राम जन्म पाठक
Interesting Memories Of Prayagraj: एक दिन उसने कहा कि वह ‘गोल्ड’ बनाना जानता है और उसका इस्तेमाल ‘रिवोल्यूशन’ के लिए करेगा। वह bourgeoisie ( पूंजीपति वर्ग) का अजीब उच्चारण करता। ‘haves’ and ‘have nots’ ( संपन्न और विपन्न) की अजीब व्याख्याएं करता। जेएस मिल का लिबर्टी कांसेप्ट समझाता। कार्ल मार्क्स का जुमला उछालता- state will wither away. (राज्य एक दिन मुरझा जाएंगे)। हम और हमारे जैसे लोग, जो गांव के मटमैले तहखानों से निकल कर आए होते हैं, वे अंग्रेजी की कैंचियां चलते देख मोहासक्त हो जाते हैं। वह अंग्रेजी के टूटे-फूटे जुमले बोलता और हाथ में कोई न कोई अंग्रेजी की किताब लिए रहता।
मैंने बीए 1988 के बैच के फाइनल ईयर की परीक्षा दे दी थी और परीक्षाफल के इंतजार में था। तब इलाहाबाद विश्वविद्यालय में पढ़ाई का मतलब होता था, परीक्षा और प्रतीक्षा। दो-दो, तीन-तीन बैच की परीक्षाएं एक साथ हुआ करती थीं और नतीजे भी उसी तरह आते थे। बैठे रहिए या सो जाइए, या गांव चले जाइए या चौराहे पर झगड़ा कर लीजिए या कटरा में नेतराम की पूड़ी खा आइए या किसी छात्रा के स्वघोषित गार्जियन बन जाइए और उसके घर जाकर राखी बंधवा आइए। इसी तरह फुरसतिया ढेरों काम।
खाली-पीली मगजमारी। कैंपस में वामपंथी छात्रों का दबदबा और क्रांति की बहती लहर। छात्र नेता आते और बताते, बिहार में लोकयुद्ध चल रहा है। 94 तक पार्लियामेंट पर सर्वहारा का कब्जा हो जाएगा। भाकपा, माकपा, माले, पीपुल्स वार ग्रुप…और उनके छात्र संगठन। हर चौराहे पर चक्काजाम। कोई आपकी साइकिल रोक कर बताता, बालसन चौराहे पर पुलिस लाठी चार्ज कर रही है, उधर से मत जाइए। एलनगज से निकलिए। किराए के कमरों में स्टोप पर सुलगते छात्र, बेरोजगारों की अंतहीन भीड़, लंबे होते सत्र, छात्रों की छाया से बचती-बचाती चलतीं छात्राएं, आदोलन, हड़ताल ..रगड़घिस्स..ठसमठस्स…! मैंने उन्हीं दिनों इलाहाबाद छात्र संघ में ईएमएस नंबूदरीपाद को देखा था, हालांकि, वे तब तक ठीक से न कुछ बोल पा रहे थे, न सुन पा रहे थे।
क्या था वह सब। अखिलेश ( अब ‘तद्भव’ के संपादक) की कहानी ‘चिट्ठी’ में पढ़े-लिखे बेरोगजारों का मार्मिक चित्रण हुआ है। और, इधर हमारा सुपरमैन यानी विनोद सिंह। हम इलाहाबाद के किसी चौराहे पर ‘तीन में पांच चाय’ पर चर्चा करते। ”गुरु, क्रांति होगी तो पूंजीपतियों को खदेड़कर उनके मकानों पर सर्वहारा कब्जा कर लेगी।’ कोई कहता। फिर कोई श्यामाचरण गुप्ता का मकान कब्जा करता, कोई करवरिया का वशिष्ठ होटल, कोई सलीम शेरवानी की फैक्टरी, कोई मंडलायुक्त का आवास…कोई अपनी प्रेमिका को लेकर गोवा भाग जाता…अगले दिन, फिर ‘धूमिल’ की काव्यपंक्ति ‘जूते से निकाले गए मोजे की तरह महकते’ हुए सब फिर किसी चौराहे पर मिलते। उन दिनों धूमिल हमारे प्रिय कवि हुआ करते थे। हम उन्हें खूब पढ़ते–
”-एक बार फिर
तुम लौट जाना चाहोगे मुर्दा इतिहास में
मगर तभी –
यादों पर पर्दा डालती हुई सबेरे की
फिरंगी हवा बहने लगेगी
अख़बारों की धूल और
वनस्पतियों के हरे मुहावरे
तुम्हें तसल्ली देंगे
और जलते हुए जनतन्त्र के सूर्योदय में
शरीक़ होने के लिए
तुम, चुपचाप, अपनी दिनचर्या का
पिछला दरवाज़ा खोलकर
बाहर आ जाओगे
जहाँ घास की नोक पर
थरथराती हुई ओस की एक बूंद
झड़ पड़ने के लिए
तुम्हारी सहमति का इन्तज़ार
कर रही है।” ( धूमिल)
