रूपा

ईश्वर की अवधारणा और स्वीकृति के बीच श्रद्धा और धर्म की कई तहें हैं। इन तहों से गुजरते हुए कई बार हम भावुक या फौरी समझ बना लेते हैं। इस भावुकता को सीधे-सीधे गलत तो नहीं ठहरा सकते पर इस खतरे से भी इनकार नहीं कर सकते कि इस कारण हम कई बार नासमझी के शिकार होते हैं। मसलन, ज्यादातर लोग मानते हैं कि ईश्वरकृपा के सागर हैं। वे दयानिधान हैं। उनकी शरण में आकर सारे अधम-अपराध धुल जाते हैं। यह भी कि ईश्वर अपने नजदीक आने वाले बड़े से बड़े कसूरवार को माफ कर देते हैं।

यह एक ठग समझ है। यह समझ ईश्वर को समझने से ज्यादा खुद के प्रति बड़ी ठगी है, बेईमानी है। शब्दों की सख्ती से बचना हो तो कह सकते हैं कि एक भावुक नासमझी है, आत्मछल है। परमात्मा मददगार हैं, उनमें करुणा भरी है। यह सत्य स्थूल नहीं बल्कि सूक्षम है। दार्शनिकों ने इसके लिए कहा है- अनुकंपा का नियम (ला आफ ग्रेस)। वह नियम काम करना शुरू कर देता है, जब एक बार आप उस क्षेत्र में दाखिल होते हैं। जब आप स्वयं ही प्रकाश होने लगते हैं तो यह नियम अपना काम शुरू कर देता है और आप खिंचने लगते हैं, रूपांतरित होने लगते हैं।

दीपावली सामने है। हर तरफ बात प्रकाश की हो रही है। खूब सारी तैयारियां भी चल रही हैं। पर आत्म प्रकाश की जगह बाह्य प्रकाश की तैयारी ज्यादा है। बाह्यता का यह आकर्षण ईश्वर और भक्ति से जब लैस हो जाए तो जो हासिल होता है, वह प्रकाश नहीं है। बल्कि मोह और अज्ञान का अंधकार है। ईश्वर के नाम पर अंधकार न फैले इसलिए कुछ बातें ईश्वरीय आभा के साथ सत्य और ज्ञान की। सबसे पहले तो यह कि जीवन अंधकार में भटकने के लिए नहीं है। प्रकाश ही जीवन का आधार है। विज्ञान भी इस कथन से सहमत है। विज्ञान की यह सहमति उसकी सीमा भी है। प्रकाश और ऊर्जा तक पहुंच कर विज्ञान समाप्त हो जाता है। इससे आगे उसके पास कुछ नहीं है। पर ईश्वर या आत्मसत्य की बात करने वालों के पास इससे आगे भी बहुत कुछ है।

प्रकाश और विज्ञान की समझ को लेकर ओशो ने कुछ बातें कही हैं। पर वे इस प्रसंग में लोगों को सुलझाते कम, उलझाते ज्यादा हैं। वे प्रकाश और ईश्वर की समझ को जानबूझकर अलगाते हैं ताकि बाकी विचारकों और दार्शनिकों से वे थोड़े भिन्न और मौलिक दिखें। वे कहते हैं कि प्रकाश के दो गुण हैं-प्रकाश का होना और अस्तित्व का होना। अस्तित्व हो सकता है बिना प्रकाश के भी। पर प्रकाश बिना अस्तित्व के नहीं। आगे वे यह भी कहते है कि परमात्मा शुद्ध अस्तित्व है। अत: यह शब्द या यह वाक्य कि ‘परमात्मा है’, भ्रांतिपूर्ण है, क्योंकि ‘परमात्मा’ और ‘है’ दोनों का एक ही अर्थ होता है।

वे अपनी बात को एक उदाहरण से साफ करते हैं। एक मेज है। ऐसा कहना सही है। लेकिन यह कहना कि ‘परमात्मा है’, सही नहीं है। ‘मनुष्य है’, क्योंकि मनुष्य नहीं भी हो सकता है, अतएव मनुष्य और उसका होना, ‘इजनेस’ दो अलग-अलग बातें हैं, जो कि जोड़ी गई हैं। उन्हें अलग किया जा सकता है। किंतु परमात्मा है, यह कहना ठीक नहीं है, क्योंकि परमात्मा का मतलब ही होता है- होना (इजनेस)। यह कहना कि परमात्मा है, पुनरुक्ति है। ओशो को इस समझ पर एतराज है कि जब आप प्रकाश में प्रवेश करते हैं, तब आप ‘इजनेस’ में, अस्तित्व में प्रवेश करते हैं।

लिहाजा प्रकाश सिर्फ उसका प्रभामंडल है। माना जा सकता है कि यहीं से यह भावुक समझ भी जन्म लेती है कि ईश्वर खुद में अक्षय प्रकाश है, इसलिए वे व्यक्ति के हर तरह के तम को, अधम को दूर कर सकता है। ईश्वर और उदारता की समझ का जो एक और कारण है, वह है- करुणा। प्रकाश की तरह ही ईश्वर को प्रेम या करुणा की तरह भी देखा गया है। ईश्वर उदारहीन नहीं हो सकता, करुणा उसका तात्विक रूप है, संग्रह है।

इस मामले में सबसे समाधानकारी बात महात्मा बुद्ध करते हैं। वे ईश्वर और भक्ति की दूरी को समाप्त करते हैं। वे प्रकाश और अस्तित्व जैसी किसी तार्किक व्याख्या में भी नहीं उलझते। वे सीधे तौर पर कहते हैं- ‘अप्प दीपो भव।’ यानी अपना प्रकाश स्वयं बनो। किसी दूसरे से उम्मीद लगाने के बजाए अपना प्रकाश (प्रेरणा) खुद बनो। खुद तो प्रकाशित हो ही, दूसरों के लिए भी प्रकाश स्तंभ बनो। बुद्ध के यहां सत्य और आत्मप्रकाश दोनों एक ही है। वे इसी में व्यक्ति और करुणा को भी देखते हैं। बुद्ध कहीं न कहीं आत्मज्ञान और उसके प्रसार की बात पर जोर देते हैं। उनके लिए ईश्वर की कोई अलग आभा नहीं है। जो आभा या प्रकाश है, वह आत्मज्ञान का है। इस संबंध में एक रोचक प्रसंग है।

बुद्ध ने अपने प्रिय शिष्य आनंद से उसके यह पूछने पर कि जब सत्य का मार्ग दिखाने के लिए आप या कोई आप जैसा पृथ्वी पर नहीं होगा तब हम कैसे अपने जीवन को दिशा दे सकेंगे? तो भगवान बुद्ध ने जवाब दिया- ‘अप्प दीपो भव’ अर्थात अपना दीपक स्वयं बनो। कोई भी किसी के पथ के लिए सदैव मार्ग प्रशस्त नहीं कर सकता। केवल आत्मज्ञान के प्रकाश से ही हम सत्य के मार्ग पर आगे बढ़ सकते हैं। कुछ लोगों ने आत्मप्रकाश और आत्मज्ञान की इस व्याख्या को क्रांतिकारी माना है। क्योंकि इसके मुताबिक खुद के बदलाव से दुनिया के बदलाव का रास्ता खुलता है, खुद की रौशनी से दुनिया के रौशन होने की उम्मीद बढ़ती है।