काफी देर हो गई। गांधी समझ नहीं पाए कि रवींद्रनाथ को तैयार होने में इतनी देर क्यों लग रही है। वे ऊपर बरामदे में चढ़ गए। कुटिया का दरवाजा खुला था। गांधी ने देखा कि रवींद्रनाथ आईने के सामने खड़े हैं और अपने बाल संवार रहे हैं। काफी देर से बाल संवारे जा रहे हैं। तब गांधी का धैर्य जवाब दे गया। उन्होंने कहा कि अब इस उम्र में इतना बाल संवारने की क्या जरूरत। फिर, आप तो जिस भी अवस्था में चल पड़ेंगे, वही लोगों के मन पर अच्छा प्रभाव छोड़ेगा, लोग कुछ कहेंगे भी क्या।
रवींद्रनाथ ने कहा, आप तो अहिंसा के पुजारी हैं। जानते हैं, जब हम ठीक से सज-संवर कर लोगों के सामने पेश न हों तो उनके मन पर बुरा प्रभाव पड़ता है। अपनी कुरूपता से किसी के मन पर बुरा असर डालना भी एक प्रकार की हिंसा है। आपने तो जिस तरह की वेश-भूसा अपना रखी है, उसमें सजने-संवरने की कोई खास जरूरत नहीं पड़ती, मगर मुझे पड़ती है।
गांधी और रवींद्रनाथ ने अपनी वेश-भूसा अपने मन से चुनी थी और वही लोगों के मन में बस गई थी। हालांकि यह भी कोई अच्छी बात नहीं कि आपकी पहचान आपकी वेश-भूसा से जुड़ जाए। गांधी और टैगोर ने उस वेश-भूसा को जीवन भर निभाया। पर कहने का अर्थ यह कि अगर हम अच्छा परिधान पहनते हैं, सज-संवर कर रहते हैं,ऐसा वस्त्र पहनते हैं, जिसका लोगों के मन पर अच्छा प्रभाव पड़ता है,तो जरूर वैसा करने का प्रयास करना चाहिए। सज-संवर कर रहने से अपने मन भी अच्छा प्रभाव पड़ता है। सौंदर्य की रक्ष करना भी मनुष्य के बहुत सार धर्मों में से एक धर्म है।