स्वाधीनता के लिए भारतीयों का संघर्ष जैसे-जैसे आगे बढ़ा, वैसे-वैसे समाज और राष्ट्र के तौर पर भारत की आधुनिक बनावट का सांचा भी पकता गया। इस बनावट को मुकम्मल बनाने के लिए एक तरफ जहां भाषा और शिक्षा से जुड़ी नई समझ पर व्यापक सहमति बनाने की कवायद दिखती है, वहीं दूसरी तरफ सामाजिक जागरूकता का वह स्वरूप भी सामने आता है, जिसमें सबसे अहम है लैंगिक बराबरी पर जोर। लिहाजा इस पूरे दौर को महज राष्ट्रप्रेम की भावुकता के साथ देखना-समझना एक इकहरा नजरिया होगा।
इस दौर की खासियत इस देश की बहुरंगता की तरह है, जिसमें चेतना और संघर्ष के कई प्रेरक रंग एक साथ दिखाई देते हैं। मसलन अगर हम भारत में महिलावादी संघर्ष की बात करें तो आजादी के बाद इस दिशा में हुई कई तारीखी पहल आजादी के पहले से जारी जद्दोजहद का ही हासिल हैं। इस लिहाज से एक नाम जो खासा अहम है, वो डॉ. वीणा मजूमदार का है।
वीणा का जन्म 1927 में कोलकाता के एक मध्यवर्गीय परिवार में हुआ। उन्होंने कोलकाता में स्कूली शिक्षा ग्रहण करने के बाद बनारस हिंदू विश्वविद्यालय तथा कोलकाता विश्वविद्यालय से उच्च शिक्षा ग्रहण की। बाद में उन्होंने आक्सफोर्ड विश्वविद्यालय से डाक्टर आफ फिलासफी की उपाधि प्राप्त की। वीणा मजूमदार ने अपना करियर 1951 में पटना विश्वविद्यालय से राजनीति विज्ञान के शिक्षक के रूप में शुरूकिया।
गौरतलब है कि वो पटना विश्वविद्यालय शिक्षक संघ की पहली सचिव थीं। बाद में उन्होंने बहरमपुर विश्वविद्यालय में भी पढ़ाया। वीणा मजूमदार विश्वविद्यालय अनुदान आयोग में शिक्षा अधिकारी भी रहीं। इसके अलावा वो इंडियन इंस्टीट्यूट आफ एडवांस्ड स्टडीज, शिमला की फेलो और भारतीय समाज अध्ययन शोध परिषद की महिला अध्ययन कार्यक्रम की निदेशक भी रहीं।
1971 में देश में महिलाओं की स्थिति पर गठित पहली समिति की वो सदस्य सचिव थीं। इस समिति ने 1974 में देश में महिलाओं और पुरुषों के बीच समानता को लेकर पहली रिपोर्ट तैयार की थी। इस रिपोर्ट में पहली बार यह बात तथ्यात्मक विश्लेषण के साथ सामने आई कि खेती से उद्योग की तरफ बढ़ रहे समाज में महिलाओं पर गरीबी की बड़ी मार पड़ रही है। साथ ही रिपोर्ट में इस चिंता को भी रेखांकित किया गया कि भारतीय समाज में लैंगिक अनुपात असामान्य रूप से असंतुलित होता जा रहा है। यह रिपोर्ट महिलाओं से जुड़े अध्ययन और देश में महिला आंदोलन के लिहाज से अहम साबित हुई।
वीणा मजूमदार महिला विकास अध्ययन संस्थान, नई दिल्ली की सह संस्थापक थीं और यहां उन्होंने 1980 से 1991 तक संस्थापक निदेशक के तौर पर अपनी सेवाएं दीं। इस संस्थान ने देश में महिला मुद्दों पर ठोस जमीनी अध्ययन की शुरुआत की जो बाद में महिला अध्ययन की सुदृढ़ परंपरा की शक्ल में आगे बढ़ी। वो इंडियन एसोसिएशन आफ वीमंस स्टडीज की संस्थापकों में भी थीं। इससे आगे भी उनकी अकादमिक संलग्नता और भूमिका का लंबा और आकर्षक ब्योरा है।
आज जब वो हमारे बीच नहीं हैं और इस दौरान देश में महिला अध्ययन और संघर्ष का साझा कारवां काफी आगे बढ़ गया है तो आजादी के बाद देश में महिला विमर्श के सिद्धांतकार के तौर पर उनकी भूमिका कई मायनों में उल्लेखनीय मानी जाएगी। खासतौर पर जिस विवेक और तार्किकता के साथ उन्होंने महिला संघर्ष की सैद्धांतिकी रची और उसके लिए दिशा तय की वह विमर्श के स्तर पर तो पुख्ता था ही, उसमें भारतीय महिलाओं का देशकाल हर लिहाज से केंद्र में था।