सेहत के मसले पर एक आम दृष्टिकोण यह है कि अगर शरीर में कोई तकलीफ होती है, तभी कोई खुद को या किसी अन्य को बीमार मानता है। जबकि अगर मन या दिमाग किसी व्यापक उथल-पुथल के बाद तनाव या अवसाद की स्थिति में जाता है, तो उसे कोई स्वास्थ्य समस्या मानने को लेकर पर्याप्त सजगता नहीं देखी जाती है। जबकि अगर मन अशांत है, किसी दुख से घिरा हुआ है, अवसाद का सामना कर रहा है, तब वह किसी शारीरिक बीमारी से ज्यादा जटिल स्थिति है। यह इसलिए भी जरूरी है कि मन की स्थिति पर कई बार शरीर का स्वस्थ या अस्वस्थ होना निर्भर करता है।
जागरूकता की जरूरत
विडबंना यह है कि मानसिक सेहत को लेकर हमारा समाज अभी उस स्तर तक जागरूक नहीं है, जितना होना चाहिए। खासतौर पर शहरों-महानगरों में रहने वाले लोगों के बीच कामकाज से लेकर रोजमर्रा की जिंदगी में जितने तरह की उलझनें और व्यस्तताएं होती हैं, उसमें कब वह दबाव के बीच तनाव का शिकार हो जाता है, पता नहीं चलता। हम अपने आसपास साफ देख सकते हैं कि कोई व्यक्ति सामान्य बातों पर भी आपा खो देता है, कोई बात गंभीरता से सुने-समझे बिना उस पर आक्रामक प्रतिक्रिया देता है। हम ऐसे लोगों को गुस्सैल या ज्यादा से ज्यादा खराब स्वभाव और बर्ताव वाला मानकर अनदेखा कर देते हैं, लेकिन यह संभव है कि वह किसी ऐसी मानसिक परेशानी का शिकार हो गया हो, जिसके बारे में उसे खुद भी अंदाजा नहीं हो।
अनदेखी का हासिल
इस तरह की और अन्य कई प्रकार की मानसिक जटिलताओं की अनदेखी का नतीजा यह होता है कि कई बातें व्यक्ति के मन में चुपके-चुपके घुलती रहती हैं और धीरे-धीरे वह मानसिक विकार का रूप लेकर उसके मन-मस्तिष्क में गहरे जड़ जमा लेती है। मानसिक विकारों का लंबा खिंचना दरअसल, बीमारी को और मुश्किल हालात में डाल देती है और उसका इलाज भी बाद में ज्यादा जटिल हो जाता है। कई बार सामान्य द्वंद्व से भी ठीक से नहीं निपट पाने के बाद व्यक्ति अपने आसपास के लोगों के या फिर कई बार खुद अपने प्रति भी अनियंत्रित और हिंसक बर्ताव करना शुरू कर देता है। आत्महत्या भी इसी स्थिति का एक नतीजा है। ऐसी अनियंत्रण की स्थिति में पहुंचने के बाद अंधविश्वास से पीड़ित परिवार तांत्रिकों या बाबाओं के चक्कर लगाने लगता है, तो दूसरी ओर कई लोगों को समझने में इतनी देर हो जाती है कि मनोचिकित्सक के पास जाने के अलावा दूसरा रास्ता नहीं सूझता।
वक्त पर पहचान
इसका एक कारण तो यह है कि मानसिक परेशानी को पागलपन से जोड़ कर देखा जाता है और उसे टाला जाता रहता है। तनाव या अवसाद में पड़ा व्यक्ति कभी बेलगाम बर्ताव कर सकता है, मगर वह स्तर सामान्य काउंसलिंग या मनोवैज्ञानिक परामर्श आदि से ठीक हो जाता है। इसी की अनदेखी आगे चल कर व्यक्ति के मस्तिष्क को आघात पहुंचाती है और स्थिति नियंत्रण से बाहर चली जाती है। इसलिए जरूरी है कि हम जितना जागरूक और सावधान शरीर की किसी बीमारी को लेकर होते हैं, उतना ही सजग अपने मानसिक स्वास्थ्य को लेकर भी हों। शुरुआती दौर में ही अपने गहरे मित्रों से या रिश्तेदारों या परिवार में परेशानी की चर्चा करना चाहिए और जरूरत होने पर मनोवैज्ञानिक परामर्शदाताओं या चिकित्सकों से मदद लेनी चाहिए। सबसे ज्यादा जरूरी है संवाद, जिससे बचना मरीज के भीतर मानसिक असंतुलन की स्थिति पैदा कर देता है और उसके परिवार को मुश्किल हालात में डाल देता है। जरूरत इस बात की है कि मानसिक सेहत को शारीरिक स्वास्थ्य की तरह की एक आम दिक्कत के रूप में स्वीकार किया जाए और समय पर इस पर गौर करके जरूरी उपचार कराया जाए।