अश्विनी कुमार दत्त प्रसिद्ध राजनेता, सामाजिक कार्यकर्ता और देशभक्त थे। अध्यापक के रूप में उन्होंने अपना व्यावसायिक जीवन शुरू किया था। उनका जन्म बारीसाल जिले (पूर्वी बंगाल) में हुआ था। उन्होंने इलाहाबाद और फिर कोलकाता से अपनी कानून की शिक्षा प्राप्त की थी। इसके बाद उन्होंने कुछ समय तक अध्यापक पद पर भी कार्य किया। बाद में वर्ष 1880 में बारीसाल में वकालत शुरू कर दी थी।
अश्विनी दत्त जब हाईस्कूल में पढ़ते थे, उस समय कोलकाता विश्वविद्यालय का नियम था कि सोलह वर्ष से कम उम्र के विद्यार्थी हाईस्कूल की परीक्षा में नहीं बैठ सकते। अश्विनी कुमार दत्त की इस परीक्षा के समय उम्र चौदह वर्ष थी। पर जब उन्होंने देखा कि कई कम उम्र के विद्यार्थी सोलह वर्ष उम्र लिखवा कर परीक्षा में बैठ रहे हैं, तब उन्हें भी यही करने की इच्छा हुई। उन्होंने अपने आवेदन में सोलह वर्ष की उम्र लिख दी और परीक्षा दी। इसके ठीक एक वर्ष बाद जब अगली कक्षा की परीक्षा में उत्तीर्ण हुए, तब उन्हें अपने असत्य आचरण पर बहुत खेद हुआ। उन्होंने अपने कालेज के प्राचार्य से बात की और इस असत्य को सुधारने की प्रार्थना की।
प्राचार्य ने उनकी सत्यनिष्ठा की बड़ी प्रशंसा की, पर इसे सुधारने में अपनी असमर्थता जाहिर कर दी। अश्विनी कुमार का मन नहीं माना। फिर वे विश्वविद्यालय के रजिस्ट्रार से मिले, पर वहां से भी उन्हें यही जवाब मिला कि अब कुछ नहीं हो सकता। मगर सत्यनिष्ठ अश्विनी दत्त को प्रायश्चित करना था। इसलिए उन्होंने दो वर्ष झूठी उम्र बढ़ा कर जो लाभ उठाया था, उसके लिए दो वर्ष तक अपनी पढ़ाई बंद रखी और स्वयं द्वारा की गई उस गलती का उन्होंने प्रायश्चित किया।
अश्विनी कुमार दत्त की कोई संतान नहीं थी, इसलिए उन्होंने अपने क्षेत्र के स्कूल जाने वाले सभी बच्चों की शिक्षा की जिम्मेदारी अपने ऊपर ले ली थी। इसके साथ ही शिक्षा के प्रसार के लिए कुछ विद्यालय भी स्थापित किए। 1880 से ही अश्विनी कुमार दत्त ने सार्वजनिक कार्यों में भाग लेना शुरू कर दिया था। सर्वप्रथम उन्होंने बारीसाल में लोकमंच की स्थापना की। वर्ष 1886 में कांग्रेस के दूसरे कोलकाता अधिवेशन में प्रतिनिधि के रूप में भाग लिया।
1887 की अमरावती कांग्रेस में उन्होंने कहा- ‘यदि कांग्रेस का संदेश ग्रामीण जनता तक नहीं पहुंचा, तो यह सिर्फ तीन दिन का तमाशा बनकर रह जाएगी।’ उनके इन विचारों का प्रभाव ही था कि वर्ष 1898 में उनको पंडित मदनमोहन मालवीय, दीनशावाचा आदि के साथ कांग्रेस का नया संविधान बनाने का काम सौपा गया था।
बंगाल विभाजन ने अश्विनी दत्त के विचार बदल दिए। वे नरम विचारों के बजाय उग्र विचारों के हो गए थे। वे लोगों के उग्र विचारों के प्रतीक बन गए। उनके शब्दों का बारीसाल के लोग कानून की भांति पालन करते थे। बंगाल की जनता पर अश्विनी कुमार दत्त का बढ़ता हुआ प्रभाव अंग्रेज सरकार को सहन नहीं हुआ। सरकार ने उन्हें बंगाल से निर्वासित करके 1908 में लखनऊ जेल में बंद कर दिया। सन 1910 में वे जेल से बाहर आ सके। अब वे विदेशी सरकार से किसी प्रकार का सहयोग करने के विरुद्ध थे। उन्होंने महात्मा गांधी के ‘असहयोग आंदोलन’ का भी समर्थन किया। वे समाज सुधारों के पक्षधर थे और छुआछूत, मद्यपान आदि का सदा विरोध करते रहे।