नाटक में मंच पर अभिनेता-अभिनेत्री का काम प्रकट रूप में दिखाई देता है। पर एक नाटक को तैयार करने, उसे प्रभावशाली बनाने में निर्देशक के अलावा परदे के पीछे से अनेक लोगों का योगदान होता है। उनमें मंच सज्जा, परिधान, प्रकाश-व्यवस्था और रूप सज्जा आदि करने वाले भी होते हैं। पहले पेट्रोमैक्स की रोशनी में, तरह-तरह के परदे टांग कर और खुद अपने किरदार के मुताबिक रूप सज्जा कर नाटक खेले जाते थे, पर आज तकनीकी संसाधनों की मदद से नाटकों में प्रयोग करने की खूब सुविधा उपलब्ध है। मगर वास्तव में तकनीकी उपयोग से नाटकों में कितना प्रभाव उत्पन्न हो पा रहा है, बता रहे हैं सत्यदेव त्रिपाठी।
नाटक में परदे के पीछे के रंगकर्म- मंच-परिकल्पना, दृश्यबंध, परिधान, रूप-सज्जा, रंगालोक, विशेष प्रभाव, ध्वनि आदि की स्थिति नींव की उन र्इंटों की तरह रही है, जिन पर खड़ा होता है पूरा नाट्य-महल, पर न वह दिखता है, न उसकी चर्चा होती है। दिखते हैं सिर्फ अभिनेता-अभिनेत्री, जिनके लिए नाटक को ‘अभिनेता का माध्यम’ कहा जाता है और आजकल निर्देशक की निर्णायक भूमिका के बावजूद सारी चर्चा अभिनय के इर्द-गिर्द घूमती रह जाती है, जबकि अगर लेखन के मूल आधार और निर्देशन के पूरे विधान के अलावा भी परदे के पीछे के उक्त आयामों को छोड़ दिया जाए या उनकी आपसी संगति थोड़ी भी गड़बड़ा जाए, तो नाटक बैठ जाएगा। तब अभिनेता गुबार देखता रह जाएगा और निर्देशक तो खैर अपनी नियति में ही तीसरी घंटी के बाद परदा गिरने तक ‘आउटसाइडर’ होकर रह जाता है।
वैसे ‘परदे के पीछे’ जुमला अपना जलवा अब पहले से अधिक बिखेर रहा है, वरना नाटक से ‘परदा उठ जाने’ के बाद अब इधर आकर ‘मंच परे’ और इसी वजन पर ‘परदे के आगे’ के लिए ‘मंच पर’ शब्द एकदम रवां हो गए हैं। और परदा हट जाने के बाद ‘मंच परे’ की दुनिया अब पहले जैसी परदानशीन भी नहीं रह गई है। सूची पुस्तिका (ब्रोशर) में ‘मंच परे’ की संख्या ‘मंच पर’ से काफी बड़ी होने लगी है। पहले नाटक का एकमात्र केंद्र, बल्कि नाटक का पर्याय सिर्फ अभिनेता हुआ करता था। वह अब भी है, लेकिन उसकी स्थिति के लिए मैं उस किसान का रूपक देना चाहूंगा, जो पहले घुटने तक खुंटियाई धोती के सिवा नंगे बदन खेत में हल चलाते हुए या फावड़ा-हंसिया आदि से काम करते हुए खेतों का राजा लगता था, पर अब ट्रैक्टर आदि मशीनों के बीच छिप गया है- चलाता है वही, पर खेतों का राजा दिखता है ट्रैक्टर।
वही हाल है अभिनेता का- ‘मंच परे’ की सहायता अब इतनी अधिक हो गई है कि अभिनेता का उससे आच्छादित होना और रंगकर्म का उस पर इतना निर्भर हो जाना दिखने भी लगा है। इस विकास से बनी स्थिति में फिल्मों और उससे ज्यादा धारावाहिकों के असर से इनकार नहीं किया जा सकता। ऐसा न होता, तो ‘मुगलेआजम’ फिल्म को रंगमंच पर उतारने का न प्रयत्न होता और न वह इतना मकबूल होता या ‘मधुमती’ को नाम बदल कर फिल्म के रूप में मंच पर लाने का ‘एकजुट’ (मुंबई) द्वारा अनथक प्रयास न हुआ होता, जो ‘मुगलेआजम’ की तरह मकबूल भी न हुआ- अनाम ही रह गया।
