रोहित कुमार

प्रथम दृष्टया लगता है कि इस तरह लोगों में वैज्ञानिक चेतना के साथ-साथ आध्यात्मिक चेतना का भी विकास हो रहा है। ऐसी व्याख्याओं का एक अच्छा-खासा बाजार बन चुका है। खूब किताबें लिखी जा रही हैं, अनेक आधुनिक किस्म के प्रवचनकर्ता यू-ट्यूब चैनलों पर विज्ञान के तथ्यों को प्राचीन साहित्य से जोड़ कर व्याख्याएं पेश कर रहे हैं। तमाम वेदों, उपनिषदों और पुराणों में कही बातों को विज्ञान से सिद्ध करने का प्रयास करते देखे जा रहे हैं।

ऐसी किताबों, प्रवचनों के ग्राहक भी खूब हैं। यह अच्छी बात है कि जिस नई पीढ़ी को पाश्चात्य संस्कृति के खाओ-पीओ, मौज करो का आदी कहा-माना जाता है, उसकी अपने धर्म, संस्कृति और प्राचीन साहित्य की तरफ रुचि विकसित हो रही है। जो बच्चे इंजीनियरिंग, प्रबंधन आदि की पढ़ाई कर रहे हैं, उन्हें भी इन सब बातों में रुचि पैदा हो रही है। यह भी हैरानी की बात नहीं कि आइआइटी, आइआइएम से डिग्रियां लिए हुए बहुत सारे युवा संन्यासी बन रहे हैं।

वे गीता, भागवत, पुराणों आदि पर विज्ञान के सिद्धांतों के साथ बातें कर रहे हैं। ऐसे तमाम प्रवचनकर्ता तकनीकी संस्थानों के बच्चों को अध्यात्म की बातें सिखा रहे हैं। उन्हें खुद को पहचानने की प्रेरणा दे रहे हैं। मगर सूक्ष्मता से देखें, तो लगता नहीं कि इन सब बातों का युवाओं पर कोई स्थायी प्रभाव पड़ रहा है।

विज्ञान को अध्यात्म से जोड़ देने से बातें रोचक बन जाती हैं, प्रभावशाली हो जाती हैं, उनके जरिए जीवन के रहस्यों को समझने में आसानी हो जाती है। कहा तो यह भी जाता है कि नई पीढ़ी को अगर अपनी प्राचीन परंपराओं, वेद-पुराणों की तरफ ले जाना है, उनके प्रति उनमें आकर्षण पैदा करना है तो विज्ञान इसमें काफी मदद कर सकता है। मगर ऐसी कोशिशों के बावजूद अड़चनें बनी हुई हैं। न तो अपराध कम हो रहे हैं, न भ्रष्टाचार खत्म हो रहा है, न लोगों में धन ही हवस मिट रही है।

सबसे चिंता की बात कि अपनी प्रकृति को लेकर संवेदना तक विकसित नहीं हो पा रही। धरती को उजाड़ कर सब कुछ समेट लेने की सनक कुछ इस तरह बढ़ती गई है कि मानवता संकट में पड़ गई है। माना जाता है कि इन प्रवृत्तियों पर अंकुश अध्यात्म के जरिए ही लगाया जा सकता है। बात बिल्कुल सही भी है, मगर तमाम प्रयास विफल हो रहे हैं, तो उस पर भी विचार की जरूरत है।

दरअसल, विज्ञान और अध्यात्म के क्षेत्र बिल्कुल अलग हैं। विज्ञान बाहरी कारणों की पहचान करता है। जैसे फूल में रंग कैसे भरता है, वह कैसे बनता है, उसमें गंध कहां से पैदा होती है, इन सब कारणों की तलाश तो विज्ञान कर लेता है, मगर वह इस बात की पहचान करने में पूरी तरह सफल नहीं होता कि उसी फूल को देख कर हर आदमी के भीतर अलग-अलग भावनाएं क्यों पैदा होती हैं। मनोविज्ञान तो कुछ हद तक इसे पकड़ने का प्रयास करता है, फूल को देख कर मनुष्य के भीतर होने वाले रसायनों की व्याख्या भी कुछ हद तक कर सकता है। मगर हर आदमी के भीतर उस फूल को देख कर अलग-अलग रसायन क्यों पैदा होते हैं, अलग-अलग भावनाएं क्यों पैदा होती हैं, वह ठीक-ठीक नहीं कह सकता। इसके लिए उसे आध्यात्मिक सिद्धांतों की मदद लेनी पड़ती है।

