र्जीनिया वूल्फ का ‘ए रूम ऑफ वन्स ओन’ पढ़ा था। दो कमरों के घर में वो सोचती थी कि क्या कभी अपना कमरा भी हो सकता है। एक लड़की का अपना कमरा। यहां जेएनयू में कमरा संख्या मिला तो यकीन नहीं हुआ। एक और लड़की है कमरे में। पर एक कमरे के अंदर दोनों की संप्रुभता है। नागरिक शास्त्र की किताबों में नागरिक शब्द बहुत आकर्षित करता था। नागरिक को सिद्धांत में पढ़ना और छात्रावास में उसे प्रयोग के रूप में बरतना था। छात्रावास के कमरे की कुर्सी और मेज जो सिर्फ मेरे सपनों के लिए है, एक बिस्तर जहां उम्मीदों का तकिया मुझे अपनी नींद सोने देता है। थोड़ी दूर में बड़ा सा पुस्तकालय जहां मैं कभी भी और कैसे भी जा सकती हूं। यह छात्रावास का कमरा मानो मुझे खुद से एकालाप करने के लिए मिला है।

जाती जनवरी की ठंड में जेएनयू में साबरमती ढाबे के पास सुनीता कहती हैं कि भारत जैसे देश में यह विलासिता हो सकती है। कितना अच्छा हो कि यह विलासिता सबके पास हो। सुनीता कहती है कि यहां आकर मैंने समझा कि एक व्यक्ति के लिए अपना कमरा जरूरी क्यों होता है। इंसान को खुद से मुठभेड़ करने के लिए एक निजी कोना चाहिए होता है, यही निजी कोना उसे मजबूत बनाता है। हमारे हिंदुस्तानी समाज में निजता खासकर लड़कियों की निजता को अब भी बुरी नजर से देखा जाता है। जब तक लड़कियों को निजता नहीं मिलेगी तब तक आजादी नहीं मिलेगी।

रुबीना कहती हैं कि छात्रावास के लिए मेरा सामान पैक करते वक्त मां की आंखें चमक रही थीं। मां ने यहां के छात्रावास के बारे में सुन रखा था आकर देखा भी था। मेरी मां मुझसे पहली पीढ़ी की ही नहीं, सांचे की भी हैं। जब पहली बार आई थी तो मां ने मुझे खत भेजा था। बड़ा अचरज लगा था कि जब रोज वीडियो कॉलिंग होती है तो खत क्यों? मां ने जो लिखा था शायद वो खत में ही लिख पातीं। एक अच्छे-खासे परिवार में भी एक स्त्री अपनी निजता के लिए कैसे तरसती है। महलनुमा घर में भी उसे एक कोना अपना मिलना मुश्किल होता है।

दिल्ली विश्वविद्यालय से स्नातक कर चुकी और सिविल सेवा परीक्षाओं की तैयारी कर रही अंशिका यदुवंशी का कहना है कि विश्वविद्यालय परिसर और छात्रावास दुनिया की सबसे खूबसूरत जगह हैं। वैसे यहां भी ठीकठाक पाबंदियां होती हैं जो कुछ परेशान करती हैं। हमारे छात्रावास में प्रशासन अब भी हम पर कई तरह की पाबंदियां लादता है। सवाल है कि 2020 में आकर भी लड़कियां क्यों लड़कों से पहले अंदर आएं। अगर आप समानता रखते हैं तो क्यों हमें ‘पिंजरा तोड़’ आंदोलन करने पड़ते। देश की राजधानी दिल्ली के छात्रावास में लड़के-लड़कियों को बराबर के अधिकार क्यों नहीं मिलते।

जेएनयू की तुलना में दिल्ली विश्वविद्यालय में पाबंदियां ज्यादा हैं और अभी आप सबने भुज के बारे में सुना ही। ये खबर तो अब आई कि खास दिनों में लड़कियों को छात्रावास के अंदर भी अलग-थलग रहना पड़ता। इन्हीं कुप्रथा से निकल कर लड़कियां छात्रावास में आधुनिक अवधारणा के साथ रहती थीं। इन दिनों पूरे देश में जेएनयू की छात्रावास की लड़कियों के बारे में जैसी अफवाह फैलाई जाती है उससे समझा जा सकता है कि लड़कियों के स्वतंत्र अस्तित्व से इन्हें कितना खतरा है। जब जेएनयू के छात्रावास के ढांचे पर हमला होता है तो सोच लीजिए कि वे कैसा छात्रावास चाहते हैं। हम नहीं चाहते कि हमारे छात्रावास और समाज का ढांचा ऐसा हो कि रोहित वेमुला जैसे इंसानियत के सुंदर सपने को खुदकुशी करनी पड़ जाए। जो अच्छा था अब तो वो भी खत्म किया जा रहा। इस पर बात करने की बहुत जरूरत है।

संविधान सरीखा है जेएनयू

जेएनयू की छात्राओं का कहना है कि यहां का छात्रावास सपनों का भारत है। यहां हमारे साथ स्त्री नहीं एक नागरिक की तरह व्यवहार होता है। हमें यहां पारंपरिक ढांचे में रहने के लिए मजबूर नहीं किया जाता है। छात्र और छात्राओं के अधिकार बराबर हैं। छात्राओं में खुलापन बराबरी का है। हमारे पास संविधान का आर्टिकल 21 है जिसके आधार पर हमें हमारे साथी, हमारे दोस्त चुनने का, हमें जीने का अधिकार है। खाना खाते समय हम जिस तरह के कपड़े चाहें उस तरह के कपड़े पहन सकते हैं। 1969 में जब जेएनयू बना था, तब भी कुछ निर्देश और मानदंड बनाए गए थे। लेकिन गैरबराबरी की हर व्यवस्था को जेएनयू नकारता रहा है।

जेएनयू का ढांचा चार प्रांतो में बंटा हुआ है- पूर्वांचल, पश्चिमांचल, दक्षिणापुरम, उत्तराखंड। भारत की भौगोलिक विविधता को नजर में रखते हुए छात्रावासों के नाम भारतीय नदियों के नाम पर रखे गए हैं। जेएनयू की छात्रा कहती है कि यहां की हवा में खुलेपन का एहसास है। इतनी आजादी मुझे घर पर नहीं थी। यहां मेरे विचारों को सुना जाता है उसकी अहमियत होती है। यहां जीबीएम होती है। छात्रों की सहमति ली जाती है तब ही किसी कार्य पर मंजूरी होती है।

जामिया में जारी है जंग

जामिया मिल्लिया इस्लामिया जेएनयू और डीयू से कुछ मामलों में अलग है। वहां की एक छात्रा बताती हैं कि उन्हें हॉस्टल के तीन गेटों को पार करना होता है। लड़के-लड़कियों के मेस अलग-अलग हैं। यहां लड़कियों को शाम साढ़े नौ बजे तक हॉस्टल में आना होता है। लड़के सारी रात घूमते हैं। लड़कियां लाइब्रेरी में भी दस बजे तक ही रुक सकती हैं। जबकि लड़के रात के तीन बजे तक भी बैठ सकते हैं। लड़कियों को औपचारिक कपड़ों में जाना पड़ता है।