मंच सज्जा
लेकिन ‘मंच परे’ की अखिल समृद्धि और विकास का मूल कारक है विज्ञान और तकनीक का जबर्दस्त विकास, जिससे क्षण भर में अंजाम तक पहुंचती आसानियां बहुत बढ़ गई हैं। मसलन, रंगदीपन, जो सचमुच परदे का विकल्प बना और दिन में या पेट्रोमैक्स के एकरस उंजाले में होते नाटक को कहीं भी कभी भी करने में सक्षम बना दिया। प्रकाश का मुख्य काम तो मंच और किरदारों को यथासंभव समूचे रूप में दिखाना भर है, लेकिन वह तो मंच के एक भाग में रात, तो दूसरे में दिन का अद्भुत काम कर दिखाने लगा। इतना ही नहीं, आधुनिक तकनीक के सहारे वह पात्र के भावों को व्यक्त करने लगा। अनकहे को वाणी देने लगा। कथा के अभावों को पूरने लगा। प्राकृतिक वातावरण (सुबह-शाम आदि) तो पैदा करने ही लगा, दृश्य के अनुसार माहौल भी बनाने लगा। ‘तुगलक’ नाटक में अमीरों द्वारा नमाज के वक्त बादशाह को मारने की साजिश का दृश्य शुरू हुआ, तो गोल चकत्ते में चमकता-बुझता प्रकाश भी उस रहस्यमयता को मूर्त करते हुए गहराने लगा।
पिछले दिनों मुंबई में इला अरुण-केके रैना के नाटक ‘शब्दलीला’ के शो पर मिले, तीन दशक से मंच को प्रकाश देते आ रहे सलीम अख्तर ने कहा था- पहले साधन कम थे, पैसे कम थे, पर हम कुछ ‘क्रिएट’ कर लेते थे। थिएटर एक दिन पहले मिल जाता था, अब तो शो के समय मिलता है। तुरंत सब करना पड़ता है। तो ‘शैडोज’ के साथ खेलना कहां हो पाता है! सबके पास प्रोफाइल एलइडी है, सब वही करते हैं। लेकिन पिछले हफ्ते भोपाल में बाणभट्ट की ‘कादंबरी’ जैसे मुश्किल नाटक को आलोकित करने वाले विजयेंद्र टांक ने सलीम की बात से सहमति जताते हुए जोड़ा कि इन्हीं सब हालात के बीच एलइडी में एक साथ तीन-चार रंग मिलने की गुणवत्ता के सहारे अपनी सोच मिला कर कुछ ‘क्रिएट’ कर भी पा रहे हैं… और ‘कादंबरी’ में अच्छोद सरोवर के पीछे एक पहाड़-सा बिंब बनने में इसका प्रमाण भी दिखा दिया।
रंगदीपन का कार्य मंचन की प्रक्रिया के दौरन ‘परदे के पीछे’ के आयोजनों के क्रम में सबसे बाद में आता है। वैसे शुरुआत हर नाटक की निर्देशक की देखरेख में कलाकारों के साथ मूल आलेख के पाठ से ही होती है। इसी दौरान निर्देशक की व्याख्या, कि वह क्या कहना चाहता है, को जान लेने के बाद इसे साकार करने के लिए उपयुक्त स्थल का संधान और निर्धारण- यानी मंच-परिकल्पना तैयार होती है। ‘परदे के पीछे’ का पहला घटक यही है, जो कथा और उसमें निहित चेतना के अनुसार विभिन्न उपकरणों से सजाने (मंच-सज्जा) के बाद पूर्ण होता है। फिर उस पर दृश्य नियोजित होते हैं- यानी दृश्यबंध (डिजाइन) का काम। ये तीनों आयाम एक-दूसरे से बहुत जुड़े हुए हैं या यों कहें कि ये एक ही घटक के तीन भाग हैं।