मनुष्य जो महसूस करता है, वह उसके अवचेतन की जटिल बनावट में कहीं से पैदा होता है। अवचेतन अपने आप में एक रहस्यमय संसार है। अध्यात्म उसी के भीतर पैठता है। चेतना के अलग-अलग तलों को तोड़ते हुए मनुष्य के भीतरी रहस्यमय संसार में प्रवेश करता है। वह सबसे पहले मनुष्य को उसके होने से परिचय कराता है। उसके भीतर की बुनावट से पहचान कराता है। मनुष्य अपने भीतर से संचालित होता है, जो उसके भीतर है, वही बाहर की चीजों के माध्यम से प्रकट होता है। बाहर की चीजें माध्यम भर हैं।

इसलिए मनुष्य के लिए बाहर उतना महत्त्वपूर्ण नहीं है, जितना भीतर। उस भीतर की पहचान कराने में विज्ञान अभी तक सफल नहीं हो पाया है। ऐसा कोई उपकरण, ऐसी कोई दवाई नहीं बनी है, जिसकी मदद से मनुष्य अपनी भीतरी जगत को देख और समझ सके। जो मशीनें मनुष्य के भीतर देखने को बनी हैं, वे रोग की पहचान करती हैं, शरीर की बनावट को समझ सकती हैं। शरीर से परे जो जगत भीतर गतिमान है, उसे नहीं देखा-समझा जा सकता।

शरीर से परे गतिमान भीतरी जगत में उतरने, उसे देखने और नियंत्रित-संचालित करने का एक ही माध्यम है, और वह है अध्यात्म। हालांकि अध्यात्म कहता है कि बाहर और भीतर में कोई अंतर नहीं है। जैसे जल के भीतर रखा हुआ घड़ा है, उसके भीतर भी पानी है और बाहर भी पानी। मगर देखने में लगता है कि घड़ा पानी से भर गया है। दूसरे तरह से यह भी कह सकते हैं कि घटा पानी में रखा हुआ है।

दरअसल, दोनों व्याख्याओं में घड़े को हम देख रहे हैं। मगर जैसे ही घटा फूट जाता है, तब क्या होता है। जल जल में मिल जाता है। यही उदाहरण दिया जाता है। मगर व्याख्या करने वाले उसे अत्यंत स्थूल धरातल पर ले आते हैं। बाहर का अर्थ पेड़-पौधे, पहाड़-नदी आदि और शरीर को पंचतत्त्व से बना शरीरा तक लाकर सीमित कर देते हैं। जबकि बाहर का अर्थ ब्रह्मांड से है। ब्रह्मांड और मनुष्य की भीतरी दुनिया एक है। उसे समझने की बात है। अनेक ताकतवर दूरबीनें बना लेने के बावजूद विज्ञान ब्रह्मांड को जान-समझ नहीं सका है।

क्वांटम की प्रकृति को तो जान गया है, मगर ब्रह्मांड की प्रकृति अब भी अबूझ बनी हुई है। इसी तरह मनुष्य का भीतरी संसार पकड़ से बाहर बना हुआ है। यह काम अध्यात्म कर सकता है कि वह मनुष्य के इनर सेल्फ यानी भीतर के मनुष्य से मिला दे। इसके रास्ते अनेक हैं, उनमें से किसी को भी चुन कर नीचे उतरा और समस्याओं के समाधान निकाले जा सकते हैं। भीतरी जगत को व्यवस्थित कर लिया, तो बाहरी दुनिया के संकट अपने आप दूर होते जाएंगे।