गांधी और आंबेडकर, ये दो ऐसे नाम है जिनसे जुड़े सरोकारी विमर्श और मंथन के साथ समाज और राजनीति के क्षेत्र में बदलाव के अलाव की ताप को हम लगातार महसूस कर सकते हैं। दरअसल, इस ताप का कम या ज्यादा होना ही स्वाधीनता संघर्ष के उत्तरार्ध और स्वाधीनता बाद के भारत का इतिहास है। इन दो नामों में से बात अकेले भीमराव आंबेडकर की करें तो आज भी नेपथ्य में खड़ा उनका नायकत्व देश में सामाजिक संघर्ष का कंपास तय कर रहा है।

भारतीय सामाजिक जीवन में धार्मिक और जातिगत विषमता का दंश जिस तरह उन्होंने झेला और जिस तरह वे इसके लिए आजीवन संघर्ष करते रहे, उसके आगे का अध्याय उनकी मृत्यु के कई साल बाद एक आंदोलनकारी प्रेरणा बनकर देश को पूरी तरह झकझोर गया। इतिहास के इस नवविहान के बीच उस महिला के बारे में भी नए सिरे से जिज्ञासा पैदा हुई, जिसने जीवनसंगिनी के रूप में आंबेडकर का साथ आखिर दम तक दिया। यह महिला थी रमाबाई आंबेडकर।

रमाबाई को महाराष्ट्र सहित देश के कई हिस्सों में लोग श्रद्धा से ‘मातोश्री’ के नाम से बुलाते हैं। आंबेडकर और इस देश के लोगों के प्रति जो समर्पण रमाबाई का था, उसे देखते हुए कई लेखकों ने उन्हें ‘त्यागवंती रमाई’ का नाम दिया।

सात फरवरी, 1898 को जन्मी रमा के परिवार की आर्थिक स्थिति बहुत अच्छी नहीं थी। बचपन में ही उनके माता-पिता का निधन हो गया था। ऐसे में मामा ने उन्हें और उनके भाई-बहनों को पाला। 1906 में महज नौ साल की अवस्था में रमा की शादी 14 वर्षीय भीमराव से हुई। रमाबाई को भीमराव प्यार से ‘रामू’ बुलाते थे और वो उन्हें ‘साहेब’ कहकर संबोधित करती थीं।

शादी के तुरंत बाद से ही रमा को समझ में आ गया था कि समाज के दबे-पिछड़े तबकों का उत्थान ही बाबा साहेब के जीवन का लक्ष्य है। बाबा साहेब के इस संघर्ष में रमाबाई ने अंतिम सांस तक उनका साथ दिया। बाबा साहेब ने खुद भी अपने जीवन में रमाबाई के योगदान को विनम्रता के साथ स्वीकार किया है।

आंबेडकर की एक किताब है- ‘थाट्स आन पाकिस्तान’। इस किताब को रमाबाई को समर्पित करते हुए बाबा साहेब ने लिखा है कि उन्हें मामूली से भीमा से डा आंबेडकर बनाने का श्रेय रमाबाई को जाता है। बाबा साहेब को लगता था कि बिना शिक्षा के सामाजिक न्याय का उनका संघर्ष आगे नहीं बढ़ सकता है।

रमाबाई को बाबा साहेब की यह बात बहुत पहले समझ आ गई थी। बाबा साहेब सालों अपनी शिक्षा के लिए घर से बाहर रहे और इस दौरान तमाम तानों और अभावों के बीच रमाबाई ने घर को संभाले रखा। कभी वे घर-घर जाकर उपले बेचतीं। नौबत यहां तक भी आई कि कई बार उन्हें दूसरों के घरों में काम भी करना पड़ा। वे इस तरह हर छोटे-बड़े काम से पति की पढ़ाई के लिए पैसे जुटाती थीं।

इस दौरान जिंदगी के कुछ दूसरे इम्तिहान भी चलते रहे। उनकी पांच संतानों में सिर्फ यशवंत ही जीवित रहे। यह एक बड़ा आघात था। पर इन सबके बीच रमाबाई ने हिम्मत नहीं हारी। इस दौरान वो लगातार बाबा साहेब का मनोबल बढ़ाती रहीं।

29 वर्ष तक बाबा साहेब का साथ निभाने के बाद साल 27 मई, 1935 को लंबी बीमारी के कारण रमाबाई का निधन हो गया। बाबा साहेब की ही तरह उनके जीवन पर भी कई नाटक, फिल्म और वृत्तचित्र बने हैं। उनके नाम पर देश के कई संस्थानों के नाम भी रखे गए हैं। महिला विमर्श और संघर्ष की दुनिया में रमाबाई का नाम एक प्रेरक सुलेख की तरह है।