व्यावसायिक रंगमंडलियों में जहां एक संचालक (मालिक जैसा) होता है, प्राय: वही निर्देशक भी होता है, तो ये तीनों काम वही करता है। शंभू मित्र से शुरू होकर हबीब तनवीर, दिनेश ठाकुर, नादिरा जी, उषा गांगुली आदि जैसे अधिकतर रंगकर्म ऐसे ही हैं। लेकिन इधर विशेषीकरण (स्पेशलाइजेशन) के युग में प्रशिक्षण और काम की बहुतायत के दबाव से इन कामों के अलग-अलग विशेषज्ञ सामने आए हैं। उस युग में भी बंसी कौल जैसे विशेषज्ञ देखे जा सकते हैं। सरकारी संस्थानों में इनका उपयोग और सुपरिणाम साफ-साफ देखा जा सकता है। पहले इस काम में ठोस और स्थिर उपकरणों का इस्तेमाल और आज के समय में इसके बदले गतिशील और बहुआयामी नियोजन आसानी से लक्ष्य किए जा सकते हैं। कथा और कथ्य को व्यक्त करने में इनकी सांकेतिकता और बहुमुखता दोनों ही रूपों में मौजूद है। दोनों तरह और जमाने के लोग इसकी निर्माण-प्रक्रिया में आलेख को पढ़ते-पढ़ते मन में बनते दृश्य रूपों (विजुअल्स) की बात करते हैं।
ऐतिहासिक विषयों में काल, तथ्य और पौराणिक में रूपक की अवधारणाएं तो सेट के दिशा-निर्देश देती हैं, लेकिन बाकी के सामान्य विषयों में मंच-परिकल्पक की सूझ-बूझ ही नाट्यकला का मानक बनती है। इतना तय है कि आज के विशेषीकरण और विद्युत के सहयोग से प्रयुक्त साधनों के चलते मंच-कल्पना समृद्धि के साथ भीड़ का भी सिला बन रही है। मुझे हबीब साहब याद आते हैं, जो मंच पर रखे घटकों को हटा कर परखने का प्रयोग भी करते थे। भोपाल त्रासदी पर अपने ही लिखे नाटक ‘जहरीली गैस’ की शुरुआती प्रस्तुतियों में मंच इतना अंड़सा हुआ हो गया था कि पात्रों की गतियां बाधित दिखती थीं। कुछ प्रस्तुतियों के बाद खुद उन्होंने सब हटा दिए- मंच एकदम खाली-सा हो गया था। उपयोगी का ग्रहण और अड़चन बनने वाले सरंजाम को खारिज कर देना ही मंच की मंचीयता है।
विशेषीकरण
आज का विशेषीकरण शायद सिर्फ इसमें यकीन नहीं करता। सरकारी तंत्र में बजट बढ़ाने और उसी में खाने का धंधा भी फलता-फूलता है, जो ‘भारंगम’ जैसे कथित उत्सवों जैसे आयोजनों में कुख्यात भी हो चुका है। लेकिन कला की जानिब से देखें, तो ये महल जैसे मंच इतने खर्चीले और दूर जाकर प्रस्तुति करने के लिए इतने दुस्साध्य हो जाते हैं कि प्रदर्शन ही नहीं हो पाते। नुकसान नाट्यप्रेमी का होता है। तभी लकड़ी के एक प्लेटफॉर्म के सेट पर ‘चरणदास चोर’ को छोटे से गांव से लेकर देश-विदेश तक कर-दिखा आने वाले हबीब साहब बहुत याद आते हैं।
लेकिन अगर ‘कादंबरी’ जैसी कथा-कृति को साधना हो, जिसमें तीन जन्मों की कथा और फ्लैशबैक में तीन-तीन प्रस्तोताओं से बनी जटिलता है। विशेषण भरे लंबे-लंबे वर्णनों वाले तीन चौथाई भाग को दिखा पाने की दूभरता है, तो विशाल, खर्चीले और प्रतीकात्मक सेट बहुत जरूरी हो जाते हैं। लेकिन इसका भी विकल्प एमएस सथ्यू साहब के सेट में देखा जा सकता है, जो ऐसे सब काम सूक्ष्म युक्तियों से कर लेते हैं- ‘बकरी और लोककथा’ से लेकर ‘एक और द्रोणाचार्य’ तथा ‘कारगिल’ जैसे सभी नाटकों में। दोनों दो रूप हैं मंच परिकल्पना के और ऐसे तो अनगिनत रूप हैं। लेकिन सथ्यू साहब और हबीब साहब की परंपरा और सांकेतिक नाट्यमयता की विरासत को अक्षुण्ण बनाए रखने का दायित्व भी आज के मंच-परिकल्पक का है। मंच निर्माण से लेकर मंच सज्जा तक भले परिकल्पक का विशेष क्षेत्र हो, पर निर्देशक की देखरेख और सम्मति नाटक की सेहत के लिए जरूरी है। लेकिन दृश्यबंध तो निर्देशक का अपना क्षेत्र है। हां, परिकल्पक की सलाह और सम्मति फलदायिनी अवश्य होती है। प्राय: इन तीनों कार्यों की युति के अनुरूप तीनों कर्ताओं की संगति तो होती ही है, क्योंकि आपसी समझदारी और पसंदगी से ही तो टीम बनती है।
