दुनिया की अलग-अलग भाषा-संस्कृति में कई ऐसी लोक कथाएं हैं, जो आज भी पढ़ी-सुनी जाती हैं और लोग उनसे प्रेरणा लेते हैं। ऐसी ही कथा एक गुरु और उनके दो शिष्यों की है। एक शिष्य पढ़ाई में बहुत प्रतिभाशाली था और दूसरा फिसड्डी। पहले शिष्य की हर जगह प्रशंसा होती थी, सम्मान होता था। जबकि दूसरे शिष्य की लोग उपेक्षा करते थे, उसके बारे में कुछ भी कहते रहते थे। एक दिन रोष में दूसरा शिष्य गुरु के पास जाकर बोला, ‘गुरुजी! मैं उससे पहले से आपसे ज्ञानार्जन कर रहा हूं। फिर भी आपने उसे मुझसे अधिक शिक्षा दी।’

गुरुजी थोड़ी देर मौन रहने के बाद बोले, ‘पहले तुम एक कहानी सुनो। एक मुसाफिर कहीं जा रहा था। रास्ते में उसे प्यास लगी। थोड़ी दूर पर उसे कुआं मिला। वहां बाल्टी तो थी लेकिन रस्सी नहीं थी। इसलिए वह आगे बढ़ गया। थोड़ी देर बाद एक दूसरा मुसाफिर वहां पहुंचा। कुएं पर रस्सी न देखकर उसने इधर-उधर देखा। पास में ही बड़ी-बड़ी घास उगी थी। उसने घास उखाड़कर रस्सी बांटनी शुरू कर दी।

थोड़ी देर में एक लंबी रस्सी तैयार हो गई, जिसकी सहायता से उसने कुएं से पानी निकाला और अपनी प्यास बुझा ली।’ गुरुजी ने उस शिष्य से पूछा, ‘अब तुम मुझे यह बताओ कि प्यास किस मुसाफिर को ज्यादा लगी थी?’ शिष्य ने उत्तर दिया कि दूसरे को।

गुरुजी बोले, ‘प्यास दूसरे मुसाफिर को ज्यादा लगी थी। यह हम इसलिए कह सकते हैं क्योंकि उसने प्यास बुझाने के लिए परिश्रम किया। उसी तरह तुम्हारे सहपाठी में ज्ञान की प्यास है। जिसे बुझाने लिए वह कठिन परिश्रम करता है। जबकि तुम ऐसा नहीं करते।’

शिष्य को अपने प्रश्न का उत्तर मिल चुका था। वह भी कठिन परिश्रम में जुट गया। दरअसल, जिज्ञासा, ज्ञान और कर्म तीनों एक ही सीध के शब्द हैं। इनमें से किसी एक के न होने से मनुष्य का जीवन निरर्थक होने लगता है।