राजेंद्र राजन
समूचे गांव में एक ही चर्चा थी। सरकार ने रमसा को दुर्घटना की एवज में चार लाख का मुआवजा दिया है। उस बेबस, लाचार और गुरबत से जूझ रहे शख्स के लिए एक साथ इतनी बड़ी रकम का प्राप्त हो जाना गांव के हर बाशिंदे के लिए कौतूहल और जिज्ञासा का बायस तो था ही, रमसा भी फूला नहीं समा रहा था। मानों उसे पंख लग गए हों।
यों तो रमसे के दिलो-दिमाग में बेटे की त्रासदी के जख्म हरे थे। अच्छा-भला, हंसता-खेलता मासूम-सा बेटा मूसलाधार बारिश में बिजली के खंभे से टूटी नंगी तार की चपेट में आ गया था। करंट ने यों जकड़ा मानो कोबरा उसके तन बदन से लिपट गया हो। पलक झपकते ही प्राण पखेरू उड़ गए थे। लुगाई तो पहले ही चल बसी थी।
लंबे वक्त तक रमसा सदमें में डूबा रहा। बात पुलिस प्रशासन, कोर्ट-कचहरी तक पहुंची। रमसा कोली था। यानी दलित। गांव वालों की संवेदनाएं रमसे के प्रति यों उमड़ पड़ी थी मानो अचानक धरती की कोख से झरना फूट पड़ा हो। पंचायत प्रधान ने तो विधायक तक का ‘सहानुभूति दौरा’ करवा दिया था पीड़ित के घर।
अब यह दो साल की जद्दोजहद के बाद बेटे की मौत का मुआवजा रमसे के घर दस्तक दे गया था। अनपढ़, गंवार, जाहिल से रमसे का तो बैंक खाता भी नहीं खुला था। विधायक का दबदबा इस कदर हावी था कि बैंक वाले तुरत-फुरत रमसे के घर पहुंच गए। आनन-फानन में अंगूठा लगवा कर कागज पूरे करवाए और खाता खोल दिया।
विद्युत विभाग ने सारी औपचारिकताएं पूरी कर चार लाख रमसे के खाते में जमा करवा दिए। सौ फीसद पारदर्शिता की वह ऐसी नजीर थी, जिसकी तारीफ दूर-दूर तक हो रही थी।
विधायक ने एक तीर से कई निशाने साध लिए थे। विपक्ष के वोट बैंक में सेंध लगाने में कामयाब रहा था। उसे गरीबों का मसीहा बताया जा रहा था। दूर-दूर तक रमसे की मुआवजा दिलाने की खबर का प्रचार जंगल की आग की तरह फैल चुका था। चुनाव निकट थे। सो, अनुसूचित जाति के तीस फीसद वोट विधायक पक्के कर चुका था।
रमसे के लिए चार लाख बड़ी रकम थी। उसके ब्याज से ही उसका सहजता से गुजर-बसर हो सकता था। उस पर साहूकार मियां जी के यहां मेहनत मजूरी करके हर साल कुछ हजार जोड़ ही लेता था। राजनीति, सरकार, पंचायत में हर जगह मियां जी के रसूख की तूती बोलती थी। एक वक्त था, उनके यहां पंद्रह से बीस तक बैठू थे। यानी बंधुआ मजदूर।
उनकी मुक्ति की आंधी में मियां जी को भारी ‘ठेस’ पहुंची थी। कई महीनों तक उन्हें कचहरी में पेशियां भुगतनी पड़ी थीं। यह किस्सा कोई तीस साल पुराना है। बेठूगिरी को तो सरकार ने समाप्त कर दिया। ये सताए, दबे-कुचले दलित मुक्त तो हो गए थे, पर उनके पुनर्वास की योजना नदारद थी।
