मीना बुद्धिराजा

साहित्य अपने मूल रूप में मानव जीवन और सभ्यता के संवेदनात्मक यथार्थ का दस्तावेज होता है। कला और भाषा के प्राय: सभी माध्यमों में अलग-अलग विशिष्टताओं के बावजूद उनमें सर्जनात्मकता का स्पंदन और मानवीय मूल्यों को बचाने की कोशिश साझी होती है। साहित्य के वृहत्तर दायरे में रचनाकार के अनुभव, समाज, राजनीति, संस्कृति, वर्ग, जाति, आर्थिक परिवेश और अपने समय के अंतर्विरोध, वैचारिक-भावनात्मक संघर्ष सभी काल के अंतराल में बंध कर अभिव्यक्ति में दर्ज होते हैं। परिवर्तन की अनवरत प्रक्रिया और जरूरी बदलावों के चलते साहित्य की कोई भी विधा अपने लिए एक संकीर्ण परिसर निधारित करके न अपने साथ न्याय कर सकती हैं, न मनुष्य के जीवन और समाज के साथ। पीढ़ियों के गतिशील प्रवाह के बीच विचारधारा और रचना कर्म की सार्थकता का खिंचाव चलता रहता है और इसी सृजनात्मक द्वंद्व के बीच श्रेष्ठ और वांछित कृति का जन्म होता है। दरअसल, मनुष्य के स्वंतत्र अस्तित्व का संघर्ष ही जीवन और रचना की बुनियाद है। जैसे समाज और संस्कृति लगातार बदलते रहते हैं वैसे ही साहित्य भी निरंतर बदलता है, लेकिन लोकतांत्रिक व्यवस्था में वह हमेशा सार्थक प्रतिपक्ष की भूमिका में रहता है। सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक परिवेश और समकालीन टकराहटों के प्रभाव से जिन द्वंद्वात्मक क्षणों में वह किसी समस्या पर विचार करता है उसे शब्दबद्ध करता और किसी समाधान की तरफ अग्रसर होता है। तब उसका उद्देश्य सबकी सामूहिक आकांक्षाओं और जनप्रतिबद्धता से जुड़ा होता है।
यद्यपि रचनाकार की आत्यंतिक प्रेरणा एक व्यक्तिगत सृजनात्मक बेचैनी की विवशता होती है, जिसके कारण संसार की विराट सत्यता को चित्रित करने के लिए वह बाध्य होता है, किंतु उसका लक्ष्य बाह्य परिवेश और समाज ही नहीं होता। वह उसमें निहित अंतर्भूत उन विशिष्ट संवेदनाओं और विचारों को सूत्रबद्ध करने के लिए उन्हें संयोजित करने का प्रयास करता है, जो समय के प्रवाह में उठते-गिरते सभी अवस्थाओं में उत्पन्न होते रहते हैं। ये अनुभव चाहे अच्छे हों या बुरे, स्वीकृत हों या बहिष्कृत, रचनाकार की व्यापक दृष्टि को सीमित नहीं कर पाते और साहित्य के विराट समसामयिक संदर्भों में घटित होकर मानवीय चेतना का अटूट हिस्सा बन जाते हैं। काव्यानुभव और मानवीय चित्तवृत्तियां इस व्यापक वृत्त में समाहित तो होते ही हैं, साथ ही कोई विचारधारा और विचार की सक्रिय और गत्यात्मक उपस्थिति भी रचना-प्रक्रिया का अभिन्न अंग बन कर चलती है। संवेदनात्मक बोध के धरातल नए-नए रूपों में रचनाकार के सामने आते हैं, जिन्हें वह विश्वसनीय और प्रासंगिक रूप से अनुभवों के रूप में अभिव्यक्ति के माध्यम से विन्यस्त करता है। स्पष्ट है कि नए उभरते जटिल यथार्थ, उपभोक्तावादी खंडित परिवेश और नई परिस्थितियों में अपने ही वैयक्तिक संघर्ष और तनावों को ईमानदारी से और ठीक से पहचान पाना मुश्किल होता जा रहा है और रचना-कर्म की प्रक्रिया कठिन होती जा रही है। संवेदनात्मक विस्तार निरंतर सिकुड़ रहा है और मानवीय मूल्यों की रिक्तता से समाज का संरचनात्मक आधार बिल्कुल बदल चुका है। अतिशय सूचनाओं के विस्फोट, उपभोगवादी मानसिकता और भूमंडलीकरण की सर्वग्रासी रफ्तार के सामने विचार और स्मृतियां हाशिए पर जा रहे हैं। शब्द की सत्ता की वापसी के लिए रचनाकार जिस बेचैनी और अभिव्यक्ति की छटपटाहट को अनुभव कर रहा है वह आज रचना-प्रक्रिया का भी संकट है। वैसे तो कविता और कला का कोई भी दौर रहा हो, यह स्थिति हमेशा बहुत जटिल और बहुस्तरीय रही है, पर आज के परिवेश में यह समस्या और गहरी हुई है। मनुष्य की पहचान को आज की स्मृतिविहीन और विकट स्थितियों में पुनर्परिभाषित करने का, भाषा की बहुअर्थी संभावनाओं को नए सिरे से पड़ताल करने का समय है और शब्दों की अंतर्ध्वनियों को नए रूप में परिकल्पित करने का भी।

