रोहित कुमार

मनुष्य जीवन में गलतियां करता रहता है। गलतियां करता और फिर पछताता है। कसमें खाता है कि वह फिर कोई गलती नहीं करेगा, मगर करता है। फिर पछताता है। इसीलिए लोक ने माना कि मनुष्य गलतियों का पुतला है। फिर यह सीख भी दी कि जो एक बार गलती करके उसे दुहराए नहीं, वही श्रेष्ठ मनुष्य है। यह सीख इसीलिए तो दी गई कि मनुष्य न केवल गलतियां करता, बल्कि उन्हें दुहराता भी है। बार-बार वही-वही गलतियां करता है। उसकी सारी कसमें धरी की धरी रह जाती हैं।

ऐसा इसीलिए होता है कि गलतियां करते समय उसका विवेक साथ छोड़ देता है। दिमाग काम करना बंद कर देता है। फिर यह भी तो होता है कि जो गलती वह करता है, दरअसल, उसे सही मान कर करता है। करने के बाद उसे पता चलता है कि उससे गलती हो गई।

कबीर ने कहा- ‘अणी देसरा लोग अचेता, पल पल पर पछताई’। इस जगत के लोग अचेतावस्था में हैं। पल पल गलतियां करते, पल पल पर पछताते रहते हैं। दरअसल, हर आदमी के बुद्धि-विवेक की सीमा है। जैसे ही वह अपनी बुद्धि की सीमा से बाहर जाता है, उसके गलतियां करने की संभावनाएं बढ़ जाती हैं।

हालांकि हर गलती गलत नहीं मानी जाती। अनेक बार गलती कर-कर के सही तक पहुंचने का रास्ता भी मिल जाता है। तमाम वैज्ञानिक शोध इसी रास्ते चल कर सत्य तक पहुंचते हैं। मगर जब आदमी अपनी बुद्धि की सीमा में, जानते-बूझते गलतियां करता है, तो उसे किसी रूप नें उचित नहीं माना जाता।

ऐसी बहुत सारी गलतियों के लिए दंड हैं। कबीर उन्हीं गलतियों की बात करते हैं। मनुष्य जानता है कि शरीर नश्वर है, इसे एक दिन समाप्त हो जाना है, तमाम सुख-सुविधाएं क्षणिक सुख के सरंजाम हैं, फिर भी वह इन्हीं के पीछे पागल है। इन्हें पाने के लिए गलतियां पर गलतियां करता रहता है। तमाम लड़ाई-झगड़े, दुश्मनियां, वैमनस्य, मनमुटाव इन्हीं जानी-समझी गलतियों की वजह से पैदा होते हैं।

विचित्र तो यह है कि बहुत सारे लोग जान-बूझ कर गलतियां करते हैं और फिर उन्हें सही ठहराने में जुट जाते हैं। झूठ पर झूठ बोलते रहते हैं। वे जानते हैं कि उनसे गलती हो गई है, मगर उसे सही ठहराने पर तुले रहते हैं। वे जानते हैं कि सड़क पर चलते हुए लाल बत्ती को पार करना जुर्म है, पर बहुत सारे लोग सड़क खाली देखते ही जानबूझ कर बत्ती लांघ जाते हैं। जब पकड़े जाते हैं, तो उसे सही साबित करने में जुट जाते हैं।

अगर वे ऐसा कर पाने में सफल हो गए, तो अपनी चतुराई पर इतराते फिरते हैं। यानी गलती जैसे उनसे हुई ही नहीं। कई तो गलती खुद करते हैं और उसका दोष दूसरे पर मंढ़ने का प्रयास करते हैं। आजकल तो यह प्रवृत्ति आम है। दफ्तरों में कोई अपनी गलती स्वीकार करना नहीं चाहता। अगर उसके पास शक्ति हुई, तो अपनी गलती बहुत आसानी से अपने किसी मातहत के माथे धर देता है। ऐसा करने की उसके पास सुविधा भी होती है। यही तो अचरज का विषय है।