नाट्य संगीत
सबसे कम प्रदूषित हुआ है नाट्य संगीत। फिल्मी तर्ज पर बने गाने, उछलकूद वाले वानरी नृत्य आदि हास्य के नाम पर आए हैं। मगर परदे के पीछे के अन्य आयामों से अलग इनका प्रतिशत काफी कम है। शायद संगीत संस्थानों की संस्कृति और बांग्ला और मराठी के संगीत नाटकों की परंपरा में इसके कारण मिल सकें। इसी के सहारे बखूबी देखा जा सकता है तब और अब के नाट्य संगीत में अंतर भी। आज के अग्रणी नाट्य संगीतकार संजय उपाध्याय ने कभी एक वाक्य में बताया था- वह शास्त्रीय था और आज का नाट्य संगीत व्यावहारिक है। उसका मकसद ही संगीत सुनना होता था। पर आज वह नाटक को गति, सौंदर्य और रोचकता देता है।
संजय जी के निर्देशन और संगीत में प्रस्तुत ‘कादंबरी’ में गीत-संगीत मूल कथा में शृंगार और प्रेमादि भावों के लंबे काव्यमय वर्णनों को मूर्त करने की दोहरी भूमिका निभाते हुए आया है। मूल कृति की भाषा के अनुरूप महादेवी वर्मा, धर्मवीर भारती, नरेंद्र शर्मा, शिवमंगल सिंह सुमन, रामवृक्ष बेनीपुरी और सोम ठाकुर जैसे हिंदी के शीर्ष कवियों की अवरानुकूल कविताओं का चयन सोने में सुहागे का काम करता है। आज नाटकों में गीत-संगीत के प्रयोग आवश्यकता और असर की दृष्टि से पात्रों के एकल या समूह में भी प्रस्तुत होते हैं, तो पार्श्व में बैठी संगीत मंडली के समूह-गान में भी। दोनों ही अपनी-अपनी तरह रस-सृष्टि करते हैं। हबीब साहब का नजीर (आगरा बाजार) अकेले ही तरन्नुम में गाकर समां बांध देता था, तो बगल में बार-बार आकर खड़ी संगीत टोली भी, उनके संगीत की अपनी शैली थी।
किसी-किसी में विधान की मांग के अनुसार पूरे नाटक में वाद्य के साथ संगीत मंडली बैठती थी। पिछले दो दशकों से नाट्य संगीत दे रहे आमोद भट्ट का निरीक्षण है कि आज के अभिनेता प्रशिक्षित हो कर आते हैं, तो उनसे गवाना आसान हो गया है। ‘पिग्मेलियन’ जैसे नाटक को ‘तुम क्या जानो प्रीति बलमुआ’ की टेक को क्लासिक में बार-बार दुहरवा के दिनेशजी ने चामत्कारिक असर पैदा किया था। लेकिन सतीश आलेकर के संगीत प्रधान नाटक ‘बेगम बर्वे’ को अमाल अल्लना ने मनोहर सिंह जैसे पुरुषोचित कलाकार से नारी भूमिका निभवा कर और संगीत विहीन करके बंटाधार कर दिया, तो मनोज शाह ने उत्कर्ष मजूमदार से जीवंत और क्या ही मोहक गवा कर उसी नाटक को सनातनता की क्लासिकी तक पहुंचा दिया। गरज यह कि संगीत के रूप और प्रकार अनेक हैं, जो नाटक की शान में अंतरिम इजाफे के सिवा और कुछ नहीं करते।
तकनीकी प्रभाव
