रोहित कुमार

आज दौर सत्य से ज्यादा तथ्य का है। आलम यह है कि एक स्वयंभू तंत्र विकसित हो गया है तथ्यों के आधार पर। इसी के साथ तथ्य को नया नाम भी मिला- डेटा। इस नई शिनाख्त के साथ सामने आई सूचना, तथ्य और ज्ञान की एक ऐसी दुनिया जिसने परंपरा और रचना के अब तक के मानवीय अनुभव को तेजी से खारिज करना शुरू किया। लिहाजा मिटती और पीछे छूटती कुछ बातों पर हमें फिर से विचार करना चाहिए ताकि सीख और ज्ञान की सदियों से प्रवाहित नदी सूख न जाए, हम उसकी सजलता से वंचित न रह जाएं। इस लिहाज से बात सबसे पहले उन स्मृतियों की जिसने हमारे मानस और संस्कार को गढ़ने में बड़ी भूमिका निभाई है।

इस सिलसिले में यह समझना खासा दिलचस्प है कि शास्त्र या ग्रंथ जब लोक आस्था और स्मृति का हिस्सा बन जाते हैं, तो वे वैसे ही नहीं रहते जैसा उन्हें वर्णित किया गया होता है। यहां आकर उन्हें चूंकि लोक सहजता की अपेक्षाओं पर खड़ा होना होता है, इसलिए उसे अपनी मौलिकता से आगे की यात्रा करनी होती है। किंवदंती इसी सफरनामे का नाम है। किंवदंती के बारे में देश में समाजवादी विचार और आंदोलन के नायक डा राममनोहर लोहिया बहुत सुंदर तरीके से विचार करते हैं।

वे लिखते हैं, “किसी कौम की किंवदंतियां उसके दुख और सपनों के साथ उसकी चाह, इच्छा और आकांक्षाओं का प्रतीक हैं तथा साथ-साथ जीवन के तत्व उदासीनता और स्थानीय व संसारी इतिहास का भी। राम और कृष्ण और शिव भारत की उदासी के साथ-साथ रंगीन सपने हैं। उनकी कहानियों में एकसूत्रता ढूंढ़ना या उनके जीवन में अटूट नैतिकता का ताना-बाना बुनना या असंभव व गलत लगनेवाली चीजें अलग करना उनके जीवन का सब कुछ नष्ट करने जैसा होगा। केवल तर्क बचेगा। हमें बिना हिचक के मान लेना चाहिए कि राम, कृष्ण और शिव कभी पैदा नहीं हुए, कम से कम उस रूप में, जिसमें कहा जाता है। उनकी किंवदंतियां गलत और असंभव हैं। उनकी शृंखला भी कुछ मामले में बिखरी है जिसके फलस्वरूप कोई तार्किक अर्थ नहीं निकाला जा सकता। लेकिन यह स्वीकारोक्ति बिल्कुल अनावश्यक है।”

इन बातों को जानें-समझे और इनसे चिंताओं के मर्म तक पहुंचे तो साफ लगेगा कि डा लोहिया किंवदंतियों की तार्किक अहमियत पर उठने वाले सवालों को गैरमुनासिब नहीं ठहराते हैं। हां, वे इस तरह की बहस के इस या उस छोर पर खड़े होकर की जाने वाली बहस और उसके साथ किए जाने वाले तर्क को जरूर गैरजरूरी मानते हैं। किंवदंतियों को यह संसार किस तरह खासतौर पर तीन आराध्यों राम, कृष्ण और शिव तक पहुंचकर किस तरह आस्था-लोक बन जाता है, इस बारे में अलग से कुछ कहने की जरूरत नहीं।

आलम यह है कि इन नामों की लोक स्वीकृति या इनके लिए भारतीय लोकमन में सदियों से रही आस्था को दरकिनार कर हम भारतीय मन के बारे में कोई बात नही कर सकते हैं। इस संबंध में डॉ. लोहिया कहते हैं, “भारतीय आत्मा के इतिहास के लिए ये तीन नाम सबसे सच्चे हैं और पूरे कारवां में महानतम हैं। इतने ऊंचे और इतने अपूर्व हैं कि दूसरों के मुकाबले में गलत और असंभव दिखते हैं। जैसे पत्थरों और धातुओं पर इतिहास लिखा मिलता है वैसे ही इनकी कहानियां लोगों के दिमागों पर अंकित हैं जो मिटाई नहीं जा सकतीं।”

इन बातों को समकालीन संदर्भों के साथ देखें-समझें तो कई आंख खोलने वाली निष्पत्तियां हमारे सामने होंगी। देश और समाज की स्फीति आज राजनीतिक दायरों में भी दिखती है। यही कारण है कि आचरण, विचार और नेतृत्व का समास अब हमें कम देखने को मिलता है। पर ऐसा हमेशा से नहीं रहा है। स्वाधीनता संघर्ष के दौरान भारतीय नेतृत्व की यह सामासिक खूबी आजादी के बाद के कुछ दशकों तक देखने को मिली। विनोबा और जयप्रकाश नारायण जैसे लोग सीधे-सीधे राजनीति से नहीं जुड़े थे तो भी उन्होंने भारतीय सार्वजनिक जीवन की धज को ऊंचा रखा। इस लिहाज से एक नाम और जो बेहद अहम है, वह है राममनोहर लोहिया का।

किंवदंतियों के बारे में वे कहते हैं, “दुनिया के देशों में हिंदुस्तान किंवदंतियों के मामले में सबसे धनी है। हिंदुस्तान की किंवदंतियों ने सदियों से लोगों के दिमाग पर निरंतर असर डाला है। इतिहास के बड़े लोगों के बारे में, चाहे वे बुद्ध हों या अशोक, देश के चौथाई से अधिक लोग अनभिज्ञ हैं। दस में एक को उनके काम के बारे में थोड़ी-बहुत जानकारी होगी और सौ में एक या हजार में एक उनके कर्म और विचार के बारे में कुछ विस्तार से जानता हो तो अचरज की बात होगी।”

दिलचस्प है कि आमतौर पर विद्वतजन किंवदंतियों को भारतीयता की व्याख्या के लिहाज से या भारतीय लोकमानस की रचना को समझने के लिए खास अहमियत नहीं देते हैं। डॉ. लोहिया इस स्थिति को समझते थे। वे विद्वान तो थे ही तार्किक दृष्टि से भी काफी सशक्त थे। इसलिए वे विद्वानों की समझ से सीधे भिड़ने के बजाय आगे अपनी बात पौराणिकता तक ले जाते हैं। उनकी किंवदंती की व्याख्या ग्रंथ, आस्था, और परंपरा के सम्मिलिन को रेखांकित करती है। डॉ. धर्मपाल इसी बात को “भारतीय चित्त, मानस और काल” की व्याख्या करते हुए बार-बार कहते हैं।