पाटन पटोला नाम से प्रसिद्ध पटोला साड़ी उत्तरी गुजरात के पाटन क्षेत्र में बनती हैं। पटोला नाम संस्कृत शब्द ‘पट्टकुल’ से लिया गया है। ये साड़ियां भारतीय हस्तकला का उत्कृष्ट नमूना हैं और ये अपने शानदार रंगों, बनावट, गुणवत्ता और पीढ़ियों दर पीढ़ियों तक चलने वाली धरोहर के रूप में जानी जाती हैं। पटोला साड़ी के इतिहास, उसकी नक्काशी और खूबसूरती के बारे में बता रही हैं सुमन बाजपेयी।

पटोला साड़ी का इतिहास कोई एक हजार साल पुराना है। 12वीं शताब्दी में सोलंकी वंश के राजा कुमरपाल ने महाराष्ट्र के जलना से बाहर बसे 700 पटोला बुनकरों को पाटण में बसने के लिए बुलाया और इस तरह पाटन पटोला की परंपरा का शुभारंभ हुआ। अजंता-एलोरा की गुफाओं में जो चित्र बने हैं उनमें से कई चित्रों में मनुष्य पटोला पहने नजर आता है। राजा-महाराजा विशेष अवसरों पर पटोला सिल्क का पट्टा ही पहना करते थे। यही वजह है कि गुजरात आज पटोला बुनकरों और व्यापारियों का गढ़ है। रामायण और नरसिंह पुराण में भी पटोला साड़ी का उल्लेख मिलता है। यही नहीं पौराणिक कथाओं के अनुसार राजा जनक ने सीता को एक पटोला की साड़ी उपहार के तौर पर दी थी।

पहले शाही घराने की महिलाएं और कुलीन लोगों की पत्नियां पटोला साड़ी पहनती थीं। बीस हजार से बीस लाख के बीच बिकने वाली इन साड़ियों का दाम इस बात से तय होता है कि काम कितना बारीक है और बुनाई में सोने के धागों का कितना प्रयोग किया गया है। इन साड़ियों को बुनने का हुनर पीढ़ी दर-पीढ़ी केवल पुत्रों को दिया जाता है और आज, पाटन में साल्वी समुदाय के केवल तीन परिवार हैं, जो इन बेशकीमती साड़ियों की बुनाई करते हैं। घर की बेटियों को वे इस कला को नहीं सीखाते। वो इसलिए कि कहीं दूसरे परिवार में ये शिल्प व कला न चली जाए। इसमें रानी की वाव (बावड़ी) जो पाटन का एक प्रसिद्ध स्थल है, के खम्भों की नक्काशी का नमूना बनाते हैं। जब बावड़ी बनकर तैयार हुई थी, तब इसकी हस्तकला को रानी उदयमती ने अपने कपड़ों पर सबसे पहले अंकित करवाया था। इसके बाद केवल महल की राजकुमारियां और रानियां ही इसे बनवाने और पहनने का अधिकार रखती थीं।

खासियत है बारीक बुनाई
पाटन में बुने रेशम पाटन को पटोला के नाम से जाना जाता है। इसकी बुनाई, अन्य बुनाई के सभी तरीकों से सबसे कठिन है। इसमें रेशम की बुनाई के लिए ‘दोहरी इक्कत शैली’ का उपयोग किया जाता है, यानी इसमें दोनों तरफ काम किया हुआ होता है। यह काम गुणवत्ता और रंग में दोनों तरफ से बराबर होता है। एक साड़ी बनाने में महीनों लग जाते हैं, इसी कारण ये इतनी महंगी होती हैं। इसकी बारीक बुनाई इनकी खासियत है।