बोफोर्स घोटाले में नाम आने के बाद तबके इलाहाबादी सांसद अमिताभ बच्चन ने इस्तीफा दे दिया था। राजीव गांधी सरकार को वीपी सिंह ने कठघरे में कर दिया और खुद इस्तीफा देकर बाहर आ गए थे। सारा विपक्ष उनके पीछे-पीछे। अटलजी, हेगड़े, चंद्रशेखर, देवीलाल, रामाराव, मुलायम, पासवान…सब एक दिन केपी ग्राउंड में जमा हुए। वीपी सिंह ‘भारत की तकदीर’ बनकर उभरे थे और हर नौजवान के आदर्श नायक हो गए थे। इलाहाबाद की कचहरी में वीपी सिंह ने उपचुनाव का पर्चा भरा तो लक्ष्मी चौराहे से लेकर मेयो हाल चौराहे तक जनता ही जनता। मई-जून की भयानक गरमी और उमस। अरुण नेहरू उनके सबसे बड़े सिपहसालार थे।
हमारे सुपरमैन यानी विनोद सिंह ने मुझसे शर्त रखी। कुछ भी हो जाए, आज वीपी सिंह तक पहुंचना और छूकर आना है। हम दोनों भीड़ में कचहरी के दक्खिन साइड से घुसे और थोड़ी देर में मेरी चप्पल गायब हो गई। कुर्ता फट गया। लेकिन, एकाध घंटे की मशक्कत के बाद वीपी सिंह को छूने में कामयाब हो गया। सुपरमैन कहीं भीड़ में गायब हो गया। मैंने बहुत ढूंढ़ा, लेकिन वह मिला तीन दिन बाद। वहीं गोविंदपुर कालोनी में। बोला– अरे, मेरी सांस फूल गई। सड़क जल रही थी। नंगे पैर भाग आया। मैंने कहा, मैंने छू लिया। उसे आश्चर्य हुआ और उसने मेरी पीठ ठोंकी।
बाकी सब इतिहास है..और इतिहास का बहता पानी है। पानी नहीं, बाढ़ का पानी, जिसमें आपको बहते हुए टूटे घर, पेड़, जानवर और किसी बच्चे की बालपोथी दिख जाएगी। अपने नेता के प्रति, अपने नायक के प्रति वह कौन-सी ललक होती है, कौन सा बचपना होता है, कौन-सी आशा होती है, कौन-सा लगाव होता जो, आपको ताकत से भर देता है। और, आप अहमकाना हरकतें करने लगते हैं। दक्षिण भारत में अपने नेताओं की मौत पर लोग आत्महत्याएं कर लेते हैं।
वीपी सिंह इलाहाबाद से ऐतिहासिक मतों से जीते। प्रधानमंत्री बने। मंडल लागू किया। दोबारा जीतने के लिए ठाकुरबहुल इलाके फतेहपुर की शरण लेनी पड़ी, क्योंकि इलाहाबाद उन्हें नकार चुका था। भारतीय राजनीति में वीपी सिंह का मूल्यांकन किस तरह होना चाहिए ? आखिर, इस मंडल मसीहा को उन्हीं के लोगों ने क्यों छोड़ दिया। लालू, मुलायम, पासवान..। ये तो वही लोग थे, जिन्हें मंडल कमीशन से फायदा हुआ था । अंत में तो वीपी सिंह को यूपी में मुलायम सिंह सरकार के खिलाफ मोर्चा बनाना पड़ा। और नाकाम, रहे..। उनके साथ हुआ क्या था…कैंसर से पीड़ित, नितांत अकेले, अंत में उनके साथ ले-देकर राज बब्बर और एक कोई गुमनाम एलएलसी विनोद सिंह। यही साथ में दिखते थे। एक दिग्विजयी राजनेता का ऐसा पराभव, निचाट अकेलापन, संगी-साथी सब गायब…क्यों..क्यों ?
मैंने एक दिन राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के एक नेता से पूछा। उनका जवाब था कि वीपी सिंह धूर्त थे, उन्होंने राजीव गांधी की पीठ में छुरा घोंपा था। राजीव गांधी बेइमान नहीं थे, बोफोर्स की कहानी मनगढ़त और फर्जी थी। लेकिन, ऐसा तूमार बांध दिया गया था कि राजीव सरकार जवाब नहीं दे पा रही थी। वह ऐसी सरकार भी नहीं थी कि वीपी सिंह पर ईडी या सीबीआइ छोड़ देती। …
हमारा सुपरमैन भी कुछ-कुछ ऐसा ही था। बाद में पता चला कि वह सिर्फ हमारे कमरे पर सोने और खाने और किताबें झटकने के लिए हमसे दोस्ती गांठे रहता था। जल्द-ही उससे हमारा मोगभंग हो गया था। मैंने उसे एक बार खटारा टैक्सी चलाते और एक दिन एक आदमी से झगड़ा करते हुए उसी गोविंदपुर में देखा था। पता नहीं, अब है भी या नहीं !