कुछ साल तक दर-दर भटकने के बाद पुन: मियां जी की मुंडेर पर आ बैठे थे। अब ये कोली कहलाते थे। यानी गुलाम। रमसे का भी यही हाल था।बिमारी-शिमारी, जरूरत लेन-देन ब्याह-शादी के वक्त मियां जी के द्वार पर पहुंच जाता। यों उनकी छवि एक भले ठाकुर जमींदार की थी, लेकिन कुटिलता का विषधर कब डंस लेगा, कोई नहीं जानता था। चार लाख क्या मिले, रमसे के घर तथाकथित शुभचिंतकों का जमावड़ा जुटने लगा।
इतने लोग तो उसके बेटे की शवयात्रा में भी शामिल नहीं थे। भीड़ में वे लोग थे जो रमसे को तरह-तरह के पैंतरों से ठगना चाहते थे। कोई ब्याज पर उधार मांग रहा था, तो कोई ऐसी पुरानी देनदारियों का हवाला देकर उसे ठगविद्या के जाल में फांस रहा था जो कतई झूठी थीं। बहरहाल, उसके छोटे भाई जालिम सिंह की टेढ़ी निगाह भी उसके मुआवजे पर टिकी हुई थी। उसने अपने साथ तीन-चार फर्जी बिचौलिए पैदा किए। जालिम सिंह और उसके कारकुनों ने रमसे को समझाया, ‘देख भई रमसा।
ये चार लाख तो यों ही खत्म हो जाएगा। तुझे घर भी बनवाना है। ये झोंपड़ी में कब तक रहेगा। जब सात साल पहले तेरी घरवाली बीमार पड़ी थी तो उसकी सेवा-टहल में तेरी भाभी यानी मेरी घरवाली ने दिन-रात एक कर दिया था। अगर मैं लोगों से उधार लेकर दवादारू के बिलों का भुगतान न करता, तो भला कैसे चंगी होती तेरी घरवाली?’
‘तू बकवास न कर। दफा हो यहां से। झूठ बोलता है तू। तेरी देसी, घटिया दवाइयों से ही तो मेरी घरवाली की जान गई।’ रमसे के भीतर दबे क्रोध का लावा फूट पड़ा था।
जालिम सिंह भी जल्लाद से कम नहीं था। हार नहीं मानने वाला था। भाई छोड़ वो पुरानी बातें। मैं तो यह कह रहा था कि ये चार लाख के आठ लाख करने की गीदड़ सिंगी है मेरे पास। हां-हां, उसके गुर्गो ने भी हामी भरी। क्यों? रमसा बोला, कोई जादू की छड़ी है क्या? रमसे के चेहरे पर सहसा खुशी के मायावी भाव चमके उठे।
‘भई वो हरियाणे का बार्डर पास ही है। पचास मील दूर। जगाधरी से हम तेरे लिए चार लाख के सूअर खरीद लाएंगे। तू उन्हें बेचणा। छह महीने में आठ लाख तेरे हाथ में होंगे। दो हजार का सूअर यहां चार हजार का बिकता है। तू तो जानता है। सारे गांव के लोग सूअर के मांस के दीवाने हैं।
तेरा मकान भी बन जाएगा। वो फटफटी खरीद लेणा। पैसा होगा, रुतबा होगा, सोसाइटी में मान-सम्मान बढ़ेगा तो सारा गांव तुझे दुआ-सलाम करेगा। सबकी कमर झुक जाएगी तेरे घर के सामने। अब तक तो तू ही झुकता रहा है सारे गांव के सामणे।’ ‘ठीक है, तुम लोग जाओ। मुझे सोच-विचार करने का वक्त दो।’
रमसे ने चिलम भरी और हुक्के की गुड़गुड़ में अपने भाई और उसके साथियों के प्रस्ताव पर विचारमग्न हो गया। रमसे का छोटा भाई उसे बहलाने, फुसलाने, बहकाने में कामयाब रहा। षड्यंत्र का शिकार हो चुका था। दोनों एक दिन जगाधरी गए और चार लाख रुपए के सूअरों का झुंड खरीद लाए। तीन ट्रकों में जब सूअरों का काफिला गांव पहुंचा तो बड़े, बूढ़े, बच्चों, औरतों के कौतूहल और चर्चा का विषय बन गया।
