समाज और सरकार, दोनों के लिए कई राज्यों में बिगड़ता लिंगानुपात चिंता का विषय है। इसकी अहम वजह है कन्या भ्रूण हत्या। सोनोग्राफी यानी गर्भ की जांच करने वाली अल्ट्रासाउंड मशीनों के अस्तित्व में आने और गांव-कस्बों तक में उनका इस्तेमाल बढ़ने के बाद से हमारे देश के सामाजिक परिदृश्य से करीब पचास लाख बेटियां पिछले कुछ दशकों अजन्मी ही रह गर्इं। यह बात अक्सर समाजशास्त्री भी याद दिलाते हैं। यह एक घोषित अपराध है। इसके लिए कानून और सजाएं हैं। इसके बावजूद इसकी रोकथाम मुमकिन नहीं हो पा रही है। कानून का पालन नहीं हो पाना एक समस्या है। लेकिन, इसमें एक बड़ा पहलू परिवारों का शामिल होना है, जिसे अब तक ज्यादा रेखांकित नहीं किया गया है। हाल की एक घटना इस संबंध में एक नजीर हो सकती है, जिसमें भ्रूण के लिंग की जांच कराने आई महिलाओं के पतियों को डॉक्टरों समेत गिरफ्तार किया गया है।
महाराष्ट्र के पुणे में सोलापुररोड पर एक कार में की जा रही सोनोग्राफी के मामले में दो डॉक्टरों के अलावा पहली बार दो महिलाओं के पतियों को भी लिंग परीक्षण करने से रोकने वाले कानून (पीसीपीएनडीटी ;एक्ट) के तहत गिरफ्तार किया गया है। सुनीता विलास डांगे और पोपट चव्हाण नाम की महिलाओं की सोनोग्राफी के मामले में इनके पतियों को गिरफ्तार किया गया है। यह बात शायद ही किसी से छिपी रही हो कि भ्रूण जांच और हत्या में महिलाओं की बजाय उनके पतियों या ससुराल वालों का दबाव ज्यादा रहता है। अमूमन कोई महिला नहीं चाहती कि कई महीनों से उसकी कोख में पल रहे बच्चे को सिर्फ इसलिए मार दिया जाए कि वह लड़की है, लेकिन जब ससुराल वालों और पति की ओर से दबाव पड़ता है तो वह समर्पण कर देती है।
यह समर्पण उसकी मजबूरी है, अन्यथा उसे जीवन भर बेटी पैदा करने के लिए ताने सुनने पड़ते हैं। परिवार से बाहर समाज में उसकी हैसियत इसलिए दोयम दर्जे की मानी जाती है क्योंकि उसने एक या एक से ज्यादा बेटियां पैदा की हैं। बेटी की शादी के वक्त भी उसे दबकर रहना होता है और शादी के लिए दान-दहेज का इंतजाम भी उसे ही करना है, भले ही उस बेटी को उसने जी-जान से पाल-पोसकर बड़ा किया हो। उसकी शिक्षा-दीक्षा पर बेटों की तरह की खर्च किया हो। यह सामाजिक दबाव सबसे पहले पति और ससुराल पक्ष के अन्य सदस्यों के जरिए उस पर आता है, जिसे देखते हुए वह राजी होती है कि ‘समय रहते’ भ्रूण के लिंग की जांच करा ली जाए। पर अफसोस की बात है कि अभी तक किए गए कानूनी प्रावधानों में परिवार की तरफ से आने वाले दबाव की अनदेखी की गई है।
समस्या के कुछ पहलू और भी हैं, जो अब शहरों के साथ देश के गांवों में भी दिखाई दे रहे हैं। यह पहलू है कि तकनीक का निचले स्तर तक पहुंचना। पुणे के ताजा मामले में अल्ट्रासाउंड मशीन किसी क्लीनिक में नहीं लगी थी, बल्कि वह चीन निर्मित ऐसी हल्की मशीन थी जिसे कार में ही रखकर जांच की जा सकती है। यह मशीन दिल्ली में लगी एक मशीन प्रदर्शनी में महज डेढ़ लाख रुपए में खरीदी गई थी और उसके इस्तेमाल से आयुर्वेद और होम्योपैथी के वे दोनों डॉक्टर दस हजार रुपए प्रति मरीज के हिसाब से सोनोग्राफी कर रहे थे। इसका अभिप्राय यह है कि जिस तरह से जेबी-मशीनें आ रही हैं, निकट भविष्य में संभव है कि किसी एडवांस मोबाइल ऐप में यह सुविधा आम लोगों को मिल जाए कि वे घर बैठे खुद ही अल्ट्रासाउंड करके गर्भ का लिंग पता कर लें। कोई तकनीक वरदान के साथ अभिशाप कैसे बन जाती है, यह इसकी मिसाल है।
