कौशलेंद्र प्रपन्न

भारत विविधताओं का देश है। यह विविधता विभिन्न स्तरों और स्वरूपों में देखी और समझी जा सकती है। मसलन, भाषा, संस्कृति, लोक-बोलियां, पहनावे, खान-पान आदि। वैसी ही विविधता हमें शिक्षा के क्षेत्र में भी नजर आती है। यही कारण है कि हमें देश के विभिन्न राज्यों की विविधता अपनी ओर खींचती है। हम उसके मोहपाश से दूर नहीं जा पाते। हमारी भाषाई और सांस्कृतिक विविधता ही वह जादू है, जिसकी परोक्ष डोर से बंधे होते हैं। हमें इसी समाज में विविध भाषाई छटाओं का आनंद भी मिलता है, जहां ‘पैले जाणा’, ‘कछुओ नाहि’ ‘दूर नइखे, नियरे बा हो’, ‘पाणी पी लो’ ‘रोट्टी खाणी है’ आदि सुन सकते हैं।

भाषाई विविधता एक किस्म से हमारी भाषाई विविधतापूर्ण संस्कृति की पहचान भी कराती है। अगर हम इस विविधता के उत्सव को भाषाई विविधता की परिधि में सीमित करके विमर्श कर सकें, तो दिलचस्प होगा। जहां हमारी पाठ्यपुस्तकें, पाठ्यक्रम, पाठ्यचर्याएं भाषाई विविधता की वकालत करती हैं, वहीं कक्षायी स्थिति का अवलोकन करें तो वह विविधता एक या दो भाषा में सिमट कर रह जाती है। यहां हमारी भाषाई विविधता और सैद्धांतिक स्थापनाएं पीछे रह जाती हैं, जब हम बच्चों को मानक भाषा की ओर हांक देते हैं। जबकि राष्टीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा 2000 और 2005 बड़ी शिद्दत से भाषाई विविधता की वकालत करती है। यहां तक कि कोठारी आयोग की सिफारिशें भी भाषाई विविधता की अस्मिता को संरक्षित करने की बात करती नजर आती हैं। लेकिन सवाल फिर वही कि क्या वजह है कि कक्षा में वह बच्चों तक नहीं पहुंच पा रहा है। यहां पर भाषाई वर्चस्व और भाषा का बाजारी दबाव नजर आता है, जो काफी हद तक भाषाई चरित्र और जरूरतों को तय करता है। स्कूली स्तर पर भाषा के चुनाव में हमें रोजगारोन्मुख भाषा का दबदबा दिखाई देता है।

हमारी स्कूली भाषा और समाज में बरती जाने वाली भाषा के बीच कई बार साफ फांक नजर आती है। अगर हमने स्कूली भाषा और समाज में इस्तेमाल की जाने वाली भाषा के अंतर को नहीं पाटा, तो वह इन्हीं दो वर्गांे में टंगी भाषा मिलेगी। बच्चे भी इन्हीं दो खंभों पर टंगी भाषाई रस्सी पर करतब करते मिलेंगे। हमें बड़ी सावधानी से बच्चों को भाषाई विविधता के स्वाद भी चखाने हैं। इसमें बड़ी दिक्कत यह आती है कि एक ओर भाषा के शुद्धतावादी, जिसे मानकीकृत भाषा के प्रति अधिक राग है, वे हमेशा मानक भाषा की सिफारिश करते हैं। वे मानते हैं कि विभिन्न बोलियां, उप-भाषाएं मूलत: मानक भाषा को खराब करती हैं। यही स्थापनाएं शिक्षकों में भी संचरित होती हैं। कई शिक्षक कहते मिलते हैं कि बोलियां भाषा को खत्म कर देंगी, बोलियां हमारी शुद्ध भाषा को गंदला कर देंगी। सच पूछा जाए तो उनकी इस चिंता का निराकरण भाषावैज्ञानिकों, शिक्षाविदों को करना चाहिए, ताकि भ्रम की स्थिति न बनी रहे। क्योंकि शिक्षक स्वयं भ्रम में होगा, तो वह यह तय कर पाने में असमर्थ होगा कि वह कक्षा और समाज की विभिन्न भाषाओं के बीच सामंजस्य कैसे स्थापित करे।