‘कादंबरी’ में शाप से पात्रों के मरने, तालाब में कूद कर घोड़े के मनुष्य बन जाने, मृत शरीर के जी उठने में उल्लिखित कामदेव के बाण छूटने, विरह में चंद्रमा के दिखने आदि को ‘मंच परे’ से ‘मंच पर’ तरह-तरह से करके दिखाने का जादूभरा प्रयोग नाट्यकला में असाध्य को साधने की दिशा में बड़ा कदम है। इस तरह विकट होते हालात की चुनौतियों और यांत्रिक एकरसता के बीच विज्ञान-तकनीक से मिली सहूलियतों के बल पर काफी कुछ कलात्मक किया तो जा रहा है, लेकिन जिस तरह क्षण भर में बटन दबाते ही यह सब कुछ साकार हो जाता है, उसी तरह क्षण भर में ही बुझ भी जाता है। सलीम अख्तर के कहे में ‘किए जाने का सुख’ और उससे दर्शक के ‘रंजित होने में अनुभूति के गहरे असर’ वाला पहले जैसा रस-परिपाक दुर्लभ हुआ जा रहा, जो नाटक का पहला और आखिरी उद्देश्य होता था। लेकिन वही, कि ऐसी ही समृद्धि और ऐसा ही अवमूल्यन पूरी दुनिया के हर क्षेत्र में आया है और रंगकर्म इससे अलग तो नहीं! मगर आम दर्शक आज भी पहले की तरह सिर्फ अभिनेता को जानता है!
परिधान और रूप सज्जा
परिधान और रूप-सज्जा वह दूसरा आयाम है, जहां विसंगतियों की संभावना मंच से भी अधिक है और इस पर धारावाहिकों का असर सर्वाधिक है। गुजराती नाटक तो इस मामले में धारावाहिकों को भी मात दे चुके हैं। कीमती साड़ियां और आभूषण इतने अधिक पहने जा रहे हैं कि हर दृश्य में स्त्री को पहचानने की नए सिरे से कोशिश करनी पड़ती है। पहले दृश्य से पहचान करने से शुरू करके चरित्र और दर्शक के साथ एकाकार हो जाने की विधा का ऐसा उल्टा रास्ता कितना आश्चर्यजनक है! हिंदी में सिने कलाकारों ने मंच पर आकर इस चलन को खूब बढ़ावा दिया। बेशक यह वृत्ति महानगरों और व्यावसायिक नाटकों में अधिक है, पर छूत तो बढ़ती जा रही है। वेश-भूषा के नियामक ही अमूमन धारावाहिकों-फिल्मों वाले होते हैं, तो उनसे इसके सिवा क्या उम्मीद!
नाटक में परिधान की मूल संकल्पना तो पात्रत्व के अनुसार वेश-भूषा निर्धारण की है, जिसमें अवसर की संगति भी निर्णायक होती है। ‘आधे-अधूरे’ की स्त्री अगर कीमती साड़ी पहन कर घर में रहेगी, तो उस नाटक के अनुसार उस परिवार की स्थिति कैसे विश्वसनीय हो सकेगी और अगर प्रेमी से मिलने जाते हुए वही पहन लेगी, तो अवसर और मूड नहीं छजेगा। फिर परिधान का सांकेतिक और नाट्योपम प्रयोग तो मूल विषय को खोलने और चरित्र की नियति को उजागर करने में नाटक के कथ्य से जुड़ने में निहित है। इब्राहीम अल्काजी का तुगलक शुरू में धवल परिधान में आकर अपनी बेजोड़ इंसानियत और जहीन सोच को प्रतीकित करता था, लेकिन धीरे-धीरे जमाने के साथ निपटने में जो बदलाव आते गए, उसके अनुसार वेश के रंग भी संवराते गए और अंत में एकदम काले होकर उसके अंदर पैठ आई वहशियत को साकार करने लगे। इस प्रकार बाह्य रूप भी नाटक की अंतर्वस्तु के साथ जुड़ कर प्रस्तुति के प्रयोजन को सिद्ध करने लगता है। यह कला भी खत्म नहीं हुई है, लेकिन अफसोस कि सिमटती जा रही है और ऐसा ही रहा, तो शायद कभी संग्रहालय की तरह खोजे से नमूने भर मिल पाए।

