फिल्मी दुनिया में फिल्मों की कड़ी (सीक्वेल) बनाने का चलन काफी पुराना है। यों तो तो तमाम भाषाओं में ऐसी फिल्में बनती रही हैं, मगर बांग्ला में इसका काफी जोर रहा। सत्यजीत रे की अपू त्रयी विख्यात रही है। ‘पथेर पांचाली’ (1955), ‘अपराजितो’ (1956)और ‘द वर्ल्ड आॅफ अपू’ (1959) ही नहीं, रे फेलुदा सीरीज फिल्मों के अलावा ‘गूपी गायन बाघा बायन’ (69), ‘हीरक राजार देशे’ (1980) ‘गूपी बाघा फिरे एलो’ (82) भी बनाई। सत्तर के दशक में जब कोलकाता में बदलाव की बयार बह रही थी तो रे ने तीन फिल्मों कीशृंखला ‘प्रतिद्वंद्वी’, ‘सीमाबद्ध’ और ‘जन अरण्य बनाई’। मृणाल सेन ने भी कोलकाता पर तीन फिल्मों की शृंखला- ‘इंटरव्यू’ (1971), ‘कलकत्ता 71’ (1971) और ‘पदातिक’ बनाई। हॉलीवुड की जेम्स बांड फिल्मों की शृंखला की तरह ही कोलकाता में फेलुदा शृंखला की दस फिल्में बनी, जिनमें से सात फिल्मों में तो सव्यसाची चक्रवर्ती ने काम किया।

बॉलीवुड में सत्तर के दशक में जब मिठुन चक्रवर्ती डिस्को डांसर बनकर उभरे तो 1979 में ‘सुरक्षा’ और 1981 में ‘वारदात’ बनी। श्रीदेवी अस्सी के दशक में नंबर वन हीरोइन थी, तो हरमेश मल्होत्रा ने 1986 में उन्हें लेकर हिट फिल्म ‘नगीना’ बनाई। मगर 1989 में उसी की सीक्वेल ‘निगाहें’ बुरी तरह से फ्लॉप साबित हुई। नागेश कुकुनूर ने फिल्मोत्सवों में सराही गई अपनी फिल्म ‘हैदराबाद ब्लू’ (1998) का दूसरा भाग ‘हैदराबाद ब्लू 2’ (2004) में बनाया। इसी तरह जब महेश मांजरेकर की अंडरवर्ल्ड डॉन छोटा राजन के जीवन पर बनी संजय दत्त अभिनीत ‘वास्तव’ (1999) हिट हुई तो उन्होंने संजय दत्त को लेकर 2002 में इसकी सीक्वेल ‘हथियार’ बनाई, मगर वह बुरी तरह से पिट गई।

सही माने में बॉलीवुड में अगर किसी फिल्मकार ने सीक्वेल फिल्मों को ऊंचाई दी तो वह हैं राजकुमार हिरानी। पुणे फिल्म संस्थान से संपादन की पढ़ाई करके निकले हिरानी की मुन्नाभाई शृंखला की फिल्मों को सीक्वेल फिल्म नहीं कहा जा सकता। ‘मुन्नाभाई एमबीबीएस’ और ‘लगे रहो मुन्नाभाई’ में मुन्नाभाई के केंद्रीय चरित्र के अलावा कोई समानता नहीं थी। दोनों की कहानियां और विचार भिन्न होने के बावजूद उन्हें अच्छी सफलता और सराहना मिली।

बॉलीवुड में उल्लेखनीय सीक्वेल फिल्मों में राकेश रोशन की ऋत्विक रोशन अभिनीत ‘कोई मिल गया’ (2003), ‘कृष’ (2006) और ‘कृष 3’ (2013) काफी मशहूर रही। इसी तरह यशराज फिल्म्स से निकली ‘धूम’, ‘धूम 2’ और ‘धूम 3’ को भी बॉक्स आॅफिस पर अच्छी सफलता मिली। इन तीनों ही फिल्मों में सीक्वेल जैसा कुछ नहीं था। इसके अलावा अमिताभ बच्चन की मशहूर फिल्म ‘डॉन’ से प्रभावित होकर शाहरुख खान अभिनीत ‘डॉन’ (2006) और ‘डॉन 2’ (2011) बनाई गई। ‘रेस’ (2008) और ‘रेस 2’ () के साथ साथ ‘सरकार’ (2005) और ‘सरकार राज’ (2008) भी बनी, तो रोहित शेट्टी ने गोलमाल शृंखला की हिट फिल्में बनार्इं।

