बनारस अपने हर रंग में खास है। यहां की बोली और किस्से-कहानियों के तौ खैर कहने ही क्या। यहां से जुड़ी कहानियों का प्रचलन तो बरकरार है ही, इनसे मिलने वाली सीख भी जरूरी और सामयिक है। ऐसा ही एक बनारसी किस्सा है जो जीवन के अर्थ और गहरे मर्म से जुड़ा है।

बनारस की एक सड़क के किनारे एक बूढ़ा भिखारी अक्सर बैठा मिलता था। वह कहीं और नहीं बैठता बल्कि वह उसकी एक तरह से निश्चित जगह थी। उसके वहां बैठने के कारण उस जगह की वहां के लोगों के लिए एक अलग पहचान बन गई थी। वहां से गुजरने वाले पैसे या कुछ खाने-पीने के लिए उसे दे देते। इसी से उसका जीवन किसी तरह चल रहा था। उसके शरीर पर कई घाव हो गए थे, जिनसे उसे बहुत कष्ट होता था। वह चाहकर भी अभाव के कारण अपना इलाज नहीं करवा पा रहा था।

एक युवक रोज उधर से आते-जाते उस भिखारी को देखता। एक दिन वह भिखारी के पास आकर बोला, ‘बाबा! इतनी कष्टप्रद अवस्था में भी आप जीने की आशा रख रहे हैं जबकि आपको ईश्वर से मुक्ति की प्रार्थना करनी चाहिए।’ भिखारी ने युवक को उत्तर दिया, ‘मैं ईश्वर से रोज जीवन मुक्ति के लिए ही प्रार्थना करता हूं लेकिन वह मेरी प्रार्थना सुनता ही कहां है। शायद वह मेरे माध्यम से लोगों को यह संदेश देना चाहता है कि किसी का भी हाल मेरे जैसा हो सकता है। मैं भी पहले तुम लोगों की तरह ही था।

अहंकारवश अपने किए कर्मों के कारण मैं यह कष्ट भोग रहा हूं। इसलिए मेरे उदाहरण के जरिए वह सबको एक सीख दे रहा है।’ युवक ने बूढ़े भिखारी को प्रणाम किया और उसकी दी सीख को खुद तो गांठ बांध ही ली और लोगों को भी बताया। जीवन और कर्म से जुड़ी यह सीख वाकई बड़े काम की है।