ऐतिहासिक तौर पर हम देखें तो भारतीय स्वाधीनता आंदोलन के जोर पकड़ने से पहले समाज सुधार और शिक्षा के सवाल पर देश में एक नई चेतना के निर्माण की प्रक्रिया शुरू हो चुकी थी। इस चेतना को जिन शख्सियतों ने शक्ल दी, उनमें गोपाल कृष्ण गोखले का नाम सर्वप्रमुख है। महात्मा गांधी ने उन्हें अपना राजनीतिक गुरु माना है। गोखले की सलाह पर ही गांधी दक्षिण अफ्रीका से स्थायी तौर पर स्वदेश लौटने के बाद एक साल तक राजनीतिक गतिविधियों से दूर रहे और इस दौरान भारत भ्रमण करते रहे। इससे पहले 1912 में गांधी के आमंत्रण पर वे खुद दक्षिण अफ्रीका गए थे और वहां जारी रंगभेद की निंदा की थी।
भारत के स्वाधीनता संघर्ष को चेतना और संगठन दोनों ही स्तरों पर मजबूत करने गोखले अपने जीवन में जिस तरह नीति, निष्ठा और आचरण को लेकर अडिग रहे, वो अद्भुत है। उनका जन्म नौ मई, 1886 को तत्कालीन बंबई प्रेसिडेंसी के अंतर्गत महाराष्ट्र के रत्नागिरि जिले में हुआ था। एक गरीब ब्राह्मण परिवार से संबंधित होने के बावजूद उनकी शिक्षा-दीक्षा अंग्रेजी भाषा में हुई। 1884 में एल्फिंस्टन कॉलेज से स्नातक की उपाधि ग्रहण करने के साथ ही उनका नाम उस भारतीय पीढ़ी के नायकों में शुमार हो गया, जिसने पहली बार विश्वविद्यालय की शिक्षा प्राप्त की थी।
1905 में वे अपनी राजनैतिक लोकप्रियता के चरम पर थे। उन्हें भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का अध्यक्ष बनाया गया। इसके बाद उन्होंने भारतीय शिक्षा को विस्तार देने के लिए ‘सर्वेंट्स ऑफ इंडिया सोसाइटी’ की स्थापना की। इस संस्था ने कार्यकर्ताओं को देश की सेवा के लिए प्रशिक्षित किया। उसी साल गोखले ब्रितानी सरकार के भारतीयों पर किए जा रहे अनुचित सलूक पर अपने विचार प्रकट करने इंग्लैंड चले गए। 49 दिनों के अंतराल में उन्होंने 47 सभाओं को संबोधित कर अपने मिशन में बड़ी कामयाबी हासिल की।
गोखले ने हर मौके पर भारत में मूलभूत रूप से स्वराज या स्वशासन पाने के लिए नियमित सुधार की वकालत की। उनका मानना था कि स्वतंत्र और आत्मनिर्भर बनने के लिए शिक्षा और जिम्मेदारियों का बोध बहुत जरूरी है। उनके अनुसार मौजूदा संस्थान और भारतीय नागरिक सेवा पर्याप्त नहीं थी। उनकी संस्था का उद्देश्य युवाओं को शिक्षित करने के साथ-साथ उनके भीतर शिक्षा के प्रति रुझान भी विकसित करना था।
उन्होंने लगातार ब्रितानी हुकूमत की नीतियों के खिलाफ आवाज उठाई। खासतौर पर संवैधानिक सुधारों के लिए निरंतर जोर दिया। 1909 के ‘मिंटो-मार्ले सुधारों’ में बहुत श्रेय गोखले के प्रयासों को जाता है। ‘फूट डालो और शासन करो’ की नीति के तहत वायसराय लॉर्ड कर्जन ने 1905 में बंगाल का विभाजन कर दिया, जिसका परिणाम यह हुआ कि ब्रितानी हुकूमत के खिलाफ पूरे देश में विरोध का माहौल बना। बंगाल से लेकर देश के अन्य हिस्सों में विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार और स्वदेशी के स्वीकार का जबरदस्त आंदोलन चल पड़ा। एक तरफ जहां बाल गंगाधर तिलक, लाला लाजपत राय, विपिन चंद्र पाल और अरविंद घोष जैसे गरम दल के नेताओं ने इस आंदोलन का नेतृत्व किया, वहीं नरम दल की तरफ से गोखले ने इसका नेतृत्व किया।
भारतीय समाज की कई रुढ़ियों को गोखले भविष्य के भारत की निर्माण प्रक्रिया में बड़ी बाधा मानते थे। उन्होंने जातिवाद और छुआछूत के खिलाफ सघन आंदोलन चलाया। जननेता कहे जाने वाले गोखले नरमपंथी सुधारवादी थे। उन्होंने आज़ादी की लड़ाई के साथ ही देश में समाज सुधार के लिए कई आंदोलन चलाया। वे जीवनभर हिंदू-मुस्लिम एकता के लिए कार्य करते रहे। अत्यधिक व्यस्तता के कारण उनकी सेहत गिरती गई। 19 फरवरी,1915 को उनका निधन हो गया।