डॉ. वरुण वीर
संसार में अनेक प्रकार के व्यक्ति देखने को मिलते हैं। सभी का शरीर रंग रूप योग्यता अलग-अलग होती है। यह ही नहीं सभी की बुद्धि का स्तर भी अलग होता है। कुछ जन्म से ही प्रतिभाशाली होते हैं तो कुछ सारा जीवन किसी वस्तु या उद्देश्य को पाने में लगा देते हैं तब भी उसे पाने में असमर्थ होते हैं तथा कुछ लोग थोड़े से ही परिश्रम से बहुत कुछ पा लेते हैं। सभी का जीवन एक जैसा नहीं होता है। व्यक्ति के कर्म और कर्मों से बने संस्कारों और संस्कारों के प्रभाव के कारण कर्म का यह चक्र सदैव चलता रहता है और प्रारब्ध इकट्ठा होता जाता है। मनुष्य अपने उस प्रारब्ध के साथ जीवन यापन करता है। योग में अनेक प्रकार की सिद्धियों का वर्णन किया गया है जो सामान्य व्यक्ति या साधक को मिलती हैं। कैवल्य पाद के प्रथम सूत्र में ही महर्षि पतंजलि ने कई प्रकार की सिद्धियों का वर्णन किया है।
जन्मोषधिमन्त्रतप: समाधिजा: सिद्धय:॥
जन्म, औषधि, मंत्र, तप, तथा समाधि से उत्पन्न पांच सिद्धियां होती है।
जन्मना सिद्धि : जो जन्म से प्राप्त हो। हम संसार में देखते हैं कि कई छोटे-छोटे बच्चे गीता को पांच वर्ष की आयु में ही कंठस्थ कर लेते हैं, तो कई जन्म से ही मीठे स्वर में गाते हैं तो कोई चित्रकला या संगीत में माहिर होते हैं तो कई अत्यंत कुशाग्र बुद्धि लिए होते हैं। जिस सिद्धि की प्राप्ति के लिए इस जन्म में विशेष प्रयास न किया जाए वह जन्म से प्राप्त पूर्व जन्म में किए गए शुभ कर्मों का फल जन्म सिद्धि के रूप में मिलता है। इसका अर्थ यह भी नहीं है कि बिना कर्म के इस जन्म में आपको सिद्धि मिल जाएगी। पूर्व जन्म के कर्मों के फल को सिद्धि के रूप में पाने के लिए भी परिश्रम की जरूरत होती है जैसे बचपन से ही यदि छोटा बच्चा अच्छा गाता है तो माता-पिता तथा बच्चे को परिश्रम करना पड़ेगा कि उसकी योग्यता सिद्धि का रूप ले ले। यदि माता-पिता उसको शिक्षा ना दें और उस बच्चे का ध्यान दूसरी ओर मोड़ दें तो बच्चा उस सिद्धि से वंचित भी हो सकता है। इसलिए सिद्धि की प्राप्ति करने के लिए शिक्षा, प्रयास तथा वातावरण की भी जरूरत होती है। कई लोग बचपन से ही ईश्वर भक्त, धार्मिक तथा ध्यान करने वाले होते हैं यह सब उनके पूर्व जन्म में किए गए शुभ कर्म होते हैं। यम नियम आदि अंगों का अनुष्ठान, विवेक, वैराग्य, सत पुरुषों का संग आदि इस प्रकार के आचरण से संस्कार उत्पन्न होते हैं जो कि इस वर्तमान जन्म में जन्म सिद्धि के रूप में मिलते हैं।
औषधिजा सिद्धि : विशेष औषधियों के सेवन से शरीर प्राण तथा मन की समस्याओं को दूर करना, शरीर स्वस्थ बलवान बने इस प्रकार के रसायनों का सेवन करना, इसी को आयुर्वेद में कायाकल्प कहते हैं। आयुर्वेद में अनेक प्रकार के कायाकल्पों का वर्णन मिलता है जो जरा अवस्था को कम करने में सहायक होने के साथ-साथ बुढ़ापे से यौवन की ओर शरीर व मन को खींचकर ले आता है। यहां पर यह बात भी ध्यान देने की है कि औषध के साथ साथ भोजन, व्यायाम तथा दिनचर्या भी आवश्यक है। औषधियों के सेवन से अनेक प्रकार के रोगों को दूर कर देना भी महत्वपूर्ण सिद्धि है। रसायन व औषधियों से चेहरे की झुर्रियां, दाग धब्बे, सफेद बाल काले करना, जटिल से जटिल रोगों को समाप्त करना आदि तथा आज वर्तमान में जो भी अस्पतालों में औषधियों के माध्यम से रोगों का निवारण हो रहा है वह भी औषधि सिद्धि का ही रूप है। आयुर्वेद के अनुसार भोजन लेने से पहले तीन नियमों का पालन करना चाहिए। जैसे ऋतु के अनुसार फल सब्जियों का सेवन करना। शरीर के अनुकूल तथा शरीर के लिए जो हितकर भोजन है वह करना तथा भूख से कम भोजन करना चाहिए। योग मार्ग में पाचन तंत्र को ठीक रखना अत्यंत जरूरी है। जो भी भोजन किया जाए वह पचना चाहिए। जो कि योग आसन और उपयुक्त औषधियों के सेवन से संतुलित रहता है।