इन दिनों सीक्वेल फिल्मों की बहार आई हुई है। हॉलीवुड में इस साल डेढ़ सौ से ज्यादा सीक्वेल फिल्में बन रही हैं। जहां तक बॉलीवुड की बात है, हर दूसरी हिट फिल्म का निर्माता सीक्वेल बनाने के सपनों में डूबा हुआ है। सीक्वेल फिल्मों में विचार का विस्तार नजर नहीं आ रहा है बल्कि अपनी पिछली फिल्म की सफलता भुनाने की भेड़चाल ज्यादा दिखाई दे रही है। नतीजा, इन दिनों बॉलीवुड सीक्वेल की अंधी गली में फंस गया है। लोकप्रिय सितारों का मोहताज मुंबइया सिनेमा सीक्वेलों के चलते एक इंच आगे बढ़ने के लिए तैयार नहीं है।

फिल्मों के लिए नई कहानियां लिखनेवाले लेखकों के लिए यह माहौल उत्साहजनक नहीं है। नए विचार आ तो रहे हैं मगर उनका रकबा तेजी से सिकुड़ता जा रहा है। जानेमाने लेखक कमलेश मेहता मानते हैं कि स्थापित निर्देशक तक नई कहानियों पर फिल्में बनाने का जोखिम उठाने के लिए तैयार नहीं हैं और वे सुरक्षित विकल्प चुन रहे हैं। मेहता की बात काफी हद तक सही है। रोहित शेट्टी पर यह बात फिट हुई है।

शेट्टी एक्शन आधारित फिल्में बनाते हैं और कहानी पर उनकी पकड़ कमजोर है। उनकी ताजा फिल्म ‘दिलवाले’ से इसे समझा जा सकता है। हालात ऐसे बन गए हैं कि प्रकाश झा जैसे सुलझे हुए फिल्मकार तक सीक्वेल के असर से बच नहीं पाए हैं। उन्होंने अपनी फिल्म ‘गंगाजल’ की सफलता से प्रेरित होकर सीक्वेल के रूप में अपनी नई फिल्म ‘जय गंगाजल’ बनाई है। झा के मुताबिक,‘गंगाजल’ से ‘जय गंगाजल’ के दौरान पुलिस विभाग की कार्यप्रणाली में काफी फर्क आया है। हम उसे ही इस फिल्म में दिखाना चाहते हैं।’

आज हर दूसरा निर्माता अपनी सफलता को दोहराने के चक्कर में पड़ा है। बॉलीवुड में पहले कहानियां होती थीं, फिल्म बनाने के लिए पैसा नहीं होता था। अब फिल्म बनाने के लिए पैसा है मगर निर्माता को कहानी की जरूरत नहीं है। उससे ज्यादा जरूरी लोकप्रिय हीरो की तारीखें हैं क्योंकि उसके नाम से फिल्म बिक जाती है। लोकप्रिय सितारों पर निर्भरता का आलम यह है कि संजय दत्त के जेल जाने से मुन्नाभाई की सीक्वेल रुकी पड़ी है। कभी संजय दत्त के साथ साझेदारी में फिल्में बना चुके उनके मित्र संजय गुप्ता इंतजार कर रहे हैं कि दत्त जेल से बाहर आएं तो वह ‘कांटे’ की सीक्वेल शुरू करें। निर्माता बोनी कपूर ‘नो एंट्री’ की सीक्वेल (नो एंट्री में एंट्री) के लिए सलमान खान की तारीखों का बीते तीन सालों से इंतजार कर रहे हैं मगर सलमान खान की तारीखें नहीं मिल रही हैं। बोनी कपूर का सपना तो ‘मिस्टर इंडिया’ की सीक्वेल बनाने का भी है, जिसमें वह अनिल कपूर के बेटे हर्षवर्धन को मिस्टर इंडिया बनाना चाहते हैं।

आखिर मुंबइया फिल्मों के निर्माता सीक्वेल की दौड़ में क्यों लगे हैं? सालों से फिल्म कारोबार को देखते आ रहे कोमल नाहटा जैसे विश्लेषक यह मानते हैं कि सीक्वेल फिल्मों को पहले से तैयार एक दर्शक वर्ग मिलता है इसलिए निर्माता उसे सुरक्षित मानते हैं। काफी हद तक यह कारण सही है क्योंकि पहले की कड़ी हिट हो चुकी होती है, इसलिए दर्शक फिल्म के चरित्रों से परिचित होते हैं। यही कारण है कि ‘तेरे बिन लादेन’ की सफलता के बाद ‘तेरे बिन लादेन डेड आॅर अलाइव’ बनाई जा रही है, जबकि इस फिल्म का पिछली फिल्म से कोई लेना देना नहीं है। फिल्म के निर्देशक अभिषेक शर्मा कहते हैं ‘तेरे बिन लादेन डेड ऑर अलाइव’ को सीक्वेल नहीं कहा जा सकता क्योंकि इस फिल्म का ढांचा परंपरागत सीक्वेल की तरह नहीं है।