भाषाई विविधता का उत्सव स्कूलों और कॉलेज स्तर पर आयोजित करने की आवश्यकता है। इन कार्यशालाओं और उत्सवों में विभिन्न भाषा-बोलियों के रचनाकारों को आमंत्रित करना होगा, ताकि जो अभिव्यक्तियां, लोकोक्तियां, मुहावरे हमारी मानक भाषा से गायब हो चुकी हैं, उन्हीं भाषा की मुख्यधारा में लाई जा सके। बच्चों और बड़ों के भाषाई भूगोल से जिन शब्दों, अभिव्यक्तियों को बाहर कर दिया गया या हो चुके हैं उन्हें दुबारा परिधि में लाना होगा। गौरतलब है कि आज नागर समाज के बीच से विविध भाषा संपदा तकरीबन खत्म-सी हो गई है। हमारी मातृभाषाएं भी इस दौड़ में पिछड़ रही हैं। जब कभी मातृभाषा का इस्तेमाल करना होता है, तब सच्चे, कोमल शब्दों को बड़ी मुश्किल से याद करना पड़ता है। यह स्थिति बच्चों के साथ बड़ों की भी है।

भारतीय भाषाओं में छपने वाले साहित्य में विविधता को देखें तो हमें कई छटाएं मिलेंगी, जो मानक भाषा से नदारद हो चुकी हैं। हमें साहित्य के माध्यम से भारतीय भाषाओं और बोलियों को संरक्षित करने की आवश्यकता है। अन्यथा वह समय दूर नहीं, जब हमारी हजारों बोलियां और गैर-मानक भाषाएं अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ेंगी। कई मर्तबा ऐसा भी हुआ है कि हम अपनी मातृभाषा को मानक भाषा के आगे छिपा देते हैं। जबकि हमारी बोलियां, भाषाई विविधता, हमारी अभिव्यक्ति को सुदृढ़ ही करती हैं। मगर हमें अपनी बोली,भाषा के इस्तेमाल करने में कहीं शर्म और हीनता महसूस होती है, जो गैर-मानक भाषा के लिए हानिकारक है।

देश भर में भाषोत्सव का आयोजन हो, जिससे क्षेत्रीय और मानक भाषा के बीच की दूरी को कम किया जा सके। यों साहित्योत्सव का आयोजन लिटरेचर फेस्टीवल के नाम से शुरू हो चुका है, लेकिन उस आयोजन में एक खास भाषा का वर्चस्व साफ देखा और महसूस किया जा सकता है। क्योंकि उस मंच पर बोलियों, उप-बोलियों और गैर-मानक भाषा को खदेड़ दिया जाता है। स्थानीय स्तर पर कॉलेजों और विश्वविद्यालों के हिंदी विभाग और राज्य स्तरीय संस्कृति और भाषा विभाग इस किस्म के भाषोत्सव को प्रोत्साहित कर सकते हैं। यहां राजनीतिक इच्छा शक्ति को बढ़ाने की आवश्यकता पड़ेगी। क्योंकि विभागीय आर्थिक सीमाओं को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता।

हालांकि हर अकादमिक सत्र के लिए आर्थिक सहायता राशि का प्रावधान होता ही है। इसी के तहत विभिन्न गोष्ठियों और सम्मेलनों का आयोजन विभाग करते हैं। उन्हीं मदों में भाषोत्सव के बारे में भी सोचा जा सकता है। अकादमिक भूगोल से बहुत तेजी से भाषाई विविधता खत्म हो रही है। इसका एक प्रमाण उच्च शैक्षणिक संस्थानों में होने वाले भाषाई शोध हैं। जितने शोध मानक भाषा में होते हैं, क्या उसका छोटा-सा हिस्सा भी बोलियों और गैर-मानकीकृत भाषा की झोली में आती है। विचारणीय मसला है कि हमें शोधों की संख्या और उसकी गुणवत्ता बढ़ानी होगी। सवाल है कि गैर-मानकीकृत भाषा, जिसमें हजारों बोलियां शामिल हैं, उस बोली के आधिकारिक ज्ञाता और विद्वान ही नहीं हैं, जो उसका मूल्यांकन और मार्गदर्शन कर पाएं, तो ऐसे में शोध का मार्गदर्शन कौन करेगा। कहते हैं, हिंदी साहित्य में अवधी, बज्जिका, ब्रज, मैथिली, गढ़वाली, कुमऊनी आदि बोलियों-भाषाओं के विद्वान जाते रहे। जो स्थान खाली हुआ, उसे भरने वाला अब कोई नहीं बचा।