गुरु-शिष्य संबंध को लेकर हमारे यहां कई बोध कथाएं प्रचलित हैं। इन कथाओं का बालमन पर तो अच्छा प्रभाव पड़ता ही है, बड़े भी इससे काफी प्रेरित होते हैं। ऐसी ही एक कथा है एक गुरु और संपन्न परिवार से संबंध रखने वाले युवा शिष्य की। एक दिन दोनों कहीं टहलने निकले। रास्ते में एक जोड़ी पुराने जूते पड़े थे, जो संभवत: पास के खेत में काम कर रहे गरीब मजदूर के थे और वो अब अपना काम खत्म करके घर वापस जाने की तैयारी कर रहा था। शिष्य को मजाक सूझा।

उसने शिक्षक से कहा, ‘गुरुजी क्यों न हम ये जूते कहीं छिपा कर झाड़ियों के पीछे छिप जाएं। जब वो मजदूर इन्हें यहां नहीं पाकर घबराएगा तो बड़ा मजा आएगा!’ गुरु ने गंभीरता से कहा, ‘किसी गरीब के साथ इस तरह का भद्दा मजाक करना ठीक नहीं है।’ शिष्य की इच्छा से अलग गुरु ने कहा कि क्यों न हम इन जूतों में कुछ सिक्के डाल दें और छिपकर देखें कि इसका मजदूर पर क्या प्रभाव पड़ता है। शिष्य को गुरु की बात अच्छी लगी और उसने ऐसा ही किया।

मजदूर जल्द ही अपना काम खत्म करके जूतों की जगह पर आ गया। उसने जैसे ही एक पैर जूते में डाला, उसे किसी कठोर चीज का आभास हुआ। उसने जल्दी से जूते हाथ में लिए और देखा की अंदर कुछ सिक्के पड़े थे। उसे बड़ा आश्चर्य हुआ और वो सिक्के हाथ में लेकर बड़े गौर से उन्हें उलट-पलट कर देखने लगा।

फिर वो इधर-उधर देखने लगा। दूर-दूर तक कोई नजर नहीं आया तो उसने सिक्के अपनी जेब में डाल लिए। जब उसने दूसरा जूता उठाया तो उसमे भी सिक्के पड़े थे।

मजदूर भाव-विभोर हो गया। उसने हाथ जोड़कर ऊपर देखते हुए कहा, ‘हे भगवान, समय पर मिली इस सहायता के लिए उस अनजान सहायक का बहुत धन्यवाद। उसकी दयालुता के कारण आज मेरी बीमार पत्नी को दवा और भूखे बच्चों को रोटी मिल सकेगी।’ मजदूर की बातें सुन शिष्य की आंखें भर आईं। गुरु ने कहा, ‘दुनिया में मजबूर की मदद से बढ़कर कोई खुशी नहीं है।’