बहुत सारी गलतियां हमसे हड़बड़ी, अधैर्य, जल्दबाजी और क्षणिक आवेश की वजह से होती हैं। अगर कुछ भी करने से पहले थोड़ा रुक कर उसके बारे में सोचें, उसके नतीजे के बारे में सोच लें, तो शायद गलती होने से रह जाए। किसी ने हमसे कुछ ऐसा कह दिया, जो अप्रिय था, तो तुरंत हमारे भीतर प्रतिक्रिया उभर आती है और क्षण भर भी गंवाए बिना हम उसे दूसरे पर प्रकट भी कर देते हैं।

ऐसी प्रतिक्रियाएं प्राय: अप्रिय भाषा या शारीरिक हिंसा के रूप में प्रकट होती हैं। जाहिर है, इसके बाद दूसरी तरफ से भी वैसी ही प्रतिक्रिया आती है और गलती पर गलती दोनों तरफ से होती जाती है।

अगर शुरू में ही थोड़ा ठहर कर विचार कर लें, कि सामने वाले ने जो कहा, उसके पीछे क्या कारण हो सकता है और उसका कैसे जवाब दिया जाना चाहिए। यों हर बात का जवाब तुरंत देना भी उचित नहीं होता। अप्रिय प्रतिक्रियाओं पर मौन साध जाना बहुत सारी गलतियों का शमन कर देता है।

मगर हम हैं कि ठहरना ही नहीं चाहते, इंतजार हमें पसंद नहीं। हमें तो तुरंत नतीजा चाहिए। यह अधैर्य हमारे पूरे जीवन में उतर आया है। मन में विचार पैदा हुआ कि अमुक जगह चलना है, बस चल पड़े। विचार आया कि अमुक चीज चाहिए, तो लेने की जिद ठान ली। कहीं कतार में खड़े हैं, तो हड़बड़ी है कि कितनी जल्दी हमारी बारी आ जाए। देर हो रही है, तो मन में क्रोध पैदा हो रहा है।

वह क्रोध उस कर्मचारी पर प्रकट होता है, जो हमारा काम करने के लिए बैठा है। हमारा क्रोध प्रकट होता है और फिर नतीजा यह होता है कि काम में देरी पर देरी होती जाती है, हमारे काम में ही नहीं, दूसरों के काम में भी। फिर घंटे-दो घंटे बाद हमारा विवेक जागता है कि हमने नाहक क्रोध कर दिया। न किया होता, तो काम जल्दी हो जाता।

अपने ऊपर ग्लानि भी होती है। कई बार तय करते हैं कि अबसे इस तरह त्वरित प्रतिक्रिया नहीं दिया करेंगे, धैर्य का परिचय देंगे। मगर हम कब अपने किसी संकल्प पर टिके हैं, जो अब टिकेंगे। वही गलती फिर कहीं और दोहरा देते हैं। फिर पछताते हैं। हर पति-पत्नी के बीच के झगड़े इसीलिए होते हैं कि वे किसी विषय पर थोड़ा ठहर कर सोचने का प्रयास नहीं करते।

अगर पांच मिनट भी प्रतिक्रिया देने से ठहर जाएं, विवाद बढ़े ही नहीं। जो काम हमारे जीवन के लिए अनिवार्य हैं, हमारे कर्तव्य से जुड़े हैं, उन्हें लेकर तो गलतियां हम करते ही रहते हैं। अक्सर विद्यार्थियों को देखते हैं कि जब परीक्षा निकट होती है, तो वे किसी दिन बैठ कर संकल्प लेते हैं कि रोज आठ-दस घंटे पढ़ेंगे।

उसके लिए समय सारिणी भी बना लेते हैं। मगर अगले ही दिन से फिर पुराने ढर्रे पर लौट आते हैं। कोई न कोई बहाना तलाश ही लेते हैं। फिर दो दिन बाद पछताना शुरू। यह स्थिति दफ्तर के कामकाज को लेकर भी होता है। अगर अपने स्वभाव में थोड़ा ठहराव लाने का प्रयास करें, तो शायद इस तरह बार-बार गलतियां करने और पछताने की जरूरत ही न पड़े।