वे आर्य समाज के प्रवर्तक और प्रखर सुधारवादी संन्यासी थे। स्वामी दयानंद सरस्वती का जन्म गुजरात की रियासत मोरवी के टंकारा नामक गांव में हुआ था। उनके बचपन का नाम मूलशंकर था। वे अत्यंत मेधावी थे। चौदह वर्ष की उम्र तक उन्हें रुद्री आदि के साथ-साथ यजुर्वेद तथा अन्य वेदों के भी कुछ अंश कंठस्थ हो गए थे।
व्याकरण के भी वे अच्छे ज्ञाता थे। चौदह वर्ष की उम्र में उन्होंने मूर्तिपूजा के प्रति विद्रोह कर दिया था। फिर अपनी बहन की मृत्यु से अत्यंत दुखी होकर संसार त्याग करने तथा मुक्ति प्राप्त करने का निश्चय किया। घर त्यागने के बाद अठारह वर्ष तक उन्होंने संन्यासी का जीवन बिताया। बहुत से स्थानों में भ्रमण करते हुए कई आचार्यों से शिक्षा प्राप्त की।
वे वेदांत के प्रभाव में आए तथा आत्मा और ब्रह्म की एकता को स्वीकार किया। वे अद्वैत मत में दीक्षित हुए और उनका नाम ‘शुद्ध चैतन्य’ पड़ा। फिर वे संन्यासियों की चतुर्थ श्रेणी में दीक्षित हुए और वहां उन्हें दयानंद सरस्वती की उपाधि प्राप्त हुई।
सच्चे ज्ञान की खोज में इधर-उधर घूमने के बाद दयानंद सरस्वती मथुरा पहुंच कर वेदों के प्रकांड विद्वान स्वामी विरजानंद से वेदों की शिक्षा ग्रहण की। वेद की शिक्षा दे चुकने के बाद स्वामी विरजानंद ने इस मनोकामना के साथ दयानंद को विदा किया कि ‘मैं चाहता हूं कि तुम संसार में जाओ और मनुष्यों में ज्ञान की ज्योति फैलाओ।’
गुरु की आज्ञा शिरोधार्य कर स्वामी दयानंद ने अपना शेष जीवन इसी कार्य में लगा दिया। हरिद्वार जाकर उन्होंने ‘पाखंडखंडिनी पताका’ फहराई और मूर्ति पूजा का विरोध किया। उनका कहना था कि अगर गंगा नहाने, सिर मुंडाने और भभूत मलने से स्वर्ग मिलता, तो मछली, भेड़ और गधा स्वर्ग के पहले अधिकारी होते।
बुजुर्गों का अपमान करके मृत्यु के बाद उनका श्राद्ध करना वे निरा ढोंग मानते थे। छुआछूत का उन्होंने जोरदार खंडन किया। दूसरे धर्म वालों के लिए हिंदू धर्म के द्वार खोले। महिलाओं की स्थिति सुधारने के प्रयत्न किए। मिथ्याडंबर और असमानता के समर्थकों को शास्त्रार्थ में पराजित किया। अपने मत के प्रचार के लिए वे 1863 से 1875 तक देश का भ्रमण करते रहे।
1875 में उन्होंने मुंबई में ‘आर्यसमाज’ की स्थापना की और देखते ही देखते देश भर में इसकी शाखाएं खुल गर्इं। आर्यसमाज की स्थापना के साथ ही उन्होंने हिंदी में ग्रंथ रचना आरंभ की। साथ ही संस्कृत ग्रंथों का हिंदी में अनुवाद किया। ‘ऋग्वेदादि भाष्यभूमिका’ उनकी असाधारण योग्यता का परिचायक ग्रंथ है। ‘सत्यार्थ प्रकाश’ उनका सबसे प्रसिद्ध ग्रंथ है। अहिंदीभाषी होते हुए भी स्वामी जी हिंदी के प्रबल समर्थक थे।
उन्होंने कहा कि ‘मेरी आंखें तो उस दिन को देखने के लिए तरस रहीं हैं, जब कश्मीर से कन्याकुमारी तक सब भारतीय एक भाषा को बोलने और समझने लग जाएंगे।’ अपने विचारों के कारण स्वामी जी को प्रबल विरोध का भी सामना करना पड़ा। उन पर पत्थर मारे गए, विष देने के प्रयत्न भी हुए, डुबाने की चेष्टा की गई, पर वे पाखंड के विरोध और वेदों के प्रचार के अपने कार्य पर अडिग रहे।
बाद में उन्होंने शैवमत और वेदांत का परित्याग कर सांख्ययोग को अपनाया, जो उनका दार्शनिक लक्ष्य था और इसी दार्शनिक माध्यम से वेदों की भी व्याख्या की। जीवन के अंतिम बीस वर्ष इन्होंने जनता को अपना संदेश सुनाने में लगाए। स्वामी दयानंद द्वारा लिखी महत्त्वपूर्ण रचनाएं हैं- सत्यार्थप्रकाश, पाखंड खंडन, वेद भाष्य भूमिका, ऋग्वेद भाष्य, अद्वैतमत का खंडन, पंचमहायज्ञ विधि, वल्लभाचार्य मत का खंडन आदि।