अपने समय और मानवता के बड़े प्रश्नों से जूझने वाला कालजयी साहित्य सभी अतिवादी स्थितियों के बीच अंतर्विरोधों और तनावों से गुजरते हुए जिस वृहत्तर मानवीय अर्थवत्ता के साथ जन्म लेता है, उसमें सभी समस्याएं, विसंगतियां, रचनाकार की गहरी संलग्नता और दायित्वबोध के साथ जुड़े होते हैं, जिसमें निजी और सार्वजनिक, तात्कालिक और शाश्वत, आंतरिक और बाह्य तथा यथार्थ और कल्पना के सभी सुविधाजनक पैमाने समाप्त हो जाते हैं। ये रचनाकार अपने विराट मानवीय संदर्भों की अंतर्दृष्टि और युगबोध से गहरे जुड़े होने के कारण प्रत्येक देश और काल के लिए प्रासंगिक हो जाते हैं। प्रेमचंद, रेणु, प्रसाद, निराला और मुक्तिबोध की रचनाएं समय के जिन बड़े संकटों के बीच उत्पन्न होती हैं, वे इतने बहुस्तरीय और वास्तविक यथार्थ, समाज और व्यक्ति के संघर्ष को बहुआयामी रूप में अभिव्यक्त करते हैं कि जिनमें कई पीढ़ियों का समसामयिक सह-अस्तित्व संभव होता है। समय से संवाद करते हुए इनके रचनात्मक सामाजिक और मानवीय सरोकार और प्रेरणाएं जिन बुनियादी चिंताओं से गहराई से जुड़े होते हैं, उनका प्रभाव कालातीत होता है और भविष्य के लिए भी पथ प्रशस्त करते हैं। इस रूप में परंपरा का अर्थ रूढ़ि न होकर उसकी आधुनिक दृष्टि और गतिशील इतिहासबोध में होता है, जो इस जातीय जीवन के प्रवाह में सभी उत्कृष्ट और समसामयिक अंशों को समाहित करता हुआ बढ़ता है। इसलिए तब रचनाकार या कवि केवल अपने दुख-दर्द की गाथा नहीं लिखता, बल्कि विशाल सामूहिक मानवीय आकांक्षाओं को रचना में प्रतिफलित करता है।

नई सदी की रचनाशीलता जिन परिवर्तनों से गुजर रही है वह उत्तराधुनिकता के उस दौर को सूचित करते हैं, जो नई-नई तकनीक, मुक्त अर्थतंत्र की व्यवस्था, मीडिया तथा सूचना युग के दबाव का अतिशय विस्तार झेल रही है। अब मानवीय संबंधों और मूल्यों में इतनी तीव्रता से बदलाव आया है कि ठहर कर सोचना, चिंतन करना भी असंभव लगता है। विस्मृति और विस्थापन का यह समय, जिसमें एक वस्तु दूसरे को और एक संवेदना दूसरी संवेदना को निर्वासित कर रही है और बदलते हुए मनोभावों और मन:स्थितियों की थाह लेना भी अब सरल नहीं है। बाजारवाद और उपभोक्तावाद के बेतहाशा प्रभाव ने सामाजिक संरचना, सांस्कृतिक बोध और मानवीय नियति के प्रश्नों के सभी प्रतिमान बदल दिए हैं। यह अभिव्यक्ति का वास्तविक संकट है, जिसमें युवा पीढ़ी एक साथ चकाचौंध और क्रूर वास्तविकताओं के भयावह दौर से एक साथ गुजर रही है।

निस्संदेह विषय-वस्तु के साथ ही अब भाषा का मिजाज भी बदला है, जिसमें रचनाकार को अपनी सोच, दृष्टि, संवेदना और मानसिकता का तालमेल रखते हुए उसे सार्थक प्रतिरोध का स्पेस भी साहित्य में बचाना है। वर्तमान परिदृश्य में जबकि व्यावसायिक प्रतिस्पर्धा के दबाव ने साहित्य में लोकप्रिय और पॉपुलर लेखन की एक नई बाजार संस्कृति को उत्पन्न किया है, उसमें ज्यादा जोर बेस्ट सेलर के उत्पादन पर है, सर्वश्रेष्ठ की खोज पर उतना नहीं। यह प्रवृत्ति संवेदना और विचार की मौलिकता और लेखन की गंभीरता को प्रभावित करेगी। यह भी एक कठिन सवाल है कि जीवन में उत्कृष्ट की खोज आज इतनी अनावश्यक और उपेक्षित क्यों है? मनुष्यता का अवमूल्यन हमारे समय की सबसे बड़ी त्रासदी है, जो नई रचनाशीलता के लिए भी एक बड़ी चुनौती है। इसलिए इसका समाधान भी उसे अपनी संवेदना और दृष्टि में ढूंढ़ना होगा। आक्रामक और निर्मम होते जा रहे समय में वैचारिक स्वतंत्रता और सृजनशीलता को बचाए रखने के लिए अभिव्यक्ति का संघर्ष और भी मुश्किल है। इसलिए रचनाकार को अपनी रचनात्मकता के नए सूत्र आज के जटिल और संश्लिष्ट यथार्थ में अंतर्निहित सच में, उन तनावों में ही खोजने होंगे, जो आज परिवेश और जीवन के भी ज्वलंत प्रश्न हैं। एक समग्र मानवीय दृष्टि संपन्न रचनाकार और साहित्य के भी वे स्थायी सरोकार कम ही बदलते हैं, जिनकी जड़ें मनुष्य की सार्वकालिक भावनाओं के उद्रेकों में होती हैं। हमारी संवेदनाओं का परिष्कार करके जो रचना वृहद अर्थों में जन साधारण के सुख-दुख का साझीदार बनाती है, उसे पाठक किसी भी देशकाल, परिवेश और संस्कृति में आसानी से पहचान सकता है और यही उसके वैश्विक मानवीय प्रभाव, संप्रेषण क्षमता और समकालीन प्रासंगिकता को प्रमाणित करता है।