। जो भी निकट का है, जरा भी जान-पहचान का है, उसके आगे अपना दुख खोल बैठते हैं। समाज भी हमें समझाता रहता है कि बांटने से दुख कम होता है। इसलिए अपने बच्चों के अपने ढंग से जीने लगने को उनकी नालायकियत बता कर लोगों के बीच अपने को श्रेष्ठ साबित करने का प्रयास करते रहते हैं। तब हम भूल जाते हैं कि ‘सुनि इठलैहें लोग सब बांटि न लैहें कोय’।
बच्चों को नालायक बता कर हम तो यह महसूस करने लगते हैं कि हमारा दुख कुछ कम हो गया, मगर हकीकत यही है कि सुनने वाला न तो आपके बच्चों को आपके इच्छित रास्ते पर चलना सिखा सकता है और न आपकी वे सारी इच्छाएं पूरी कर सकता है, जिन्हें आपने मन में पाल रखी हैं। दूसरे तो आपके बच्चों का बिगड़ना सुन कर मन ही मन आनंदित होते रहते हैं। उनमें से कुछ ऊपर-ऊपर बेशक अपने या दूसरों के बच्चों का भी उदाहरण देकर आपको सांत्वना देने का प्रयास करें कि ऐसा दुख भोगने वाले आप अकेले नहीं हैं, पर वे भी सही अर्थों में आपके दुख से सुख ही सोखते हैं।
ऐसे दुखों के प्रकटीकरण से एक दुष्प्रभाव यह भी पड़ता है कि बच्चे आपसे दूर होते जाते हैं। फिर आपका दुख और बढ़ता जाता है। दोनों के बीच एक नकारात्मक तरंग सदा लहराती रहती है। आप बच्चों के बारे में नकारात्मक सोचते हैं, तो वे भी आपकी कमियों पर ही नजर बनाए रखते हैं। फिर यह कहावत चरितार्थ होती नजर आने लगती है कि जिस घर में मन नहीं मिलते उसमें सुख का वास कभी नहीं होता। तुलसी दास भी कह गए कि ‘जहां सुमति तंह संपति नाना, जहां कुमति तंह विपति निधाना’। यह नकारात्मक तरंगों के पैदा होने से ही होता है।
वैज्ञानिक भी इस बात को सिद्ध कर चुके हैं। जहां नकारात्मक तरंगें पैदा होती हैं, वहां रहने वालों के भीतर ऊर्जा का क्षरण होता रहता है। हर वक्त नकारात्मक वातावरण कुछ सकारात्मक करने की दिशा ही अवरुद्ध कर देता है। इसलिए अपने मन का दुख कम करने के लिए जब भी दूसरों से साझा करने की सोचें, तो उस पर खूब सोचें। कहीं आपका दुख कम होने के बजाय बढ़ तो नहीं रहा।
ऐसे अपने शरीर की व्याधियों को लेकर चर्चा करना आम बात है। जब भी किसी से उसका हालचाल पूछिए, वह अपनी किसी न किसी व्याधि का बखान करना शुरू कर देता है। सुनने वाला थोड़ी सहानुभूति जरूर प्रकट करता है, पर उसे सुन कर बहुत अच्छा नहीं लगता। वह न तो उस व्याधि का उपचार कर सकता है और न सुन कर उसे कम कर सकता है। व्याधि का उपचार तो चिकित्सक ही कर सकता है, उससे अगर इस संबंध में बात करें, तो लाभ भी मिल सकता है।
हां, यह जरूर होता है कि जिससे अपनी व्याधि की चर्चा करते हैं, वह एक नई दवा, एक नया उपचार सुझा देता है। भारत जैसे देश में चिकित्सा की इतनी पद्धतियां हैं और हर किसी को व्याधियों का इतना अनुभव है कि हर किसी के पास व्याधियों का उपचार मौजूद रहता है। झाड़-फूंक, आयुर्वेद, होम्योपैथ से लेकर अंग्रेजी चिकित्सा पद्धति तक के सलाहकार हर जगह मिल जाया करते हैं। अक्सर लोग ऐसी सलाहों से भ्रमित होते हैं। उन पर अमल करके लोग कई बार रोग को बढ़ा लेते हैं।