गर्भ की विकृतियों का पता लगाने के मकसद से अल्ट्रासाउंड मशीनों का जो इस्तेमाल दुनिया में शुरू हुआ था, उसके बारे में तो शायद उसके आविष्कर्ताओं ने भी नहीं सोचा होगा कि इन मशीनों का ऐसा खराब इस्तेमाल होगा। हमारे देश में ये सब के सब स्त्रियों के खिलाफ कुचक्र रचते नजर आ रहे हैं। अल्ट्रासाउंड मशीनें इसलिए बनीं कि अजन्मे शिशु की विकृतियों की गर्भ में जांच हो सके ताकि समय पर इलाज कर उन्हें दूर किया जाए, पर तकरीबन पूरे देश में वे कन्या भ्रूण हत्या के घृणित काम में सहायक बन गर्इं। शहरों के अलावा अब गांव-देहात में भी अल्ट्रासाउंड मशीनें मौजूद हैं। इनका सकारात्मक इस्तेमाल हो, इस मकसद से केंद्रीय महिला एवं बाल कल्याण मंत्री मेनका गांधी ने एक सुझाव दिया था कि ग्रामीण इलाकों में पंचायतें गर्भवती महिलाओं का अल्ट्रासाउंड करके बच्चे के लिंग का पता लगाएं और अगर गर्भ में बेटी है तो उसका जन्म सुनिश्चित किया जाए। लेकिन जब इस सुझाव को अमल में लाने की पहल हुई तो पता चला कि बेटी को गर्भ में पालने वाली महिला के साथ समाज बुरा बर्ताव करने लगता है। ऐसे में उस महिला की सरकारी स्तर पर निगरानी होती है, इसलिए गर्भपात कराना असंभव हो जाता है, लेकिन उस महिला को सामाजिक प्रताड़ना का शिकार होना पड़ता है। एक अच्छे सुझाव को अगर गलत राह पर मोड़ दिया गया तो इसके पीछे एक बार फिर परिवार और समाज ही जिम्मेदार नजर आ रहा है।
गांव-कस्बों में भी अब बेटियों को जन्म देने वाली स्त्रियों के प्रति जो हिकारत दिखने लगी है और उनसे दुर्व्यवहार की जो खबरें आ रही हैं, उनसे यह विचार करने की जरूरत बन गई है कि देश के कथित पितृसत्तात्मक समाज को आखिर यह कैसे समझाया जाएगा कि बेटों की तरह बेटियों की इस देश-समाज को जरूरत है। हमारा पुरुषप्रधान समाज बेटियों के जन्म और पालन-पोषण को लेकर अपनी मानसिकता बदले, यह काम सिर्फ कानून और सरकार पर नहीं छोड़ा जा सकता है। कानून बन जाना और उसे अमल में लाना एक बात है, यह जरूरी भी है। पर इससे ज्यादा जरूरी यह है कि बेटी के जन्म के विरोध से लेकर उसे पुरुष के शासन में चलने को मजबूर करने की जो सड़ी-गली परंपराएं हमारे समाज में व्याप्त हैं, उन पर भी प्रभावी रोक लगे।
यह भी तय किया जाए कि अगर कहीं लड़कियां अपने ऊपर हो रहे अन्याय, छेड़छाड़ या शोषण का विरोध कर रही हैं और उन्हें प्रकाश में ला रही हैं तो धीरज के साथ उनकी बात सुनी जाए। यह नहीं कि जिन तकनीकों का इस्तेमाल उन्होंने अपने साथ हुए जुल्म को सामने लाने में किया है, दोगुनी ताकत से उन्हीं के प्रयोग से स्त्री को कुचल दिया जाए। हमारे समाज की यही मानसिकता तकनीकों को भी कठघरे में ला रही है और इसी वजह से उनके इस्तेमाल की सजग नीति बनाने की मांग कर रही है। समाजशास्त्रियों को इस पर विचार अवश्य करना चाहिए कि आखिर नई तकनीकें कैसे स्त्री का वास्तविक पक्ष उजागर कर सकती हैं और कैसे न्याय और तरक्की में उनका साथ दे सकती हैं। ०
खिलाफ जाती तकनीक
