किसी भी व्यक्ति के लिए जीवन में सफल होने के लिए जरूरी है कि वह संवेदनशील हो और साथ ही वह असंतोषी प्रवृत्ति का न हो। संवेदनशीलता जहां मानवता का प्राथमिक लक्षण है, वहीं संतोषी और संयमी होकर हम जीवन में बहुत से अनिष्ट से बच सकते हैं। वैसे यह सीख न तो नई है और न ही अप्रासंगिक। हर दौर में इस सीख की दरकार रही है और इसके बूते लोगों ने बड़ी कामयाबियां हासिल की हैं।

इस सीख से जुड़ी एक लोककथा बहुत प्रचलित है। कथा कुछ इस प्रकार है कि एक खेत में कुछ मजदूर काम कर रहे थे। कुछ देर काम करने के बाद वे काम छोड़ आपस में गप्पें हांकने लगे। यह देखकर खेत के मालिक ने उनसे कुछ नहीं कहा। उसने खुरपी उठाई और खुद काम में जुट गया। मालिक को काम करता देख मजदूर शर्म के मारे तुरंत काम में जुट गए। दोपहर में मालिक मजदूरों के पास जाकर बोला, ‘भाइयों! अब काम बंद कर दो। भोजन कर के आराम कर लो। बाकी काम बाद में होगा।’ इसके बाद मजदूर खाना खाने चले गए और थोड़ा आराम करके वे शीघ्र ही फिर काम पर लौट आए।

शाम को छुट्टी के समय पड़ोसी खेत वाले ने उस खेत के मालिक से पूछा, ‘भाई! तुम मजदूरों को छुट्टी भी देते हो। उन्हें डांटते भी नहीं हो। फिर भी तुम्हारे खेत का काम मेरे खेत से दोगुना कैसे हो गया। जबकि मैं लगातार अपने मजदूरों पर नजर रखता हूं। डांटता भी हूं और छुट्टी भी नहीं देता।’

इस पर पहले खेत के मालिक ने बताया, ‘भैया! मैं काम लेने के लिए सख्ती से ज्यादा स्नेह और सहानुभूति को प्राथमिकता देता हूं। इसलिए मजदूर पूरा मन लगाकर काम करते हैं। इससे काम ज्यादा भी होता है और अच्छा भी।’ साफ है कि अधीरता और असंवेदनशीलता अंतत: हमें नुकसान ही दे जाती है। इसलिए बेहतर है कि न हम किसी काम में अधीर हों और न ही कोई असंवेदनशील रवैया अख्तियार करें।