शायरी और सिनेमा के रिश्ते को एक साथ जीने वाले कई ऐसे लोग हुए हैं, जिनकी धूम सिने जगत में तो रही ही है, साहित्य के क्षेत्र में भी उनका खासा सम्मान रहा है। इस कतार में कोई चाहे तो साहिर लुधियानवी का नाम लेकर इस शायर के बारे में बहुत कुछ कह-समझ सकता है। पर साहिर की दुनिया इतने भर से ही अगर पूरी होती तो सौ साला सफरनामे के बाद इस शायर के नाम और कलाम पर बहुत धूल जम जानी चाहिए थी, पर ऐसा नहीं है। दरअसल, उर्दू शायरी में प्रगतिशीलता का जो तेवर आज तक नजर आता है, उस तेवर को बहाल रखने में साहिर का बड़ा योगदान रहा है। बात इश्क की हो कि समाज की, साहिर ने शायराना फिक्र को ऐसी जनवादी शक्ल दी, जिसका असर पूरे उर्दू अदब पर पड़ा।
साहिर का मूल नाम अब्दुल हई था। उनका जन्म आठ मार्च, 1921 को लुधियाना में हुआ था। जब वे महज 13 साल के थे तो उनके पिताजी ने दूसरी शादी कर ली, तब उनकी मां ने एक बड़ा कदम उठाकर अपने पति को छोड़ने का फैसला किया। साहिर अपनी मां के साथ रहे। खासतौर पर महिलाओं के बारे में साहिर की शायरी में जो प्रगतिशील और इंकलाबी रुझान दिखता है, उसके पीछे उनकी जिंदगी के कुछ तल्ख तजुर्बात हैं।
अपनी पढ़ाई-लिखाई के दिनों में ही साहिर का शायरी के प्रति खासा झुकाव हो चुका था। 24 साल की उम्र में उनकी किताब ‘तल्खियां’ न सिर्फ आ चुकी थी बल्कि इस कारण साहिर शोहरत की बुलंदियों को छू रहे थे। इस दौरान वे उर्दू अखबार ‘अदबे-लतीफ’, ‘शाहकार’ और ‘सवेरा’ के संपादक बन चुके थे। ‘सवेरा’ में उन्होंने हुकूमते-पाकिस्तान की मुखालफत की तो उनके नाम गिरफ्तारी का वारंट जारी हो गया। वे हिंदुस्तान चले आए और यहां आकर प्रगतिशील लेखकों की जमात में शामिल हो गए। 50 और 60 के दशक में तरक्कीपसंद शायरी का एक नया उठान हर तरफ देखने को मिल रहा था। फैज से लेकर पाब्लो नेरुदा तक का लेखन लोगों को अदब के जनवादी सरोकारों से जोड़ रहा था। साहिर पर फैज और मजाज का असर ज्यादा रहा।
साहिर जब कॉलेज में पढ़ते थे तो उन्हें अमृता प्रीतम से प्रेम हो गया था। यह प्रेम विफल रहा। यह टीस बाद तक दोनों के जीवन पर छाई रही। कहते हैं कि साहिर मुसलमान थे, इस वजह से अमृता के माता-पिता को यह प्रेम रास नहीं आ रहा था। बात यहां तक बिगड़ गई कि अमृता के पिता के कहने पर साहिर को कॉलेज से निकाल दिया गया था। साहिर ने लिखा है- ‘जज्बात भी हिंदू होते हैं, चाहत भी मुसलमां होती है/ दुनिया का इशारा था लेकिन समझा न इशारा दिल ही तो है।’ बाद के दिनों में साहिर का नाम गायिका सुधा मल्होत्रा से भी जुड़ा, लेकिन यह करीबी भी आखिरकार दूरी में तब्दील हुई। इसके बाद तो जैसे उन्होंने खुद को अकेला ही मान लिया और आजीवन अविवाहित रहे।
साहिर के हिंदुस्तान आते ही फिल्मों से उनके जुड़ाव में ज्यादा वक्त नहीं लगा। देखते-देखते वे फिल्मों के कामयाब होने की जमानत मान लिए गए। 1950-1975 के हिंद फिल्मों का पूरा दौर साहिर के नाम है। ‘प्यासा’, ‘फिर सुबह होगी’, ‘कागज के फूल’, ‘चौदहवीं का चांद’, ‘नया दौर’, ‘काजल’, ‘चंद्रलेखा’ और ‘कभी-कभी’ जैसी तमाम ऐसी फिल्में हैं जो साहिर के नग्मों के बिना सोची ही नहीं जा सकती थी। 1971 में सरकार ने उन्हें पद्मश्री सम्मान से नवाजा। यार-दोस्तों और महफिलों के बीच जीनेवाला यह शायर आखिरी दिनों में अपने कई अजीजों का एक के बाद एक साथ छूटने से थोड़ा टूटने लगा था। 25 अक्तूबर, 1980 को दिल का दौरा पड़ने से उनका निधन हो गया।