मन्त्रजा सिद्धि : मंत्र केवल वेद में ही हैं अन्यथा अन्य ग्रंथों में तो केवल श्लोक तथा सूत्र आदि ही होते हैं। वेदों में दिए गए मंत्र परमात्मा द्वारा दिव्य आत्माओं के हृदय में प्रकाशित किए गए हैं और जो ज्ञान इन मंत्रों के माध्यम से परमात्मा ने मनुष्य मात्र को दिया है कि जीवन को किस प्रकार से चलाया जाए। यदि आज हम बाजार में कुछ खरीद कर लाते हैं तब कंपनी उसके साथ एक मैनुअल देती है कि उस वस्तु को किस प्रकार प्रयोग करना चाहिए। उसी प्रकार से परमात्मा ने सिर्फ मनुष्य को यह ज्ञान दिया है कि जीवन कैसे चलाना चाहिए तथा आत्मा, परमात्मा, प्रकृति, जीवन का लक्ष्य क्या है? धर्म अर्थ काम मोक्ष क्या है? सभी विषयों से संबंधित ज्ञान मनुष्य को वेद मंत्रों के माध्यम से दिया गया है। मंत्रों को पढ़कर तथा अनुभव करके मंत्रों को सिद्ध किया जा सकता है। मंत्रों का स्पष्ट उच्चारण अर्थ सहित करने से सिद्धि प्राप्त होती है। गायत्री मंत्र का अर्थ सहित मन में एकाग्रता के साथ-साथ बुद्धि की तीव्रता तथा शक्ति को बढ़ाता है। वेदों में सभी प्रकार के मंत्र हैं। ऐसा कोई भी विषय नहीं है जिसका वर्णन वेदों में ना किया गया हो। भौतिक, रासायनिक, जैविक, शारीरिक, मानसिक, आत्मा आदि विषय का ज्ञान परमात्मा द्वारा दिया है। जो कि मनुष्य मात्र के लिए ही नहीं बल्कि अन्य जीव-जंतुओं पर भी मनुष्य की परोपकारी दृष्टि बनी रहे जिससे कि संपूर्ण संसार सुख शांति आनंद से चल सके। एक विषय को लेकर उसका चिंतन मनन करना वह भी मंत्र ही कहलाता है।
तपोजा सिद्धि : इसमें शारीरिक मानसिक तथा वाचिक स्तर पर तप किया जाता है। वैदिक विचारधारा के आधार पर चार आश्रमों की व्यवस्था जीवन तथा समाज को चलाने के लिए की गई है। ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ तथा सन्यास आश्रम चारों ही आश्रम तपस्या को महत्व देते हैं। ब्रह्मचर्य आश्रम में विद्या का पढ़ना, सर्दी गर्मी, मान अपमान सभी प्रकार के द्वंद्वो को सहन करते हुए ज्ञान अर्जित करना तप कहलाता है। इसके अनुष्ठान से बल विद्या तथा वीर्य का लाभ होता है। गृहस्थ आश्रम में अलग प्रकार का तप रहता है। जहां पर परिवार के साथ रहते हुए अपने कर्तव्यों का निर्वाह प्रेम पूर्वक तथा सभी कष्टों को सहते हुए किया जाता है। संबंधों में सत्य, विश्वास, श्रद्धा का निभाना भी तपस्या है। बच्चों का लालन पोषण और उनका धर्म द्वारा धन संचय करना अपने प्रकार का विशेष तप है। तपोजा सिद्धि की उपलब्धि से जीवन में संतुलन आता है तथा वानप्रस्थाश्रम तथा सन्यास आश्रम में अपने आप को समाज तथा परमात्मा के प्रति समर्पण कर देना और योगाभ्यास द्वारा क्लेश कर्मों पर विजय पाना सबसे बड़ी तपस्या है। यह तपस्या करने से आत्म साक्षात्कार तथा परमात्मा का साक्षात्कार होता है।
समाधिजा सिद्धि : समाधि द्वारा प्राप्त आठ सिद्धियों का वर्णन योग दर्शन में किया गया है।
अणिमा : शरीर को अणु के समान बना लेना।
लघिमा : शरीर को रुई के समान हल्का बना लेना।
महिमा : शरीर को अत्यधिक शक्तिशाली लंबा चौड़ा बना लेना। प्राप्ति : चंद्रमा को मानसिक रूप से अंगुली के अग्रभाग से छूकर महसूस करना।
प्राकाम्य : योगी की जो भी इच्छा होगी उसका पूर्ण हो जाना।
वशित्व : पृथ्वी आदि पंचभूत तथा उनसे उत्पन्न कुछ पदार्थों को वश में कर लेना।
ईशितृत्व : इस भूमि आदि से बने कुछ पदार्थों को लेकर नये पदार्थों का निर्माण कर लेना।
यत्रकामावसायित्व : सत्यसंकल्प से जो कार्य योगी के ज्ञान बल से किए जा सकते हैं उनको उत्पन्न करने की इच्छा करना तथा उनको जिस स्थिति में चाहे रखना।
इस प्रकार योग दर्शन में सिद्धि की महत्ता को बताया गया है लेकिन यह सभी सिद्धियां अंतिम लक्ष्य मोक्ष में बाधक होती हैं इसलिए इन सिद्धियों के जाल में साधक योगी को फंसना नहीं चाहिए तथा केवल अंतिम लक्ष्य आत्मा से परमात्मा के मिलन को महत्व देना चाहिए। जो कि वेद में भी परमात्मा द्वारा दिया गया उपदेश है।