नब्बे के दशक के बाद ‘डीप पॉकेट’, वित्तीय तौर पर मजबूत, कॉरपोरेट कंपनियों के फिल्म जगत में सक्रिय होने से पैसों की तंगी कम हुई। ये कंपनियां निर्माता-निर्देशकों के साथ गठबंधन कर उनकी फिल्मों के लिए धन मुहैया करा रही हैं। फिल्म निर्माण और फिल्म कारोबार के लंबे अनुभव के अभाव के चलते इनमें से ज्यादातर कंपनियों ने सुरक्षित परियोजनाओं पर पैसा लगाने की रणनीति बनाई। इन कंपनियों के लिए सुरक्षित परियोजना का मतलब लोकप्रिय हीरो को लेकर बनी फिल्में हैं, जिनमें निवेश की वसूली फिल्म रिलीज से पहले ही होने की संभावना रहती है। या फिर ऐसी फिल्मों की सीक्वेल, जो पहले सुपर हिट होकर जांचा-परखा फॉर्मूला बन चुकी हों। दरअसल ये कंपनियां कहानी लिखाने को लेकर ज्यादा समय तक इंतजार करने के लिए तैयार नहीं हैं और पैसे को लगातार निवेश करते रहना चाहती हैं। ऐसी स्थिति में उनके लिए सीक्वेल फिल्मों में निवेश करना फायदेमंद है, क्योंकि उसकी पटकथा की बुनियाद तैयार रहती है।

एक वक्त था जब स्थापित मुंबइया निर्माता तीन चार सालों में एक फिल्म बनाता था। बीच बीच में कभी अपना दफ्तर चलाने के लिए एकाध ‘क्विकी’ (कम बजट और कम समय में बननेवाली) फिल्म बना लेता था। कॉरपोरेट कंपनियां इसी क्विकी फिल्म की तरह फिल्में बनाना चाहती हैं। बीते साल बनी सीक्वेल फिल्मों पर नजर डालने से साफ पता चलता है कि सीक्वेल फिल्मों में किन कंपनियों ने निवेश किया। मसलन ‘तनु वेड्स मनु रिटर्न्स’ में इरोज की कृषिक लुल्ला ने पैसा लगाया और फिल्म के निर्देशक आनंद एल राय को सह निर्माता बनाया। ‘अब तक छप्पन 2’ में दिवंगत पोंटी चड्ढा की कंपनी ने निवेश किया। ‘हेट स्टोरी 3’ में विक्रम भट्ट के साथ मिलकर टी सीरीज ने निवेश किया। ‘प्यार का पंचनामा’ कॉरपोरेट कंपनी वायकॉम 18 मोशन पिक्चर्स ने बनाई थी।

बीते साल ‘अब तक छप्पन 2’, ‘तनु वेड्स मनु रिटर्न्स’, ‘एबीसीडी 2’, ‘वेलकम बैक’, ‘एमएसजी 2’, ‘प्यार का पंचनामा 2’, ‘हेट स्टोरी 3’, जैसी कई सीक्वेल फिल्में रिलीज हुई थीं। इनमें से ‘हेट स्टोरी 3’ और ‘तनु वेड्स मनु रिटर्न्स’ को बॉक्स आॅफिस पर अच्छी सफलता मिली थी। सीक्वेल फिल्मों को मिल रही सफलता से बॉलीवुड के निर्माता उत्साहित हैं और अपनी सफल फिल्मों की सीक्वेल बनाने के सपने में खोए हुए हैं। ‘तनु वेड्स मनु रिटर्न्स’, ‘हेट स्टोरी 3’, ‘प्यार का पंचनामा 2’ ‘एबीसीडी 2’ जैसी फिल्मों में कोई नामी गिरामी स्टार नहीं थे और इन फिल्मों की लागत भी कम थी।। इन फिल्मों ने अपने निवेश पर अच्छा मुनाफा निकाला।

इस साल भी सीक्वेल फिल्मों की बहार रहेगी। ‘क्या कूल हैं हम 3’, ‘हाउसफुल 3’, ‘एबीसीडी 3’, ‘हेराफेरी 3’, ‘ग्रेट ग्रांड मस्ती’, ‘बाहुबली 2’, ‘तेरा सुरूर’, ‘घायल वंस अगेन’, ‘राज 4’ जैसी सीक्वेल फिल्में रिलीज होंगी। दूसरी ओर कई निर्माता अपनी हिट फिल्मों की सीक्वेल शुरू करने की योजना बना रहे हैं। इनमें ‘डॉन 3’, ‘दबंग 3’, ‘सन आॅफ सरदार 2’, ‘तुम बिन 2’, ‘आंखें 2’, ‘आशिकी 3’, ‘रॉक आॅन 2’, ‘ओ माय गॉड 2’, ‘किक 2’, ‘कांटे 2’, ‘दिल है के मानता नहीं 2’ जैसी कई फिल्मों का शुमार है। इसका मतलब यह है कि अभी कुछ समय तक बॉलीवुड सीक्वेल के बुखार में तपता रहेगा।