चार लाख बैंक में जमा होने के बाद जो इजाफा उसकी छांव में हुआ था, जल्द ही उसका ग्राफ रसातल में पहुंचने लगा था। जालिम सिंह के कहे मुताबिक रमसे ने सूअरों को बेचना शुरू किया।
लूटपाट, चार सौ बीसी में संलिप्त लोगों ने औने-पौने भाव में उससे सूअर खरीदे। चार हजार के एक सूअर के कभी पांच सौ तो कभी एक हजार उसके हाथ पर धर दिए। कहा, ‘ये उधारी का कारोबार है। जब होंगे तो मिल जाएंगे।’ कई लोग तो उधारी में ही उसे चूना लगाते रहे। रमसा पूरी तरह जाल की गिफत में जकड़ चुका था।
बैंक बैलेंस शून्य को छू रहा था। कुछ दिनों बाद सूअर खरीदने वाले चोर, डकैत और ठग गांव से गायब हो चुके थे। सूअरों का तो कहीं नामोनिशान नहीं बचा था। लोग-बाग उनके गोश्त को चटखारे ले लेकर हजम कर चुके थे।
लुटा-पिटा रमसा पूरी तरह बर्बाद हो चुका था। उसके घर-द्वार पर पुन: वीरानी पसर गई थी। उसका भाई जालिम सिंह भी गांव छोड़ कर शहर में बस चुका था। असल गुनहगार तो वही था, जिसने अपने सगे भाई को मटियामेट कर छोड़ा था। अब रमसा दाने-दाने को मोहताज हो चुका था।
उसे मेहनत मजदूरी के लिए भी कोई काम देने को तैयार नहीं था। पहले बेटे के बिछोह, फिर मुआवजे की रकम को खुद के पांव पर कुल्हाड़ी मार कर स्वाहा कर देने के सदमें से वह उबर नहीं पा रहा था। भूखों मरने की नौबत आ चुकी थी।
मरता क्या न करता। मियां जी की दहलीज पर सिर लुढ़का दिया। उसका दुखड़ा सुन कर मियां जी बोले, ‘ठीक है, तू अपना बोरिया बिस्तर लेकर कल आ जा मेरी हवेली। बचा-खुचा खाने को मिल जाएगा। यूं भी कुत्तों या पशु पक्षियों को फेंकना पड़ता है।
हां, ये कागज तूने बार-बार कहने पर भी सहीं नहीं किए थे। नौ साल से समझा रहा हूं। तू माना नहीं। भरणे लगा तो फिर आ गया मेरे घर नाक रगड़ने।’ ‘ये कौण से कागज हैं मियां जी?’ ‘भूल गया तू। दो बीघा जमीन है न तेरे नाम। पार जंगल में। घासणी ही तो हैं। मेरे नाम लिख दे। हरा भरा कर दूंगा उसे हल चला कर।’
‘मिया जी जमीन तो मां होती है। क्या कोई मां को बेच सकता है?’ ‘अरे घणचक्कर की औलाद, बेचणे को कौन कह रहा है। मेरे नाम वसीयत है ये। अब तू ही फैसला कर। सूअर की तरह दर-दर भटक कर अपनी बची-खुची जिंदगी को तबाह कर देना चाहता है या सुख की सांस लेकर विदा होना चाहता है दुनिया जहान से…?’
रमसे की आखों में आंसू छलक आए। वह दहाड़ कर रोने लगा। मियां जी के नौकर-चाकरों ने उसका ढांढस बंधा कर उसे चुप कराया। संयत होने के बाद जहां-जहां मियां जी इशारा करते गए, रमसा कोर्ट कचहरी के कोरे कागजों पर अंगूठा लगाता रहा। रंजो-गम में डूबे हुए रमसे को पहली दफा अहसास हुआ कि उसके वजूद और सूअर में कोई अंतर नहीं है।