शादी, पढ़ाई और डॉक्टर बनने का फैसला
एक रूढ़ीवादी ब्राह्मण-हिंदू मध्यवर्गीय परिवार में जन्मीं आनंदीबाई के बचपन का नाम यमुना था। वह पढ़-लिख कर डॉक्टर बनना चाहती थी। लेकिन उस दौर में यह सब आसान नहीं था, क्योंकि उस समय लड़कियों को ज्यादा पढ़ाया-लिखाया नहीं जाता था। इसलिए महज नौ साल की उम्र में ही उनका विवाह उनसे बीस साल बड़े और विधुर गोपालराव जोशी से कर दिया गया। विवाह के बाद, गोपालराव ने उनका नाम ‘आनंदी’ रखा। गोपालराव महिलाओं की शिक्षा के हिमायती थी, इसलिए विवाह के बाद से ही वे आनंदी को पढ़ाई के लिए प्रोत्साहित करने लगे। वे चाहते थे कि आनंदी घर के कामों की जगह पढ़ाई करे। इतना ही नहीं गोपालराव आनंदी को पढ़ाया भी करते थे। आनंदी को हिंदी, मराठी और अंग्रेजी भाषा का ज्ञान गोपालराव से ही मिला था।

चौदह साल की उम्र में आनंदी ने एक बच्चे को जन्म दिया लेकिन बच्चा बहुत कमजोर था। बच्चे को कुशल चिकित्सा की जरूरत थी, लेकिन डॉक्टर नहीं मिलने की वजह से दस दिनों में ही बच्चे की मृत्यु हो गई। इस घटना ने आनंदीबाई को तोड़ दिया। कुछ समय बाद जब वो संभली तो उन्होंने डॉक्टर बनने का फैसला किया। उन्होंने तय कर लिया कि जो दर्द उन्हें मिला है, वह किसी और को न मिले। इस फैसले में उनके पति ने उनका पूरा सहयोग दिया। चूंकि उस समय डॉक्टरी की पढ़ाई के लिए विदेश जाना पड़ता, इसलिए समाज ने आनंदीबाई और उनके पति का कड़ा विरोध किया। इसके बावजूद आनंदीबाई और उनके पति ने हार नहीं मानी।

विदेश जाकर डॉक्टरी की डिग्री
1880 में गोपालराव ने अमेरिकी मिशनरी रॉयल वाइल्डर को एक पत्र लिखकर औषधि अध्ययन में आनंदीबाई की रुचि के बारे में बताया। थॉडीसिया कार्पेटर ने आनंदी की अमेरिका में रहने की व्यवस्था की। फिर क्या था, तमाम परेशानियों और विरोधों के बीच 1883 में आनंदीबाई ने डॉक्टरी की पढ़ाई के लिए अमेरिका (पेनसिल्वेनिया) पहुंच गईं। उस दौर में वे किसी विदेशी जमीं पर कदम रखने वाली पहली भारतीय हिंदू महिला थीं। अमेरिका की ठंडी और खानपान के कारण वे बीमार रहने लगीं। उन्हें तपेदिक (टीबी) ने जकड़ लिया। फिर 11 मार्च 1885 को उन्होंने एमडी की डिग्री हासिल की। डॉक्टरी की डिग्री पर रानी विक्टोरिया ने उन्हें एक बधाई संदेश भी भेजा था। 1886 के अंत में, आनंदीबाई भारत लौट आईं, जहां उनका स्वागत किसी नायिका की तरह किया गया।

22 साल की उम्र में दुनिया को कहा अलविदा
आनंदीबाई को कोल्हापुर की रियासत में अल्बर्ट एडवर्ड अस्पताल में महिला वार्ड के चिकित्सक के प्रभारी के रूप में नियुक्त किया गया था। लेकिन तपेदिक के कारण उनकी सेहत दिन-ब-दिन खराब होती गई। 26 फरवरी 1887 में मात्र 22 साल की उम्र में उन्होंने दुनिया को अलविदा कह दिया। आनंदीबाई ने जिस उद्देश्य से डॉक्टरी की डिग्री ली थी, उसमें वे पूरी तरह सफल नहीं हो पाईंं लेकिन दुनिया भर की औरत के लिए मिसाल जरूर बनीं।

उनकी हिम्मत और संघर्ष से प्रेरित होकर अमेरिकी कैरोलिन वेलस ने 1888 में उनकी जीवनी लिखी थी। इस जीवनी पर एक धारावाहिक का निर्माण भी किया गया, जिसका नाम था- ‘आनंदी गोपाल’। इस धारावाहिक का निर्देशन कमलाकर सारंग ने किया था और इसका प्रसारण दूरदर्शन पर किया जाता था।