रश्मि स्वरूप जौहरी

भाग मंगू, भाग।’ चंगू ने धीरे से कहा।
भागते-भागते मंगू एक पार्क में घुसा और घास पर बैठ गया। जेब से रूमाल निकाल कर पसीना पोंछा। सांस जोरों से चल रही थी। प्यास से गला सूख रहा था। तभी नल दिख गया। पानी पीकर मंगू ने जेब से पर्स निकाला। दरअसल, इस पर्स को ही चंगू ने मंगू की जेब में डाला था और उससे भागने के लिए कहा था। मंगू ने पर्स खोला। उसमें पैंतीस रुपए थे। वह कोठरी की ओर चल दिया।
‘आ गए। मैं इंतजार कर रहा था। कितने मिले?’ चंगू ने पूछा।
‘पैंतीस।’
‘बस?’
‘हां। आखिर ऐसे कड़के की जेब क्यों काटी, जो सौ रुपया भी नहीं रखता है? हैसियत का अंदाजा लगा कर हाथ साफ किया करो। कम से कम एक टाइम बढ़िया खाने भर के पैसे तो मिलते।’
‘चलो छोड़ो। आज इतना ही सही।’
चंगू-मंगू बचपन के दोस्त हंै। आठवीं तक साथ पढ़े हैं। दौड़ने में दोनों उस्ताद। अब उमर पच्चीस के करीब। कुछ समय पहले नौकरी की तलाश में शहर आए थे। नौकरी मिल भी गई। चंगू-मंगू की जोड़ी मोहल्ले में मशहूर थी। पर किसी को यह मालूम नहीं था कि दोनों जेबकतरे भी हैं।
असल में एक दिन दोनों घूमने जा रहे थे। एक आदमी उनके आगे था। उसकी पीछे की जेब में पर्स था, जो आधा बाहर निकला हुआ था। दोनों को शैतानी सूझी। चंगू ने पर्स निकाल लिया। उस आदमी को पता नहीं चला।
पर्स में दो हजार रुपए थे। दोनों बड़े खुश हुए। महीने भर मेहनत करने, सात-सात हजार कमाते हैं। यहां तो मुफ्त में दो हजार मिल गए। बस दोनों जेबकतरे बन गए। नौकरी के अलावा मुफ्त की कमाई होने लगी। एक साल हो गया। पर अभी तक पकड़े नहीं गए थे। लिहाजा खुद को माहिर समझने लगे।
जेब काटने का तरीका तय था। चंगू जेब काटता और मंगू भागने को तैयार रहता। जेब काट कर चंगू पर्स मंगू को पकड़ा देता। वह पर्स लेकर भीड़ में गुम हो जाता। बाद में दोनों कोठरी पर मिलते। ऐसा इसलिए था कि अगर चंगू को कोई जेब काटते देख ले और पकड़ा जाए तो तलाशी लेने में उसके पास पर्स न निकले और वह बच जाए।
चंगू दबंग किस्म का था और मंगू उसके मुकाबले में थोड़ा डरपोक। मंगू कहता, ‘पकड़े गए तो मुश्किल में फंस जाएंगे। छोड़ो यह सब।’
चंगू मुस्कराता, ‘क्यों पकड़े जाएंगे? अकलमंदी से करेंगे।’
पास के गांव किशनपुर में रामलीला हो रही थी। साथ में मेला भी था। चंगू ने कहा, ‘मंगू, कल किशनपुर चलते हैं। घुमाई के साथ कमाई भी। मेले में पर्स भर कर लाते हैं लोग।’
अगले दिन दोनों किशनपुर चल पड़े। रास्ते में बस में एक का पर्स साफ कर दिया। मेले का मजा दुगना हो गया।
मेले में झूले, दुकानें, खाने के स्टॉल थे। घूमते-घूमते रात हो गई।
चंगू और मंगू चाट खाने लगे। तभी एक आदमी ने पैसे देने के लिए अपना पर्स खोला। पर्स रुपयों से भरा था। उनकी बाछें खिल गर्इं। दोनों उसके पीछे लग लिए। मौका मिलते ही चंगू ने जेब काट ली। पर एक आदमी ने देख लिया। वह चिल्लाया, ‘अरे जेब काट ली। पकड़ो-पकड़ो।’ उसने मंगू की ओर इशारा किया।
इतना सुनना था कि दोनों तेजी से मेले से बाहर आए और भागने लगे। नई जगह थी। रास्ता पता नहीं था। जिसकी जेब काटी थी वह तथा कुछ और लोग ‘चोर-चोर, पकड़ो-पकड़ो।’ चिल्लाते हुए पीछा करने लगे। पर उन दोनों जैसी तेजी से दौड़ नहीं पा रहे थे।
भागते-भागते दोनों काफी दूर आ गए। पर लोगों ने पीछा नहीं छोड़ा। अचानक सामने एक दीवार आ गई। रास्ता बंद था। दीवार ऊंची थी। फांदना मुिश्कल था। पीछे जा नहीं सकते थे। चंगू ने पीछे मुड़ कर देखा। लोग पीछा कर रहे थे, पर बहुत पीछे थे।
मंगू ने कहा, ‘पर्स फेंक दो। पर्स पाकर वे लौट जाएंगे।’ चंगू ने पर्स फेंक दिया। पर्स पाकर शायद वे लौट गए, क्योंकि आवाजें आनी बन्द हो गई थीं।
दोनों हताश थे। सामने दीवार थी। आगे जा नहीं सकते थे। पीछे का पता नहीं कि लोग अभी हैं या लौट गए। तभी उन्हें दीवार से लगा एक पेड़ दिखा। आपस में इशारा किया। एक-एक करके पेड़ पर चढ़कर दीवार फांद गए और धम्म से दूसरी तरफ गिरे। तभी एक आवाज आई। ‘कौन?’ एक परछाई-सी दिखी। फिर खामोशी छा गई। उन्होंने चैन की सांस ली। दोनों दीवार के सहारे बैठ गए। फिर दोनों की आंख लग गई।
सुबह चंगू पहले उठा। सूरज निकलने वाला था। इमारत में सन्नाटा था। उसने मंगू को जगाया।
‘निकलते हैं यहां से। थोड़ी देर में लोग आने लगेंगे।’ चंगू ने कहा।
‘पर फाटक पर ताला दिख रहा है। दीवार ऊंची। पेड़ भी नहीं। निकलेंगे कैसे?’ मंगू ने जम्हाई ली।
‘देखते हैं।’ तभी चंगू की नजर इमारत के ऊपर लगे बोर्ड पर गई। उस पर कुछ लिखा था। पढ़ा तो होश उड़ गए। लिखा था ‘किशनपुर पुलिस थाना’। ०