वनस्पति रंगों का इस्तेमाल
पटोला साड़ी को बुनने से पहले ताने-बाने को अलग-अलग रंगा जाता है। कपड़े को रंगने के लिए वनस्पति रंगों (वेजिटेबल आॅयल) का इस्तेमाल किया जाता है। ताने-बाने को करघे पर इस तरह चढ़ाना होता है कि डिजाइन में सूत बराबर का भी फर्क न आए। बुनाई की प्रक्रिया काफी लंबी और जटिल होती है और बुने जाने से पहले धागे के प्रत्येक रेशे को अलग-अलग रंगना पड़ता है।

साड़ी सौ साल तक चलेगी
पटोला साड़ी की सबसे बड़ी खासियत है कि इसे दोनों तरफ से पहना जा सकता है। इसे ‘डबल इकत आर्ट’ कहते हैं। डबल इकत में धागे को लंबाई और चौड़ाई दोनों तरह से आपस में क्रॉस करते हुए फंसाकर बुनाई की जाती है। इससे यह तक नहीं पता चलता कि साड़ी किस तरफ से सीधी और किस तरफ से उल्टी है। पटोला साड़ी की दूसरी सबसे बड़ी खासियत यह है कि इसका रंग कभी हल्का नहीं होता और साड़ी सौ साल तक चलती है। इसका पल्लू सोने की जरी से बनता है। साड़ी पर आकृति उकेरने का एक निश्चित क्रम होता है, इसलिए एक साड़ी को दो ही मजदूर पूरा करते हैं। जब तक एक साड़ी का काम पूरा नहीं हो जाता, तब तक दूसरी की तैयारी नहीं की जाती।

रानी की वाव की नक्काशी
बावड़ी की दीवारों पर की गई नक्काशी जो मारू-गुर्जर शैली में की गई है, उसे साड़ियों में बुना जाता है। पाटन के एक बुनकर ने बताया कि बावड़ी की दीवारों की नक्काशी में केवल चार तरह की आकृतियां हैं, जिसे आपस में इस तरह जोड़ा गया है कि ये हर दीवार पर अलग दिखाई देती हैं। पटोला साड़ियों पर भी इन्हीं चार आकृतियों को नक्कशी वाली शैली में उतारा जाता है। पटोला साड़ी में उपयोग किए जाने वाले डिजाइन में फूलों के ज्यामितीय डिजाइन, हाथी, तोते और मानव आकृतियां देखने को मिलेंगी। लेकिन हरा मुस्लिम समुदाय द्वारा पहने जाने वाली पटोला में सिर्फ ज्यामितीय डिजाइन ही देखने के मिलेंगे। एक तरह से पटोला साड़ी में जो डिजाइन उकेरे जाते हैं, शिखर सहित, वे एक तरह की सुरक्षा का प्रतीक हैं। हाथी, तोते, मोर, कलश, आदि महिलाओं के लिए सौभाग्य का भी प्रतीक हैं।

बेशकीमती धरोहर
सदियों से, पटोला को एक शुभ विरासत माना गया है और यह परंपरा आज भी जारी है। दुनिया के लगभग हर लोकप्रिय कपड़ा संग्रहालय (टेक्सटाइल म्यूजियम) में संग्रहित होने के कारण, यह समझना मुश्किल नहीं है कि यह इतनी बेशकीमती धरोहर आखिर क्यों है? कुछ लोगों के लिए अगर यह बुनाई का असाधारण नमूना है तो कुछ इसे इसके चटक रंगों की वजह से पसंद करते हैं। सच तो यह है, पटोला साड़ी का इतिहास, उसकी बुनाई उसके रंगों की ही तरह कभी फीके नहीं पड़ेंगे।

पटौला साड़ी, हथकरघे से बनी एक प्रकार की साड़ी है।
यह प्राय: रेशम की बनती है।
यह काम करीब सात सौ साल पुराना है।
हथकरघे से बनी इन साड़ियों को बनाने में छ महीने से ज्यादा समय भी लग जाता है।
दोनों साइड वाली ये साड़ियां अस्सी हजार रुपये से दो लाख रुपये तक की लागत में तैयार की जाती है।
तीन परिवारों ने संभाल रखा है इस नौ सौ साल साल पुरानी धरोहर को।