संवेदना मनुष्यता की एक ऐसी सजल दरकार है, जिसकी अवहेलना हर दौर में मनुष्य को बहुत भारी पड़ी है। यही वजह है कि इस दरकार का रेखांकन हर दौर में हुआ है। इस बारे में कई लोक कथाएं भी परंपरा में रही हैं। इन कथाओं में इस बात को बहुत सुंदर ढंग से रखा गया है कि मनुष्य किसी को आहत करके खुश नहीं रह सकता। ऐसा अगर नहीं है तो वह एक भटकाव है, मनुष्य की स्वाभाविक प्रवृत्ति नहीं। इस बारे में एक बाल कथा बहुत प्रसिद्ध है। अच्छी बात यह कि इसे सुनते-सुनाते हुए हर वय के लोग जीवन के संवेदनशील दरकारों के प्रति जिम्मेदार बने हैं।
ऐसी ही एक कथा में बताया गया है कि एक गुरु और उनका शिष्य एक दिन कहीं टहलने निकले। रास्ते में एक जोड़ी पुराने जूते पड़े थे, जो संभवत: पास के खेत में काम कर रहे गरीब मजदूर के थे। शिष्य को थोड़ी बदमाशी सूझी। उसने शिक्षक से कहा, ‘गुरुजी क्यों न हम ये जूते कहीं छिपा कर झाड़ियों के पीछे छिप जाएं।’
इस पर गुरु ने गंभीरता से कहा, ‘किसी गरीब के साथ इस तरह का भद्दा मजाक करना ठीक नहीं है।’ शिष्य की इच्छा से अलग गुरु ने कहा कि क्यों न हम इन जूतों में कुछ सिक्के डाल दें और छिपकर देखें कि इसका मजदूर पर क्या प्रभाव पड़ता है।
जैसा गुरु ने कहा, शिष्य ने भी वैसा ही कियाा। मजदूर जल्द ही अपना काम खत्म करके जूतों की जगह पर आ गया। उसने जल्दी से जूते हाथ में लिए और देखा कि अंदर कुछ सिक्के पड़े थे। उसे बड़ी हैरत हुई। जब उसने दूसरा जूता उठाया तो उसमे भी सिक्के थे। उसने हाथ जोड़कर ऊपर देखते हुए कहा, ‘हे प्रभु, समय पर मिली इस सहायता के लिए उस अनजान मददगार का बहुत शुक्रिया। उसकी दयालुता के कारण आज मेरे भूखे बच्चों को भरपेट भोजन मिल सकेगा।’ मजदूर की बातें सुन शिष्य बहुत भावुक हो गया। गुरु ने उसे समझाया कि मजबूर की मदद से बढ़कर दुनिया में कोई खुशी नहीं है।