वैसे तो विज्ञान ने इंसान की मदद ही की है। उसके ज्यादातर इंतजामों से मानवता लाभान्वित हुई है। ऐसे में, समाज में बिगड़ते लिंगानुपात के लिए विज्ञान और तकनीक को कठघरे में लाना उचित नहीं प्रतीत होता है। पर अल्ट्रासाउंट मशीनों के बारे में पूरी तरह से ऐसा नहीं कहा जा सकता। कम से कम भारत में हमारे देश में तो इस मशीन को कन्या भ्रूण हत्या के मामले में मुख्य खलनायक के रूप में देखा जा सकता है। खास तौर से इसलिए क्योंकि भ्रूण जांच में इन्हें जिस मकसद से इस्तेमाल में लाना शुरू किया गया था, उनका प्रयोग उसकी बजाय नकारात्मक चीज के लिए हुआ।
इसमें कोई संदेह नहीं है कि सरोगेसी की तकनीक और अल्ट्रासाउंड मशीनों ने लोगों को वह सुविधा दे दी है कि अपने बच्चे के लिंग का चयन कर सकें, उसके लिंग का पता लगा सकें। हमारे देश में इसका नतीजा इस रूप में निकला कि यदि गर्भ में बेटी है, तो उसे गर्भ में ही मारने के प्रबंध लोगबाग कर सकें। अल्ट्रासाउंड मशीनें इसलिए बनीं कि अजन्मे शिशु की विकृतियों की गर्भ में जांच हो सके ताकि समय पर इलाज कर उन्हें दूर किया जाए, पर तकरीबन पूरे देश में वे कन्या भ्रूण हत्या के घृणित काम में सहायक बन गर्इं। सरकार ने देश में कन्या भ्रूण हत्या के बढ़ते मामलों को देखते हुए लिंग परीक्षण को अपराध घोषित कर रखा है, लेकिन अल्ट्रासाउंड जांच करने वाले क्लीनिकों ने गर्भ की विकृतियों की जांच की आड़ में चोरी-छिपे यह सच जानने और बताने का काम अब तक जारी रखा है। यह तथ्य किसी से छिपा नहीं है। हो सकता है कि भविष्य में डीएनए तकनीकों के सहारे लोग अपनी इस सोच के मुताबिक कि उन्हें बेटा ही चाहिए, गर्भ में ही बच्चे को डिजाइन भी करा लें।
वैसे कहने को तो हमारी सरकार पिछले लंबे समय से स्त्री पक्षधरता का रुख बनाए हुए है। जहां तक संभव हो पा रहा है, सरकार पुलिस, प्रशासन और कानून के स्तर पर वे सारे उपाय कर रही हैं, जिससे महिलाओं की तरक्की, सम्मान और सुरक्षा तय हो सके। लेकिन जब मसला तकनीक ऐसे इस्तेमाल का आता है जिसमें उनका दुरुपयोग बाधित होता हो तो ढेरों मुश्किलें सामने आ जाती हैं। इसका एक उदाहरण पिछले साल भी मिला था। एक समाजसेवी साबू मैथ्यू जॉर्ज ने सुप्रीम कोर्ट में यह जनहित याचिका दायर की थी कि सरकार इंटरनेट पर लिंग परीक्षण से संबंधित किट्स और टूल्स मुहैया करान और उनके क्लीनिकों के विज्ञापनों पर रोक क्यों नहीं लगा रही है, जबकि देश में लिंग परीक्षण करना गैरकानूनी है। इस मामले पर सरकार ने जवाब दिया कि तकनीकी तौर पर उसके हाथ बंधे हैं। वजह यह है कि लिंग परीक्षण भले ही भारत में अवैध हो लेकिन यह दूसरे देशों में अपराध नहीं है। इसके अलावा वेबसाइटों पर इनसे संबंधित जो जानकारियां होती हैं वे दुनिया भर के लोगों को ध्यान में रखकर पेश की जाती हैं।साथ ही ऐसी वेबसाइटें देश के बाहर से संचालित होती हैं।
यह लाचारगी तकनीक के दूसरे सभी मामलों में नजर आ सकती है क्योंकि उन सभी तकनीकों के इस्तेमाल के कई सार्थक पहलू भी हैं और उन्हें सिर्फ स्त्री के विरोध या उसे नुकसान पहुंचाने के इरादे से नहीं बनाया गया है। पर जरूरी हो तो ऐसी चीजों पर कोई रोक कैसे लगती है, पड़ोसी देश चीन इसके कई उदाहरण पेश कर चुका है। वह जब-तब सर्च इंजन गूगल का अपने यहां संचालन रोक देता है, उससे बेहतर सर्च इंजन पेश कर देता है या फिर उन्हें अपने देश की जरूरतों और कानूनों के दायरे में रहकर काम करने को मजबूर कर देता है। हमारी सरकार स्त्री पक्षधरता की अपनी मंशा को और ठोस स्वरूप देते हुए वैसे ही काम नहीं कर सकती, जैसे चीन करता है। लेकिन यह सिर्फ कानून और सरकार पर नहीं छोड़ा जा सकता है।