विवेकानंद की कथा है। एक गांव में एक पंडित जी थे। बहुत सुंदर घर बनवाया था। खूब सारे फूल रोप रखे थे। जब भी कोई उनके घर आता तो वे बड़े गर्व से उसे ले जाकर हर चीज दिखाते। बड़े गर्व से बताते कि यह घर मैंने बनवाया है। ये सारे फूल मैंने लगाए हैं। कौन-सा फूल, कौन-सी चीज कहां से ले आए, सबका बखान करते। हर बात में जताते कि जो कुछ है, उनका ही किया है। सारे काम में उन्हीं की मेहनत, उन्हीं की बुद्धि लगी है।

पंडित जी एक बिल्ली से बहुत परेशान थे। वह आकर उनका दूध पी जाती। बरतन जूठा कर जाती। एक दिन पंडित जी को इतना क्रोध आया कि डंडा घुमा कर दे मारा। डंडा बिल्ली को लगा और वह मर गई। जब गांव वालों को बात पता चली, तो उन्होंने कहा कि यह तो महापाप हो गया। अब तो इसका प्रायश्चित करने के लिए बिल्ली के वजन के बराबर की सोने की बिल्ली बना कर दान करना पड़ेगा।

यह बात पंडित जी भी जानते थे, मगर इतना पैसा खर्च करना उनके बूते की बात नहीं। इसलिए, उन्होंने तर्क दिया, बिल्ली को तो मरना था, उसकी मृत्यु तो ईश्वर ने तय की थी कि इसी तरह होनी है। मैं तो निमित्त मात्र हूं। ईश्वर ने मुझे प्रेरित किया और बिल्ली की मृत्यु का कारण बन गया। इसलिए दोष मेरा नहीं, ईश्वर का है। पाप का भागी तो ईश्वर।

जब यह बात ईश्वर को पता चली, तो वे भेष बदल कर पंडित जी के घर पहुंच गए। पंडित जी उन्हें ले जाकर अपनी हर चीज दिखाने लगे। बताने लगे कि ये सारी चीजें मैंने बनाई हैं, मैंने जुटाई हैं। तब भेष बदल कर आए ईश्वर ने कहा- पंडित जी, अगर सारे काम आपने किए हैं, सारा सरंजाम आपने जुटाए हैं, तो फिर बिल्ली को मारने का पाप दूसरे को क्यों? पंडित जी चुप। फिर अपनी गलती का उन्हें अहसास हुआ। इस तरह के तर्क गढ़ कर हम भी रोज अपना दोष दूसरों के मत्थे डालते रहते हैं।